साढ़े तीन सौ से अधिक अमेरिकी अख़बारों, चैनलों और न्यूज़ साइटों ने 16 अगस्त को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रवैये के ख़िलाफ़ एक साथ संपादकीय लिखकर एक इतिहास रच दिया है. अपने चुनाव अभियान के दौर से ही राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिकी मीडिया के बड़े हिस्से को निशाना बनाते रहे हैं. वे अक्सर मीडिया के लिए ‘लोगों का दुश्मन’, ‘अमेरिका का दुश्मन’, ‘फ़ेक न्यूज़’, ‘झूठे’ आदि शब्दों का इस्तेमाल करते रहते हैं. अपने संबोधनों में या संवाददाता सम्मेलनों में भी वे सीधे पत्रकारों की ओर इशारा कर उन्हें या उनकी संस्थाओं को भला-बुरा कहते हैं. इतना ही नहीं, ट्रंप और उनके प्रशासन के कार्यक्रमों में पत्रकारों की पहुँच तथा व्हाइट हाउस के संवाददाता सम्मेलनों या बयान जारी करने की प्रक्रिया को भी सीमित किया गया है.
प्रकाश के रे
‘द बोस्टन ग्लोब’ ने ट्रंप प्रशासन के मीडिया-विरोधी चरित्र के विरुद्ध एक साथ संपादकीय प्रकाशित करने का आग्रह किया था. इस आह्वान में बड़े-छोटे कई अख़बार शामिल हुए जिनमें से कुछ ऐसे प्रकाशन भी है जो डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक माने जाते हैं या जो राष्ट्रपति चुनाव में उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में खड़े थे. जो अख़बार इस अभियान में शामिल नहीं हुए, उन्होंने भी समर्थन करते हुए लेख और बयान छापे हैं. अन्नापोलिस के कैपिटल गज़ट ने इस बाबत संपादकीय नहीं लिखा है और कहा है कि उसके लिए राष्ट्रपति के भरोसे से ज़्यादा अहमियत उस समुदाय के भरोसे का है, जो यह अख़बार पढ़ता है. बीते जुलाई में एक बंदूकधारी ने इस अख़बार के दफ़्तर में पाँच वरिष्ठ पत्रकारों की हत्या कर दी थी.
गुरुवार को जब 350 से अधिक संपादकीय राष्ट्रपति को यह कह रहे थे कि मीडिया अमेरिकी जनता की दुश्मन नहीं है, उसी दिन सीनेट में भी यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया कि सदन का मानना है कि अख़बार लोगों के दुश्मन नहीं है और स्वतंत्र मीडिया की संस्था पर हमले की निंदा करता है. सीनेटर ब्रायन शाज़ द्वारा लाये गये इस प्रस्ताव में बेंजामिन फ़्रैंकलिन से लेकर रोनाल्ड रीगन जैसे अनेक राजनेताओं के मीडिया संबंधी बयान हैं तथा कुछ ख़ास अदालती फ़ैसलों और टिप्पणियों का उल्लेख किया गया है. अपनी आदत से लाचार ट्रंप भी कहाँ चूकने वाले थे, सो उन्होंने गुरुवार को ही एक ट्वीट दाग़ दिया- ‘फ़ेक न्यूज़ मीडिया विपक्षी पार्टी है. यह हमारे महान देश के लिए बहुत बुरा है. पर हम लोग जीत रहे हैं.’ आख़िरी पंक्ति में उन्होंने सारे शब्द बड़े अक्षरों से लिखा है.
यह भी दिलचस्प है कि वाशिंगटन और न्यूयॉर्क के कुछ बड़े अख़बारों के पत्रकारों ने लिखा है कि इस अभियान से राष्ट्रपति के नकारात्मक और निराशाजनक रवैये पर चर्चा को पूरे देश में ले जाने में मदद मिलेगी. जिस अमेरिका में इंटरनेट का इतना प्रसार है और मीडिया का बड़ा फैलाव है, वहाँ अब तक यह चर्चा आम नहीं हुई है! या, फिर इन दो सत्ताकेंद्रों में बैठे पत्रकार किसी दृष्टिभ्रम के शिकार हैं!
प्रेस और शासन-प्रशासन के बीच मौजूदा टकराव कोई नयी या विलक्षण परिघटना नहीं है. यह भी नया नहीं है कि मीडिया का एक हिस्सा, अक्सर बड़ा हिस्सा, अमेरिकी शासन-तंत्र के एजेंडे को आगे बढ़ाने में मददगार भी बनता है. मैकार्थी प्रकरण के बाद से ही मीडिया का दख़ल समाज और सरकार में लगातार बढ़ा है. इस सदी में आतंकवाद और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर युद्धोन्माद पैदा करने में भी मीडिया की बड़ी भूमिका रही है. अमेरिकी लोकतंत्र की कथित श्रेष्ठता की आड़ में बीती सदी में इस मीडिया को समाजवाद-विरोधी दुष्प्रचार का जिम्मा भी मिला.
परंतु, बीते कुछ सालों से उग्र-राष्ट्रवादी नस्लभेदी दक्षिणपंथ ने जिस तेवर के साथ मीडिया को निशाने पर लिया है, उससे अमेरिकी मीडिया का चिंतित होना स्वाभाविक है. स्वाभाविक इसलिए नहीं कि यह औचक हुआ या सरकार और उसके समर्थक अचानक आक्रामक हो गये. स्वाभाविक इसलिए तीस-चालीस सालों के नव-उदारवादी चकाचौंध में मीडिया ने ख़ुद को भी गुम कर दिया था. उसे समझ में नहीं आ रहा है कि इस संकट का वह भी एक आयोजक ही नहीं, प्रायोजक भी है. एक असफल और बेईमान कारोबारी को प्रेजिडेंट ट्रंप बनाने में मीडिया ने प्रेस की नहीं, पीआर एजेंसी का काम किया है. समीकरण तब गड़बड़ाया, जब मीडिया अपने उस फ़ैंटेसी को जीने की कोशिश करना लगा, जिसमें उसने ख़ुद को लोकतंत्र का पहरुआ माना हुआ है.
इस बात को समझने के लिए कुछ प्रासंगिक आँकड़ों पर नज़र डालना ज़रूरी है. पिछले महीने क्विंनीपिआक पोल में एक सवाल था- ख़बरिया मीडिया लोगों की दुश्मन है या फिर लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा? इसमें भाग लेनेवाले कुल मतदाताओं में से 21 फ़ीसदी ने राष्ट्रपति ट्रंप की राय से सहमति जतायी. रिपब्लिकन पार्टी के 45 फ़ीसदी मतदाता मानते हैं कि मीडिया दुश्मन है, जबकि बाक़ी 44 फ़ीसदी इससे सहमत नहीं हैं. डेमोक्रेट पार्टी के 94 फ़ीसदी मतदाता ट्रंप की बात से वीरोध रखते हैं, जबकि स्वतंत्र मतदाताओं में यह आँकड़ा 74 फ़ीसदी है.
इस साल के शुरू में प्रकाशित नाईट फाउंडेशन और गैलप सर्वे के अध्ययन में बताया गया है कि 84 फ़ीसदी लोग मानते हैं कि मीडिया की भूमिका अहम है, पर मीडिया अपना काम ठीक से नहीं कर रहा है. इनमें से सिर्फ़ 44 फ़ीसदी ही किसी भरोसेमंद समाचार स्रोत का नाम बता सके. जहाँ 54 फ़ीसदी डेमोक्रेट मीडिया को लेकर सकारात्मक हैं, वहीं 68 फ़ीसदी रिपब्लिकन की नज़र में मीडिया की छवि ठीक नहीं है.
मीडिया के विस्तार को आम तौर पर लोकतंत्र के लिए ठीक माना जाता है, पर अमेरिकियों की दृष्टि में ऐसा कुछ कम ही है. नाईट-गैलप सर्वे में 58 फ़ीसदी का मानना है कि स्रोतों की संख्या में बढ़ोतरी से ठीक से सूचना पाने की प्रक्रिया में दिक्कतें आयी हैं, जबकि 38 फ़ीसदी मानते हैं कि इससे आसानी हुई है. साल 1986 में 66 फ़ीसदी की राय थी कि सही तथ्यों को ठीक से निकालने के लिए बहुत स्रोत हैं, पर मौजूदा सर्वे में यह संख्या घटकर 50 फ़ीसदी हो गयी है.
इंटरनेट पर फैलते फ़ेक न्यूज़ के बाबत 73 फ़ीसदी अमेरिकी चिंतित हैं, पर 50 फ़ीसदी का मानना है कि लोगों में पक्षपाती समाचारों को चिन्हित करने की क्षमता है. लेकिन इस भरोसे में भी कमी आयी है. एक पीढ़ी पहले 66 फ़ीसदी लोग मानते थे कि पाठक-दर्शक पक्षपाती ख़बरों की पहचान कर सकते हैं. इस संदर्भ में एक मज़ेदार आँकड़ा यह है कि रिपब्लिकन पार्टी के 40 फ़ीसदी समर्थक मानते हैं कि अगर किसी नेता के बारे में नकारात्मक समाचार दिया जा रहा है, तो वह फ़ेक न्यूज़ ही है- भले ही वह ख़बर सही हो.
इसके साथ एक्सिओस-सर्वेमंकी के सर्वेक्षण को रखकर देखें, जिसमें बताया गया है कि 72 फ़ीसदी अमेरिकी मानते हैं कि परंपरागत मीडिया जान-बूझकर झूठी या भ्रामक ख़बरें देता है. गैलप के एक अन्य अहम सर्वे में जानकारी दी गयी थी कि 2016 में मीडिया में भरोसे का आँकड़ा सिर्फ़ 32 फ़ीसदी था, जबकि वाटरगेट और एलिंसबर्ग प्रकरण के बाद 1976 में यह आँकड़ा 74 फ़ीसदी था. इस आँकड़े को ठीक से समझने की ज़रूरत है कि 40 सालों के अंतराल में मीडिया के भरोसे में 40 फ़ीसदी की गिरावट क्यों आयी और इस गिरावट की जिम्मेदारी किसकी है.
साल 2016 में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक रैलियों में मीडिया के लिए ‘लुगेंप्रेसे’ के नारे का इस्तेमाल करते थे. यह जर्मन भाषा का एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है- झूठा प्रेस. जर्मनी में हिटलर के उभार के दौर में नाज़ी पार्टी अपने ख़िलाफ़ लिखने वाले प्रेस के लिए इस संबोधन का प्रयोग करती थी. फिर 2017 में ट्रंप का वह कुख्यात ट्वीट आया कि ‘फ़ेक न्यूज़ मीडिया मेरा नहीं, अमेरिकी जनता की दुश्मन है.’ अब सवाल यह उठता है कि बीते तीन-चार दशकों में अमेरिकी मीडिया क्या जनता के साथ खड़ी थी, या नव-उदारवाद की वैश्विक लूट के साथ, जिसमें अमेरिकी जनता का भी भारी नुकसान हुआ. आज भी यह मीडिया किस पाले में है और उसकी सुर्ख़ियाँ क्या होती हैं!
ऐसे में कोई ट्रंप अपनी धुर-दक्षिणपंथी राजनीति के बहकावे में लोगों को फाँस लेता है, तो मीडिया को शिकायत ट्रंप के साथ उन राजनीतिक ताक़तों से भी होनी चाहिए, जो जनता के नाम पर कॉरपोरेट हितों की पैरोकारी कर रहे हैं. बड़े अमेरिकी अख़बारों और चैनलों को देखिये और रेखांकित कीजिये कि उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप से जो सवाल पूछे, उनमें कितने सारे रूस और उत्तर कोरिया से बावस्ता से थे और कितने फ़िलीस्तीन या अफ़ग़ानिस्तान या फिर डकोटा पाइपलाइन से. अमेरिका जैसा हाल हमारे यहाँ भी है. सवाल और शिकायत सही हैं, पर पड़ताल और पूछताछ गड़बड़. अमेरिकी या भारतीय श्रेष्ठता और मूल्यों पर भावुक संपादकीय लिखिये, पर इसकी आड़ में चल रहे दमन और बेईमानी से परहेज़ करिये. फिर कोई ताक़तवर आपके साथ खेल जाये, तो लाचार जनता के सामने छाती पीटिये- गजब भयो रामा, जुलम भयो रे…
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विदेशी मामलों पर करीबी निगाह रखते हैं