केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्री संतोष गंगवार ने यह कहकर विवाद का माहौल बना दिया है कि रोज़गार के अवसरों की कमी नहीं है, बल्कि उत्तर भारतीय युवाओं में उनके लिए योग्यता की कमी है और इसी वजह से बेरोज़गारी चिंताजनक बन गयी है. मंत्री की बात पर बहस अपनी जगह है, पर इस हवाले से देश-दुनिया में बेरोज़गारी की स्थिति पर नज़र डालना ठीक होगा.
इस साल जनवरी में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस के श्रमशक्ति सर्वेक्षण के आधार पर जब मीडिया में रिपोर्ट छपी कि देश में बेरोज़गारी की दर 6.1 फ़ीसदी है, तब नीति आयोग ने कहा था कि यह एक प्रारंभिक रिपोर्ट है और मीडिया में बिना सत्यापन के ख़बर चलायी जा रही है. चूँकि उस समय चुनाव की सरगर्मी थी, तो विपक्ष ने इसे मुद्दा भी बनाया था कि सरकार आँकड़ों को दबाने की कोशिश कर रही है.
लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद सरकार की ओर से राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने इस रिपोर्ट को जारी कर दिया. उसमें यही बताया गया था कि 2017-18 में देश में बेरोज़गारी की दर 6.1 फ़ीसदी रही थी. यह दर ग्रामीण क्षेत्रों में 5.3 फ़ीसदी और शहरी क्षेत्रों में 7.8 फ़ीसदी थी. पहले के आँकड़ों से इस सर्वेक्षण की तुलना करें, तो पता चलता है कि बेरोज़गारी की यह दर 45 साल में सबसे ज़्यादा है. लेकिन पांच साल तक विकास का ढोल पीटने वाली सरकार यह कैसे गवारा कर ले, सो उसने कह दिया कि दर निर्धारण में नयी पद्धति का अनुसरण किया गया है, इसलिए इन आँकड़ों को पहले के तथ्यों के साथ नहीं देखा जाना चाहिए.
इस संदर्भ में हमें अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के शोध निदेशक डेमियन ग्रिमशॉ की यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिन देशों में असंगठित क्षेत्र बहुत ज़्यादा बड़ा हो, उनके श्रम बाज़ार या आर्थिक प्रदर्शन का अंदाज़ा बेरोज़गारी दर के आधार पर लगाना ठीक नहीं होगा. यह बात उन्होंने अफ़्रीका के ग़रीब देशों में रोज़गार के बेहतर आँकड़ों के संबंध में कही थी. दुनिया में बेरोज़गारी की स्थिति के बारे में इस लेख में आगे संक्षेप में चर्चा की जायेगी. अभी भारत से संबंधित कुछ अन्य तथ्यों को देखते हैं. इन तथ्यों को देखते हुए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्थिति आँकड़ों में जितनी गंभीर दिख रही है, उससे कहीं अधिक चिंताजनक है.
हमारे देश में 2011-12 में 47.25 करोड़ लोग रोज़गार में थे. यह संख्या 2017-18 में घटकर 45.70 करोड़ हो गयी यानी छह सालों में 1.55 करोड़ कामगार कम हो गये, जबकि इसी अवधि में 25 से 64 साल के लोगों की संख्या लगभग 4.70 करोड़ बढ़ गयी.
इन आँकड़ों का विश्लेषण करते हुए अर्थशास्त्री हिमांशु ने ‘लाइवमिंट’ में लिखा है कि रोज़गार में यह कमी मुख्य रूप से कृषि में कामगारों की घटती संख्या के कारण है. बीते छह साल में लगभग 3.70 करोड़ लोग खेती के काम से अलग हुए हैं. उन्होंने 2004-05 से ही जारी खेती से लोगों के हटने के रूझान का स्वागत करते हुए यह भी चिंता जतायी है कि इससे कृषि क्षेत्र में बढ़ती अनिश्चितता का भी पता चलता है. हिमांशु ने रेखांकित किया है कि कार्यबल में महिलाओं की घटती संख्या आश्चर्य की बात है. 2012 से 2018 के बीच ढाई करोड़ महिलाएं रोज़गार से बाहर हो गयी हैं. ऐसी गिरावट किसी भी ऐसी अन्य विकसित या विकासशील अर्थव्यवस्था में कभी देखने को नहीं मिली है, जहां प्रति व्यक्ति आय हमारे देश के आसपास रही थी या है. उन्होंने बताया है कि ज़्यादातर पूर्वी एशिया के देशों में जब तेज़ी से विकास हो रहा था, तब वहां कामकाजी औरतों की संख्या भी बढ़ रही थी. इन छह वर्षों में कम-से-कम 8.30 करोड़ रोज़गार सृजित होने चाहिए थे ताकि इस संख्या को और खेती से अलग हुए लोगों को काम मिल पाता.
यह विवरण तो सैम्पल सर्वे के आँकड़ों पर आधारित है. अगर हम सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट देखें, तो सिर्फ़ 2018 में 1.10 करोड़ रोज़गार घटे थे और दिसंबर 2018 में बेरोज़गारी की दर 7.4 फ़ीसदी तक जा पहुंची थी. यह दर 15 महीनों में सबसे ज़्यादा थी. इस संस्था ने उस महीने कामगारों की संख्या 39.7 करोड़ होने का अनुमान लगाया था. बेरोज़गारी बढ़ने का यह सिलसिला लगातार जारी है.
सेंटर का कहना है कि अगस्त, 2019 में देश की बेरोज़गारी दर तीन सालों के सबसे उच्च स्तर पर पहुंचकर 8.4 फ़ीसदी हो चुकी है. पिछले साल अगस्त से तुलना करें, तो पिछले महीने की दर दो फ़ीसदी ज़्यादा थी. शहरों में यह दर 9.6 फ़ीसदी तक जा पहुंची है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 7.8 फ़ीसदी है. इस संस्था का मानना है कि यदि बेरोज़गारी दर बढ़ती रही और ख़राब रोज़गार मिलेंगे, तो लोग श्रम बाज़ार से ही विमुख हो सकते हैं. ढहती अर्थव्यवस्था में रोज़गार के मोर्चे पर कुछ ख़ास होने की उम्मीद भी घटती जा रही है और श्रम एवं रोज़गार मंत्री समेत समूची सरकार बेमतलब बयानबाज़ी और बड़बोलेपन में लगी हुई है.
इस संबंध में यदि हम वैश्विक परिदृश्य को देखें, तो भारत की स्थिति बहुत ख़राब दिखती है. इस साल के शुरू में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया में 2018 में 17.2 करोड़ से कुछ ज़्यादा लोग बेरोज़गार हैं. यह संख्या 2017 की तुलना में लगभग 20 लाख कम थी. संगठन का अनुमान है कि पांच फ़ीसदी बेरोज़गारी की मौजूदा दर अगले कुछ साल तक बनी रह सकती है, हालांकि आँकड़ों के हिसाब से यह स्थिति संतोषजनक दिखती है लेकिन इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि रोज़गार में लगे 3.3 अरब लोगों में से अधिकतर बहुत चिंताजनक माहौल में काम कर रहे हैं और वे साधारण ढंग से अपना जीवन नहीं बसर कर पाते हैं. उनका रोज़गार न तो उन्हें आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराता है, न उनके पास जीने के लिए ज़रूरी ठीक-ठाक चीज़ें हैं और न ही काम के उपयुक्त अवसर उपलब्ध हैं.
उक्त रिपोर्ट की दो ख़ास बातों का उल्लेख भी किया जाना चाहिए. दुनिया में 48 फ़ीसदी महिलाएँ कार्यबल में हैं, जबकि पुरुषों में यह आँकड़ा 75 फ़ीसदी है तथा 25 साल से कम उम्र के 20 फ़ीसदी युवा बेरोज़गार हैं और उनके पास कोई कौशल नहीं है. इससे उनके काम पाने की संभावना बहुत कम हो जाती है.
रोज़गार के साथ आमदनी और काम की गुणवत्ता का मामला भी जुड़ा हुआ है. पिछले साल सितंबर में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ओर से जारी एक रिपोर्ट में जानकारी दी गयी थी कि 82 फ़ीसदी पुरुष और 92 फ़ीसदी महिला कामगार महीने में 10 हज़ार रुपये से कम कमाते हैं. इस अध्ययन के प्रमुख अमित बसोले के मुताबिक, अगर आपका वेतन 50 हज़ार रुपये मासिक से ज़्यादा है, तो आप आमदनी के हिसाब से देश के कार्यबल में शीर्ष के एक फ़ीसदी लोगों में शामिल हैं. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अर्थव्यवस्था के ज़्यादातर क्षेत्रों में बीते 15 साल से वेतन औसतन सिर्फ़ तीन फ़ीसदी सालाना (मुद्रास्फीति के साथ समायोजन के बाद) की दर से बढ़ रहा है. कामगारों की बहुत बड़ी संख्या को सातवें वेतन आयोग द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन के बराबर भी आमदनी नहीं होती है. इस अध्ययन के अनुसार, हमारे देश में शिक्षित युवाओं में बेरोज़गारी की दर 16 फ़ीसदी तक जा पहुँची है.
इस चर्चा में एक अन्य पहलू की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं. लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर डेविड ग्रैबर ने पिछले साल छपी अपनी किताब ‘बुलशिट जॉब्स: ए थ्योरी’ में एक सर्वेक्षण के हवाले से लिखा है कि ब्रिटेन के लगभग 40 फ़ीसदी कामकाजी मानते हैं कि उनका काम दुनिया के लिए कोई ख़ास योगदान नहीं है. ‘बुलशिट जॉब्स’ यानी बकवास नौकरियों को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं कि ये ऐसी नौकरियां हैं, जिन्हें करने वाले यह मानते हैं कि इन कामों की ज़रूरत नहीं है या इन्हें होना नहीं चाहिए. ये ऐसी नौकरियाँ हैं, जो ख़त्म भी हो जाएँ या ऐसे कामों से भरी पूरी इंडस्ट्री भी ख़त्म हो जाए, तो भी किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, और ऐसे में यह भी संभव है कि यह दुनिया तब कुछ बेहतर ही होगी.
उद्देश्यविहीन नौकरियों में वे मैनेजरों के पदों को चिन्हित करते हुए कहते हैं कि जिन कम्पनियों का मुनाफ़ा किसी उत्पाद को बनाने और बेचने की जगह वित्त से आता है, वहां ऐसी नौकरियां ज़्यादा हैं. उन्होंने इसे ‘मैनेजरियल फ़्यूडलिज़्म’ की संज्ञा दी है. विभिन्न क्षेत्रों में रिपोर्ट बनाने वाले, रिपोर्टों को ग्राफ़िक्स से सजाने वाले, टीम मैनेज करने वाले आदि लोगों को ग्रैबर अनुत्पादक और अनावश्यक मानते हैं. उन्होंने बेमतलब काम और बदहवास युवाओं को पॉप्युलिज़म के उभार में एक कारक के रूप में रेखांकित किया है.
ग्रैबर कहते हैं कि आप यदि अपने बच्चे को अच्छे कॉलेज में नहीं भेज सकते हैं और न्यूयॉर्क या सैन फ़्रांसिस्को जैसे शहरों में दो-तीन साल की बिना आमदनी की इंटर्नशिप के दौरान उसे मदद नहीं कर सकते हैं, तो इसका मतलब है कि आप तबाह हो चुके हैं. उनके अनुसार, युवाओं के पास दो ही विकल्प हैं. या तो वे कोई ‘बुलशिट जॉब’ पकड़ लें, जिससे किराया तो चुका सकें, पर भीतर घुटते रहें, या फिर आप लोगों की देखभाल करने या लोगों की ज़रूरत को पूरा करने का कोई काम करें, लेकिन ऐसे कामों में आपको इतनी कम कमाई होगी कि आप अपने परिवार को भी पाल-पोस नहीं पायेंगे.
उन्होंने सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशकों से तुलना करते हुए बताया है कि कैसे आज का युवा जीने भर की आमदनी के लिए बदहवास है. इसका परिणाम तमाम मानसिक और शारीरिक बीमारियों तथा शासन व्यवस्था के प्रति चिढ़ के रूप में सामने है. ग्रैबर कहते हैं कि अगर युवाओं को ‘बुलशिट जॉब्स’ से आज़ाद कर दिया जाए, तो सोचिए, कला, विज्ञान और विचार के क्षेत्र में कितना कुछ हो सकता है. भले ही उनका यह विश्लेषण पश्चिम के संदर्भ में है, लेकिन हमें भारत में भी इसका संज्ञान लेना चाहिए.
रोज़गारविहीन विकास, बढ़ती विषमता, भयावह हिंसा और अपराध से ग्रस्त समाज, वंचना और बीमारी से लाचार बड़ी आबादी, बुनियादी सुविधाओं का अभाव, संसाधनों की लूट तथा दिशाहीन राजनीति के इस वातावरण में अहम मुद्दों पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है. इसके साथ तीन दशकों से चली आ रही नव-उदारवादी नीतियों व मानसिकता की ईमानदार समीक्षा भी होनी चाहिए.