जब न्यूज़ चैनल और अख़बार आपको किसी हिन्दू राष्ट्रवाद का मर्म समझाने में लगे थे, आपके लिए राम मंदिर बनवाने के लिए तीन चार फटीचर किस्म के मौलाना बुलाकर बहस करा रहे थे तभी संसद में कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह लिखित जवाब के तौर पर रोज़गार के संबंधित कुछ आंकड़े रख रहे थे। सभी राजनतीकि दलों को भारत के बेरोज़गारों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वे किसी भी चुनाव में रोज़गार को महत्व नहीं देते हैं। किस तरह की नौकरी मिलेगी, स्थायी होगी या अस्थायी इसे बिल्कुल महत्व नहीं देते हैं। मीडिया भी ऐसी ख़बरों को किसी कोने में ही जगह देता है क्योंकि उसे पता है कि भारत का युवाओं को बेरोज़गारी के सवाल से कोई मतलब नहीं है। शायद हिन्दू राष्ट्र या किसी भी राष्ट्र में नौकरी या नौकरी की प्रकृति कोई मसला नहीं है। दस साल मनमोहन सिंह का जॉबलेस ग्रोथ रहा, चर्चा ही होती थी मगर सड़क पर कहीं बेरोज़गार नहीं दिखा। वो उन दस सालों में सेकुलर होता रहा, वामपंथी होता रहा, समाजवादी होता रहा, आज कल बताया जाता है कि हिन्दू हो रहा है। विपक्ष भी रोज़गार के सवाल को नहीं उठाता है क्योंकि उसे अपने राज्यों में भी जवाब देने पड़ सकते हैं।
केंद्रीय कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह ने सदन में लिखित रूप से कहा है कि 2013 की तुलना में 2015 में केंद्र सरकार की सीधी भर्तियों में 89 फीसदी की कमी आई है। अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की भर्ती में 90 फीसदी की कमी आई है। 2013 में केंद्र सरकार में 1, 54,841 भर्तियां हुई थीं जो 2014 में कम होकर 1, 26, 261 हो गईं। मगर 2015 में भर्तियों की संख्या धड़ाम से कम हो जाती है। कितनी हो जाती है? सवा लाख से कम होकर करीब सोलह हज़ार। इतनी कमी तो तभी आ सकती है जब किसी ने स्पीड ब्रेक लगाया हो। 2015 में केंद्र सरकार में 15,877 लोग की सीधी नौकरियों पर रखे गए। 74 मंत्रालोयों और विभागों ने सरकार को बताया है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की 2013 में 92,928 भर्तियां हुई थीं। 2014 में 72,077 भर्तियां हुईं। मगर 2015 में घटकर 8,436 रह गईं। नब्बे फीसदी गिरावट आई है।
केंद्र सरकार ने अपने मंत्रालयों और विभागों में भर्तियों की हकीकत तो बता दी है। इससे कम से कम एक सेक्टर में नौकरियों की स्थिति का पता तो चलता है। इसी तरह के आंकड़ें हम तमाम राज्य सरकारों से मिलें तो पता चल सकेगा कि नौकरियां न होने पर भी रोज़गार का मुद्दा न बनने का कमाल भारत में ही हो सकता है। नौकरियों में आरक्षण को लेकर यहां बहस है। मारपीट है। मगर नौकरियां ही नहीं हैं इसे लेकर कोई चिंता नहीं। ऐसी शानदार जवानी भारत के राजनीतिक दलों को मिली है। हाल ही में कस्बा पर ही टाइम्स आफ इंडिया की एक ख़बर की चतुराई पकड़ते हुए लिखा था। अखबार के अनुसार 2015-18 के बीच रेलवे का मैनपावर नहीं बढ़ेगा। रेलवे के मैनपावर की संख्या 13, 31, 433 लाख ही रहेगी। जबकि 1 जनवरी 2014 को यह संख्या पंद्रह लाख थी। करीब तीन लाख नौकरियां कम कर दी गई हैं। सातवें वेतन आयोग की साइट पर रेलवे की रिपोर्ट मिल जाएगी। 2006 से 2014 के बीच 90,629 हज़ार भर्तियां हुईं। केंद्र सरकार में भर्तियों के मामले में यूपीए का दस साल का रिकार्ड बहुत ख़राब है। अब जो नए आंकड़े आ रहे हैं वो उससे भी ख़राब है। मै पहले भी लिख चुका हूं कि अमरीका में एक लाख की आबादी पर केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या 668 है। भारत में एक लाख की आबादी पर केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या 138 है और यह भी कम होती जा रही है।
30 मार्च के टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पहले पन्ने पर ख़बर है कि पिछले साल अप्रैल से लेकर सितंबर को बीच ग़ैर कृषि सेक्टर जैसे मैन्यूफ़ैक्चरिंग से लेकर बीपीओ,आईटी सेक्टर में सिर्फ एक लाख दस हज़ार नई नौकरियाँ पैदा हुई हैं। अख़बार के मुताबिक़ ये किसी सरकारी रिपोर्ट का अध्ययन है। इनमें से 82,000 नौकरियाँ सिर्फ स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में पैदा हुई हैं। छह महीने में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर में सिर्फ 12,000 नौकरियाँ पैदा हुई हैं। जबकि इस सेक्टर लिए मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया का अभियान चलाया गया। अख़बार ने लिखा है कि सरकारी रिपोर्ट है मगर किसी विभाग का है, स्पष्ट नहीं लिखा है।
30 मार्च के ही बिजनेस स्टैंडर्ड में एक और शानदार ख़बर है। 2018 में भारत दुनिया का तीसरा देश बनने जा रहा है। अमरीका और चीन के बाद भारत में सबसे अधिक फ्लेक्सी स्टाफ होंगे। हम तेज़ी से स्थायी नौकरियों की मानसिकता से मुक्त होते जा रहे हैं। यह असली नया भारत है जिसे स्थायी नौकरियां नहीं चाहिए। भारत में अभी दो करोड़ अस्सी लाख लोग फ्लेक्सी स्टाफ हैं। 2018 में इनकी संख्या 2 करोड़ नब्बे लाख हो जाएगी। फ्लेक्सी स्टाफ क्या होता है। अखबार बताता है कि यह अल्पकालिक कांट्रेक्ट होता है। फ्लैक्सी स्टाफिंग में 20 प्रतिशत की दर से तेज़ी आ रही है। इनका कहना है कि स्थायी नौकरी के चक्कर में लोग कितना वक्त बर्बाद कर देते हैं। उससे बेहतर है कि कुछ समय के लिए ठेके पर नौकरी कर ली जाए। तीन महीने से लेकर तीन साल के लिए कांट्रेक्ट होता है।
एक और शानदार ख़बर है जिसे पढ़कर भारत का युवा चैनलों पर मंदिर मस्जिद के विवाद में रम जाएगा। आल इंडिया काउंसिल फार टेक्निकल एजुकेशन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार साठ प्रतिशत इंजीनियर नौकरी पर रखे जाने के काबिल नहीं हैं। भारत में हर साल आठ लाख इंजीनियर पैदा होते हैं। बताइये सौ में से साठ इंजीनियर नौकरी के काबिल नहीं हैं। इनकी फीस में तो कोई कमी नहीं हुई। ये काबिल नहीं हैं तो इंजीनियरिंग कालेजों का क्या दोष हैं। उन्होंने इतना खराब इंजीनियर लाखों रुपये लेकर कैसे बनाया । उनके बारे में कोई टिप्पणी नहीं है। अब बाज़ार में नौकरियां नहीं हैं तो पहले से ही इंजीनियरों को नाकाबिल कहना शुरू कर दो ताकि दोष बाज़ार पर न आए। अगर साठ प्रतिशत इंजीनियर नालायक पैदा हो रहे हैं तो ये जहां से पैदा हो रहे हैं उन संस्थानों को बंद कर देना चाहिए।
क्यों नहीं कहा जा रहा है कि इंजीनियरिंग की शिक्षा का निजीकरण करके हम कबाड़ा ही पैदा कर रहे हैं। महंगी फीस लेने वाले कालेजों की जवाबदेही फिक्स करनी चाहिए। उल्टा बैंकों से लोन दिलवा कर छात्रों को गुलाम बना रहे हैं। और ये आज का आंकड़ा नहीं है। मोदी सरकार के आने के बाद का नहीं है। उससे पहले से यह बात रिपोर्ट होती रही है कि इंजीनियर नौकरी पर रखे जाने के लायक नहीं है। फीस तो कम नहीं हुई इनकी, फिर गुणवत्ता कैसे कम हो गई। इसका मतलब AICTE एक फेल नियामक संस्था है। इस संस्था के भीतर भ्रष्टाचार के किस्से सुनेंगे तो आपका जी घबरा जाएगा। हमने भी इंजीनियरों की समस्या पर कई बार चर्चा की। दो चार को छोड़ कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। लगता है कि आठ लाख इंजीनियरों में से लगता है कि कोई देख ही नहीं पाया। इस भ्रम में मत रहिए कि उन्हें पता नहीं हैं। उन्हें सब पता है। कल से गुजरात के इंजीनियरों की अयोग्यता की रिपोर्ट को बहुत सारे मोदी विरोधी इस उम्मीद मे साझा कर रहे हैैं जैसे ये कोई वहां चुनावी मुद्दा बन जाएगा और यही इंजीनियर मोदी को हरा देंगे। हंसी आती है। उन्हें पता होना चाहिए कि ऐसे बेकार और बेरोज़गार इंजीनियर हर राज्य में हैं। उनके लिए उनकी नौकरी का मसला कोई बड़ा मसला नहीं है। उन्हें यह भी पता है कि किस तरह तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं के ये कालेज हैं जो उनसे इंजीनियर बनाने के नाम पर लाखों लूट रहे हैं। इस बीच सरकार घोषणा कर देगी कि पांच नए आई आई टी बनाये जायेंगे। लोगों में खुशी की लहर दौड़ जाती है। वो यह नहीं देखते कि उन हज़ारों कालेजों का क्या जहां उनके बच्चे लाखों देने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं।
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रवीश कुमार
(लेखक मशहूर टीवी ऐंकर हैं। यह लेख उनके ब्लॉग क़स्बा से साभार प्रकाशित। लेख का शीर्षक मीडिया विजिल की ओर से।)
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