अभिषेक श्रीवास्तव
टाइम्स नाउ चैनल पत्रकारिता की हत्या करने पर आमादा हो चुका है। सोमवार की रात इस चैनल एक कथित ‘सुपर एक्सक्लूसिव’ टेप चलाया और ऐंकर ने आरंभ में ही दावा कर दिया कि वह चार साल से समझौता ब्लास्ट की जांच में लगा हुआ था लेकिन अब जाकर उसे एक ऐसा कुबूलनामा हाथ लगा है जो ”दशक का आतंकी कबूलनामा” है। जिसे वह ‘दशक का आतंकी कुबूलनामा’ बता रहा था, वह अप्रैल 2008 में यानी नौ साल पहले सिमि के नेता सफ़दर नागौरी के ऊपर किए गए नारको टेस्ट का वीडियो था जिसके बयान की प्रति उस वक्त तमाम पत्रकारों के पास थी और इसके बारे में खबरें भी अख़बारों में खूब छपी थीं।
पहाड़ खोदने का दावा कर के मरी हुई चुहिया निकाल लाने वाले इस चैनल की ऐसा करने के पीछे मंशा आखिर क्या हो सकती है? चैनल के स्क्रीन पर बार-बार लिखकर आ रहा था ”इट वाज़ पाकिस्तान, नॉट पुरोहित”। ज़ाहिर है, हिंदू आतंक के मामले में जेल में बंद सेना के कर्नल श्रीकांत पुरोहित को बचाने के लिए यह एक अभियान के अलावा और कुछ नहीं था। कहना न होगा कि मीडियाविजिल ने सबसे पहले कर्नल पुरोहित को छुड़ाने के लिए अभियान चलाए जाने के संबंध में कुछ दिनों पहले ही इज़रायल पर प्रकाशित अपनी श्रृंखला में एक संकेत किया था।
मीडियाविजिल पर ”भारत-इज़रायल की ‘स्वर्ग में बनी जोड़ी’ का सच: भाग तीन” में इस लेखक ने लिखा था: ”संघ समझता है कि अब जनता की चुनी हुई सरकार के माध्यम से इज़रायल-संबंधित अपनी सैद्धांतिकी को आगे बढ़ाना ही श्रेयस्कर होगा चूंकि यह वैध भी होगा और आधिकारिक भी। जब चीज़ें पटरी पर आ जाएंगी, तो कर्नल को रिहा कर के हिंदू राष्ट्र का आइकन घोषित कर दिया जाएगा।”
टाइम्स नाउ पर सोमवार रात चले दस साल पुराने कूबूलनामे की कथित ‘एक्सक्लूसिव’ रिपोर्ट दरअसल ”चीज़ों को पटरी पर लाने” की ही दुष्प्रचारात्मक कवायद है। इसमें दर्शकों से दो बातें छुपाई गई हैं। पहली यह कि नागौरी समेत उसके द्वारा नामित अब्दुल रज्जाक आदि सब जेल में हैं और नागौरी के बयान पर एनआइए ने दस साल पहले ही लीड ले ली थी, लेकिन बाद में स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान के चलते इस मामले में दोष तय किए जाने की प्रक्रिया ही फंस गई। दूसरी बात यह छुपाई गई है कि नारको परीक्षण या कहें डीडीटी परीक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि ऐसे बयानों का न्यायिक मूल्य नहीं होता और उन्हें अदालत में साक्ष्य बनाकर पेश नहीं किया जा सकता है।
इसका मतलब यह हुआ कि टाइम्स नाउ जिस पुराने बयान का हवाला देकर दावा कर रहा है कि हिंदू आतंक पर सारी बहस ही अब तिरोहित हो गई, वह बयान अदालतों के किसी काम का न था, न है। यानी एक तो पुराना माल अपना बताकर बेचने का अपराध, दूसरे जज भी खुद ही बन बैठे। इसलिए टाइम्स नाउ का सोमवार रात का ”सुपर एक्सक्लूसिव” पत्रकारिता के नाम पर कलंक है और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना।
नागौरी के नारको परीक्षण के दौरान दिए गए बयान पर 2008 में अख़बारों ने काफी विस्तार से रिपोर्ट किया था। तीन साल बाद जब स्वामी असीमानंद ने कुबूल किया कि समझौता ब्लास्ट में आरएसएस के सुनील जोशी का हाथ है, तो हरियाणा एटीएस की लश्कर-ए-तैयबा वाली थियरी फंस गई और यह तय करना मुश्किल हो गया कि धमाके में दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े संगठनों सिमि और आरएसएस में से किसके कुबूलनामे को सही माना जाए। रीडिफ डॉट कॉम पर विकी नंजप्पा ने असीमानंद और नागौरी दोनों के बयानों की तुलना करते हुए एक दिलचस्प स्टोरी भी की थी जिसे पूरा मामला समझने के लिए पढ़ा जाना ज़रूरी है।
अगर टाइम्स नाउ की ही तर्ज पर स्वामी असीमानंद के पटियाला हाउस कोर्ट में मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए इकबालिया बयान को पूरा सच मानकर ख़बर चलाते हुए दावा कर दिया जाए कि समझौता ब्लास्ट तो हिंदू आतंकियों ने करवाया था, तो यह भी झूठी पत्रकारिता ही कही जाएगी। टाइम्स नाउ ने अपने संघ और भाजपा के राजनीतिक एजेंडे पर चलते हुए यही काम सोमवार की रात किया है जब असीमानंद का कोई जि़क्र न करते हुए सीधे सफ़दर नागौरी के गड़े मुर्दे को वह उखाड़ लाया है जिसकी न्यायिक अहमियत सिफ़र है।
इस संबंध में पिछले साल मैंने वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा के साथ अवकाश प्राप्त आइपीएस विकास नारायण राय का एक विस्तृत साक्षात्कार लिया था, जो समझौता ब्लास्ट की जांच के लिए बनी एटीएस के मुखिया थे। इस साक्षात्कार में उन्होंने खुलकर कहा था कि एनआइए को अब सीबीआइ की तर्ज पर सरकारी तोता बना दिया गया है जो केंद्रीय सत्ता के हितों को पूरा कर रहा है। इस साक्षात्कार के कुछ अहम अंश समकालीन तीसरी दुनिया के जून 2016 अंक में छपे थे।
टाइम्स नाउ द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम को दूर करने के लिए विकास नारायण राय का यह साक्षात्कार बहुत कारगर है जिसे हम साभार प्रकाशित कर रहे हैं।
समझौता बम विस्फोट की जांच करने वाली एटीएस के प्रमुख रहे हरियाणा के आइपीएस विकास नारायण राय से बातचीत के प्रमुख अंश
हेमंत करकरे ने जो जांच की थी और चार्जशीट दायर की थी, ताज़ा घटनाक्रम क्या उसे झुठलाने की कोशिश है या इसका पूरा मक़सद क्या है?
देखिए ऐसा है कि जो मौजूदा चीफ़ है एनआइए का, उसे सितंबर में रिटायर होना था। उसका कार्यकाल बढ़ा दिया गया। एक्सटेंशन इसीलिए उसको दिया गया। एक सिस्टम होता है जिसमें रिटायर हो रहा अधिकारी अपने सक्सेसर का नाम लेकर जाता है। पहले वाले भी हमारे ही काडर के थे, ये भी हमारे काडर के हैं। ये तो पूरी तरीके से मिलीभगत से हो रहा है काम… कवर अप खाली एनआइए लेवेल पर नहीं है, कवर अप उससे पहले भी है। जो ये भनक है कि इसमें आरएसएस और ऐसे लोग शामिल हैं, तो हमारा मानना है कि इसमें मुख्य व्यक्ति था, जो आरएसएस के अब सीनियर लेवेल के हैं… जिनका नाम है इंद्रेश। मैं नहीं समझता कि आरएसएस का ऐसा कोई एजेंडा रहा होगा कि इस तरीके से काम कीजिए क्योंकि इससे तो उनका पूरा संगठन ही बैठ जाता। इंद्रेश इसमें सीधे भी शामिल हो सकता है।
एक बार 2004 में यूपीए की सरकार बन जाती है, तो फ्रस्ट्रेशन काफी बढ़ जाता है। मुझे लगता है कि इंद्रेश तक तो ये सब लोग शामिल थे… असीमानंद तो सीधे लिप्त हैं। सुनील जोशी जिसका मर्डर हो गया, वो मुख्य आदमी था। अब इनको लगता है कि किसी तरह प्रज्ञा को बाहर निकालो… अगर उस समय का आपको याद हो तो कई लोगों ने बाकायदा प्रज्ञा के फेवर में स्टेटमेंट दिया…
हां, आडवाणीजी ने, राजनाथ सिंह ने…
आडवाणी का है, राजनाथ का है… क्योंकि वो लोग देख रहे थे कि प्रज्ञा ही नहीं, असीमानंद तक भी पहुंच गए। इंद्रेश पर किसी ने हाथ नहीं डाला। इंद्रेश पर क्यों शक है, मैं बताऊं… जब समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट हुआ तो एक डिवाइस हमको इंटैक्ट मिला…
नहीं, जिस समय समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट हुआ, उस समय आप कहां पोस्टेड थे?
मैं पोस्टेड तो था डायरेक्टर पुलिस एकेडमी, लेकिन इन्होंने एसआइटी बनाई ओर मुझे उसका हेड बनाया। मैं शायद पहला अफसर था जो मौके पर पहुंचा। रात का समय था… एक डिवाइस हमको इंटैक्ट मिल गया। एक अटैची में वो था। जब हमने सब डिसमैंटल किया, तो हमने देखा कि अटैची पर, उसके ट्यूब पर क्या लिखा हुआ है। बाकायदा एक प्लेट थी जिस पर कंप्यूटर फार्मूला लिखा था। हमने इसे ट्रैक करना शुरू किया। हमने तलाशा कि कहां-कहां इस किस्म की अटैची बनती है। अल्टीमेटली हम इंदौर पहुंचे। महीने भर के भीतर हमने वो दुकान खोज ली जहां से अटैची खरीदी गई थी और जहां से सारे कंपोनेंट लिए गए थे। वो फार्मूला कहां लिखा गया, यह हमें पता नहीं चला… तो इंदौर में हमने बात की, तो पता चला कि उस दुकान के मालिक बोहरा संप्रदाय के थे। उन्होंने बड़ा कोऑपरेट किया। उनके जो दो सरवेंट थे, उन्होंने बताया कि दो लड़के आए थे और अटैची का नाप दे गए थे, कि कैसे उसका कवर होना चाहिए… हमें लोकल पुलिस से कोई सहयोग नहीं मिला। एक आइजी थे वहां श्रीवास्तव, वे पूरी तरह से दबाव में थे। हमने दोनों से पूछा कि वो लड़के हिंदू थे या मुसलमान। वो लोग क्या इंदौरी थे, बोले हां। इंदौरी में भी दो एक्सेंट है, हिंदू का अलग और मुसलमानों का अलग। लोकल आदमी बता देगा। उन्होंने बताया कि दोनों हिंदू थे। तभी हमारा माथा ठनका।
हम दोनों लड़कों को पकड़ कर ले आए… वो कुछ छुपा रहे थे। एक हिंदू था और एक मुसलमान। यहां पानीपत में हमने जब एक महिला मजिस्ट्रेट के सामने दोनों की रिमांड मांगी तो बड़ा अजीब अनुभव हुआ। हमारी समझ में आया कि वो दबाव में थी। उसने कहा तुम लोग किसी को भी पकड़ लाते हो और रिमांड मांगते हो। उसे लगा कि हम लोग तो इससे पहुंच जाएंगे वहां… ये बता देंगे उस लड़के का नाम कि कौन आया था। उसने आखिर में हमारा अप्लिकेशन पढ़ा और रिमांड दे दी क्योंकि कोई चारा था नहीं। उन लड़कों ने सहयोग किया, फिर हमने उन्हें डिसचार्ज कर दिया। उसी दौरान सुनील जोशी, सुनील डांगे और कलसांगरा का नाम आना शुरू हो गया। कलसांगरा और डांगे दोनों नहीं पकड़ाए अब तक। समझौता में ये तीनों हैं… ये भी संभव है कि साध्वी प्रज्ञा उसमें शामिल न हो।
और कर्नल पुरोहित?
पुरोहित हो सकता है। जिस तरह का डिवाइस बनाया गया, तो उसे बनाने के लिए जानने वाला चाहिए। सुनील जोशी वगैरह डिवाइस तो नहीं बना सकते। हमने तो 2010 में जांच को छोड़ दिया… सीबीआइ को सौंप दिया…
आपने जो समझौता वाली जांच की, तो आपकी ये रिपोर्ट करकरे तक भी पहुंची होगी?
करकरे से हमारी बात हुई थी, उनकी मौत से एक हफ्ते पहले हमने उन्हें ब्रीफ किया था।
उस समय भी बीजेपी की लीडरशिप करकरे के खिलाफ लगातार बोल रहे थे…
हां, नाम आ गया था तब तक इनका… साध्वी प्रज्ञा का, असीमानंद का नाम आ गया था। इनको पता था कि बात बढ़ते-बढ़ते इंद्रेश तक पहुंचेगी। इंद्रेश से इनकी मुलाकात डेफिनिटली हुई थी… करकरे अंडर प्रेशर थे… वो कह रहे थे कि केस हमने क्रैक कर लिया है। हमने कहा बताइए, तो बोले थोड़ा ठहर जाइए। पक्का हो जाए, अभी नहीं बोलूंगा…।
अभी आपको क्या लगता है कि ये केस कहां तक जाएगा…
अभी बरी नहीं हुए हैं ये लोग… अभी तो अदालत इसको स्वीकार करेगी…
लेकिन मकोका हटा देने से… ?
आसान है काम… अब वो कनफेशन एडमिसिबल नहीं होगा, तो केस कमज़ोर पड़ जाएगा।
आपका कार्यकाल कितने समय तक रहा एटीएस में?
समझौता 2007 के फरवरी में हुआ है, मैं 2010 फरवरी में गया हूं। एक स्टेज के बाद हमारा मूवमेंट बंद हो गया। इंदौर के बाद भी जांच चलती रही, हमारी टीमें जाती रहीं, लेकिन मध्यप्रदेश पुलिस ने सहयोग नहीं किया। हम ये कनविंस्ड थे कि इसमें हिंदू हाथ है। जब भी पूछा जाता था कि इसमें पाकिस्तानी हाथ है या नहीं, हम मना कर देते थे। हम ये भी पक्का थे कि इसमें मुस्लिम हाथ नहीं है… ये मैं 1000 परसेंट कह सकता हूं। लेकिन इनमें कोई दम तो था नहीं, शिवराज पाटिल में या कांग्रेस सरकार में… इन्होंने कहना शुरू किया 2010 के बाद… ये एग्रेसिव नहीं थे। इस मामले में एक फास्ट ट्रैक कोर्ट बनानी थी।
ऐसा तो नहीं था कि आप लोगों की तरफ़ से जुटाए गए साक्ष्य कमज़ोर थे?
मान लो कि कलसांगरा और डांगे पकड़े जाएं और उन्हें वहां ले जाया जाए कि भाई अटैची उन्होंने खरीदी थी… तो पकड़े जाएंगे। अब उनकी फोटो आप ले जाकर दिखा सकते हैं, लेकिन उनकी फोटो तक नहीं थी हमारे पास। इतना असहयोग था मध्यप्रदेश पुलिस का कि कलसांगरा और डांगे की फोटो तक नहीं दी गई हमें…। इन लोगों से एक्सप्लोसिव मिला है… सब जगह ही एक्सप्लोसिव मिला… सेम पैटर्न था सबमें।
मतलब सबूत पक्के थे… ?
हां हां… सबूत पक्के थे। अगर सबूत पक्के नहीं थे झूठे थे, तो पहले गिरफ्तार लोगों को आपने क्यों डिसचार्ज कराया?
जिस समय यूपीए की सरकार थी, क्या उसी समय सारी कार्रवाई पूरी कर के इन्हें सज़ा दिलाने के चरण तक नहीं लाया जा सकता था?
मैं तो कह रहा हूं… कर सकते थे लेकिन इनमें दम नहीं था। शिवराज पाटिल में दम नहीं था। चिदंबरम होता न होम मिनिस्टर… वैसे और बहुत सी बेवकूफियां हैं उनकी… माओवादी और ये वो, लेकिन इसमें वो कर सकते थे। शिवराज पाटिल नहीं…।