पुण्य प्रसून वाजपेयी
मोदी कैबिनेट के चेहरे रविशंकर प्रसाद को पटना एयरपोर्ट पर काले झडे दिखा दिये जाते हैं। झंडे दिखाने वाले बीजेपी के ही राज्यसभा सदस्य आर.के सिन्हा के समर्थक थे। मोदी कैबिनेट के सबसे बडबोले मंत्री गिरिराज सिंह का टिकट नवादा से कट जाता है और गिरिराज इसके लिये बिहार प्रदेश के अध्यक्ष नित्यानंद राय को कठघरे में खडा करते है । शत्रुध्न सिन्हा खुल्लमखुला मोदी के खिलाफ खामोश कहकर कांग्रेस का रास्ता पकड़ते हैं और लालकृष्ण आडवाणी को बतौर फिलॉस्फर गाइड के तौर पर याद करते है । आडवाणी टिकट न मिलने पर किसी के न पूछने तक का जिक्र कर चुप हो जाते हैं। मुरली मनोहर जोशी तो खुल तौर पर रामलाल की टिकट न मिलने की न का सार्वजनिक बयान कर देते है । उमा भारती अनमने ढंग से चुनाव न लड़ने का जिक्र कर देती हैं। सुषमा स्वराज जब से बिगड़ी तबीयत का जिक्र कर चुनाव न लड़ने का एलान करती हैं तभी से बतौर विदेश मंत्री उनकी सक्रियता बढ़ती नजर आती है। छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम रमन सिंह के बेटे को भी टिकट नहीं दिया जात । और राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की टिकट बंटवारे में कोई बात सुनी ही नहीं जाती। तो मध्यप्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान के आगे पारपंरिक सीट छोड़ काग्रेस के दिग्विजय के सामने भोपाल से लड़ने की चुनौती है।
तो क्या बीजेपी जो उपर से दिखायी दे रही है वह अंदर से बिलकुल अलग है। यानी चेहरों में बिखरी बीजेपी में संगठन संभले कैसे या फिर मोदी-शाह के खेल में बीजेपी को जीत मिले, लेकिन जीतने वाले बिना आधार के नेता ही रहें जिससे कोई चुनौती न बने। यानी बीजेपी के भीतर की चौसर कुछ ऐसी बिछ चुकी है जिसमें बीजेपी का संगठन चेहरो में बँटा हुआ है।अनुशासनहीनता के हालात कार्रवाई करने की इजाजत नहीं दे रहे हैं। कद और अनुभव को मान्यता देना कही नहीं है। और इन हालात के बीच बिहार में नीतीश का कद, महाराष्ट्र में उद्दव का कद, यूपी में छोटे दलो की हैसियत, और बिना कद वाले विरोधियों का बीजेपी में शामिल होने पर जश्न मनाकर जीत का राह बन रही है, ये सोच हावी हो चली है ।
बीजेपी के इस अंदाज के सामानातंर काग्रेस क्षत्रपों के अंतर्विरोधो को ढाल बनाकर अपनी सौदेबाजी का दायरा बढ़ाने से नहीं चुक रही है। बिहार में महागठंबधन की चौसर पर कांग्रेस का पासा पप्पू यादव हैं जिससे आरजेडी के यादव को काउंटर किया जा सकता है तो फिर यूपी में भीम आर्मी के चन्द्रशेखर के जरिये गठबंधन में मायावती को। बंगाल में ममता बर्दाश्त नहीं है तो आध्र में चन्द्रबाबू नायडू। और दिल्ली में केजरीवाल की जमीन को नकारना भी मुश्किल है लेकिन भविषय की जमीन को बनाने के लिये केजरीवाल की जमीन को नकारना भी जरुरी है ।
यानी बीजेपी-काग्रेस की चौसर पर फेकें जा रहे पाँसे साफ दिखायी दे रहे हैं । मोदी शाह की जोड़ी 23 मई के बाद त्रिशुकं जनादेश के हालात में बीजेपी के भीतर खुद को नकारे जाने के लिये तैयार नहीं है। तो अभी से बीजेपी के उम्मीदवारों की लिस्ट के जरिये बीजेपी की घेराबंदी की जा रही है, जिससे कोई सर उठा न सके। काग्रेस त्रिशंकु जनादेश के हालात में विपक्ष में सबसे बडी ताकत के साथ खड़े होने की तैयारी में है। गठबंधन की सोच तले ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने के हालात बने ही हैं । और ये दोनो रास्ते साफ बता रहे हैं कि 2014 की मोटी लकीर 2019 में इतनी महीन हो चुकी है जहाँ इस या उस पार के हालात चुनावी जनादेश तले रेंगने लगे हैं। तभी तो चुनाव आयोग, नीति आयोग के चैयरमैन राजीव कुमार की राहुल के न्यूनतम आय पर टिप्पणी करने को सही नहीं मान रहा है। खुद प्रधानमंत्री को ‘मिशन शक्ति’ का सहारा लेकर सुर्खियां बनानी पड़ रही हैं। राहुल गांधी चौकीदार के लोकप्रिय अंदाज के साथ गरीबो को 72 हजार सालाना का ऐसा गंभीर इकोनॉमिक माडल रखने से नहीं चूक रहे जहाँ कॉरपोरेट के साथ दिखने वाली पारपंरिक काग्रेस की रंगत ही बदल जाये। और समाजवादी-वामपंथी विचारधारा का लेप कांग्रेस खुद पर लगाकर उस बीजेपी से भी कई कदम आगे निकल पड़ी है जो कभी स्वदेशी या देसी इकोनॉमी की बात करती थी ।
यानी सियासत की महीन लकीर में मोदी-शाह ने अपने लिये इतनी मोटी लकीर खींच ली है कि वह नेहरु गांधी परिवार की ताकत से ज्यादा बड़ी ताकत लिये खुद को बीजेपी में जमा चुके हैं। और राहुल गांधी खुद में कांग्रेस समेटे सामूहिकता का ऐसा औरा बना रहे हैं जहाँ कांग्रेस अब क्षत्रपों के सामने झोली पसारने की जगह, अपनी झोली में क्षत्रपों के वोटों को समेटने की स्थिति में आ जाये। यानी चुनावी शह मात का ये खेल पहली बार मोदी और राहुल को एक ऐसे चक्रव्यू में खड़ा कर चुका है जिसमे बाहर वही निकलेगा जो त्रिशंकु जनादेश को अपने पक्ष में गढ़ने का हुनर जानता होगा ।