तीन तिलंगे और एक राजकुमार: गुजरात चुनाव का हासिल या सिफ़र?



व्यालोक

एक और परीक्षा में प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी चमकते दिख रहे हैं! लगभग 50 फीसदी वोटों के साथ भाजपा छठी बार लगातार गुजरात में सरकार बनाने जा रही है। नतीजों पर और कुछ भी बोलने से पहले यह याद रखना होगा कि गुजरात में लगातार 22 वर्षों से भाजपा की सरकार है, नोटबंदी और जीएसटी जैसे अलोकप्रिय कदमों से मोदी-सरकार को लगातार आलोचना झेलनी पड़ रही थी और जातिगत गोलबंदी से अपनी राजनीति शुरू कर अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल ने अंतत: कांग्रेस के साथ चुनावी लामबंदी की थी।

उत्तर प्रदेश में जनता ने जिस तरह ‘दो लड़कों’ को घर की राह दिखा दी थी, उसी तरह गुजरात चुनाव ने ‘तीन तिलंगों’ सहित राजकुमार को ठिकाने लगा दिया। सीटों की अंतिम टैली चाहे जो हो, इस चुनाव में विश्लेषण को बहुत कुछ बचा नहीं है। यदि विश्लेषण हो तो इन तीन युवकों पर करना जरूरी और समीचीन है, जिनमें से दो जिग्‍नेश और अल्‍पेश अपनी-अपनी सीट से चुनाव जीत चुके हैं। जिग्नेश उसी ‘उना’ की सियासी पैदाइश हैं, जहां पिछले साल दलित उत्‍पीड़न की एक बहुप्रचारित घटना के पीडि़तों को वे अपने पाले तक में नहीं रख पाए और पीडि़त पिता-पुत्र को उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले आयोजित एक धम्‍म यात्रा में राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ बाकायदे साथ में घुमाता रहा।

यह भी देखने की बात है कि जिग्नेश जब दलित-हितों की बात कर रहे थे, तो हार्दिक पाटीदार आरक्षण और कल्पेश ठाकोर अपनी बिरादरी (ओबीसी) की लड़ाई लड़ रहे थे। बहुत सपाट शब्दों में कहें तो ये तीनों युवा जातिगत समीकरणों के लिहाज से एक-दूसरे के सहज विरोधी दिखने चाहिए थे, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में जिस तरह ये तीनों एक हुए और हार्दिक ने आरक्षण पर समझौता कर लिया, उसी ने कहीं न कहीं भाजपा की राह आसान कर दी।

ज़रा ध्यान से देखें, तो जिग्नेश के उभार के समानांतर हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या/संस्‍थागत हत्‍या की आग जेएनयू और जामिया तक फैली। इसी बीच अफज़ल की बरसी के मसले पर कुछ ‘सरकारी चूकों’ ने कन्हैया, खालिद और शहला जैसे युवाओं की लोकप्रियता बढ़ायी और टीवी स्टूडियो के एसी में ठंडे पड़ चुके एंकर्स और पत्रकारों को लगा कि उन्होंने भारत के ‘युवा नेतृत्व’ को खोज निकाला है। इसी बीच गोतस्‍करी के नाम पर कुछ मुसलमानों की हत्‍या हुई जिसके विरोध की कमान संभालने वालों में जेएनयू के उक्‍त लोकप्रिय चेहरे भी शामिल रहे। यह संयोग नहीं था कि दलित-मुस्लिम एकता के नारे ‘जय भीम लाल सलाम’ की पैदाइश तो हैदराबाद में हुई, लेकिन उसने दिल्‍ली से लेकर गुजरात तक कथित ‘युवा नेतृत्‍व’ को करीब ला दिया।

गुजरात चुनाव में जिग्‍नेश की सीट पर प्रचार करने गए युवाओं को देखें तो समझ आता है कि लगभग साल भर से कांग्रेस के बाहर-भीतर बन-बिगड़ रहे ‘युवा नेतृत्‍व’ के इस तमाम ताने-बाने को आखिरकार कांग्रेस के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी के पास आकर मोहलत मिली। उम्‍मीद थी के काग्रेस की छत्रछाया में दलित, मुस्लिम और जेएनयुआइट ‘युवा नेतृत्व’ परवान चढ़ेगा, लेकिन ऐसा हो न सका। हालांकि, यह खोज का विषय है कि जो टीवी चैनल कांग्रेस की वापसी, कांग्रेस की दमदार टक्कर, हार्दिक ने उड़ायी मोदी की नींद, जैसे विश्लेषण कर रहे थे, वे आखिर मुंह के बल गिरे कैसे?

हां, वे मुंह के बल गिरे हैं और उनको यह तहेदिल से स्वीकारना चाहिए। 22 सालों की एंटी-एंकम्बैन्सी, तमाम भाजपा विरोधी दलों और विचारों का एक प्लेटफॉर्म पर आना, राहुल की ताजपोशी, तथाकथित तौर पर सॉफ्ट हिंदुत्व का चुनाव, आदि होने के बावजूद अगर कांग्रेस पिछली बार से मात्र 10-11 सीटें अधिक लायी हैं, तो इसे मुंह के बल गिरना ही कहेंगे। इसकी पहली वजह है कांग्रेस का जनता को मूर्ख, मंदबुद्धि, स्मरणविहीन समझना और बरतना। राहुल अगर 22 मंदिरों में जाकर समझते हैं कि वह ‘हिंदुत्व’ का मुद्दा भाजपा से छीन लेंगे, तो मैं इस मासूमियत पर निसार जाता हूं।

दूसरी मूर्खता यह हुई कि सोशल मीडिया या सभाओं की जमा भीड़ को देखकर हार्दिक या जिग्नेश को नेता समझ लिया गया। यह बलिहारी थी, चुनाव-प्रबंधकों की। भाजपा का मुख्यमंत्री प्रत्याशी हालांकि घोषित था, फिर भी यह लेखक मान लेता है कि चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया। मोदी को हराने के लिए फिर, उस औकात और कूटनीति का माहिर नेता भी तो लाना पड़ेगा। जब राहुल बाबा, पिछले कई चुनावों से आसपास भी नहीं पहुंच पा रहे, तो इन बैसाखियों को लेकर दौड़ने की उम्मीद ही बेमानी थी।

जेएनयू हो या डीयू, सोशल मीडिया पर हल्ला-गुल्ला कितना भी हो जाए, लेकिन ज़मीन पर कन्हैया जैसों को मारपीट और विरोध का ही सामना करना पड़ा है और पड़ेगा। बात आप दरभंगा की करें या पोरबंदर की। रोहित का भी मसला जब सोशल मीडिया पर खुला तो उसके बाद मोदी और उनकी टीम ने हरेक मसले को अपने पक्ष में भुनाना शुरू कर दिया। एक आम शहरी, ग्रामीण मध्यवर्गीय आदमी को नरेंद्र मोदी कहीं न कहीं यह भरोसा दिलाने में सफल हो गए हैं कि वह तो देश के लिए दिन-रात काम कर रहे हैं, बिना छुट्टी लिए, लेकिन चंद अंध-आलोचक बिना बात के इस देश (ध्यान दीजिएगा, मोदी ने खुद को देश का पर्याय बना लिया है) की आलोचना और नुकसान करने में लगे हैं।

चूंकि बात हमने ‘तीन तिलंगों’ से शुरू की थी तो और अल्‍पेश की जीत को सही परिप्रेक्ष्‍य में देखना ज़रूरी है। जिग्‍नेश का लेना-देना सामाजिक आंदोलन से था, चुनाव से नहीं। उन्‍होंने 20 अगस्‍त 2016 को दिल्‍ली की एक सभा में कहा था कि वे भले चुनाव लड़ लें लेकिन आंदोलन जारी रहेगा। चूंकि आंदोलन का चेहरा खुद वे ही हैं, लिहाजा उनके सदन के भीतर जाने पर आंदोलन कैसे चलेगा, यह सवाल मौजूं है। दूसरे, क्‍या उनके भीतर जाने से दलितों को उनसे उम्‍मीदें नहीं होंगी? क्‍या वे संसदीय रास्‍ते से ”गाय की पूंछ तुम रखो” के नारे को साकार कर पाएंगे, जो कांशीराम के ज़माने से सदन में अटकी पड़ी है? कायदे से देखें तो जिग्‍नेश की जीत एक बड़े बनते सामाजिक आंदोलन की हार है। जिस तरह केजरीवाल को दिल्‍ली में समेट दिया गया, वही गति जिग्‍नेश और अल्‍पेश की भी हुई है। इस बात को सामाजिक कार्यकर्ता मानें या न मानें, अपनी बला से। जहां तक हार्दिक की अंतिम गति की बात है, तो उसका कुछ दिन इंतज़ार करना होगा क्‍योंकि भाजपा की उसने नींद तो हराम कर ही दी थी।

दरअसल, दिल्ली में केजरीवाल ने अपार बहुमत मिलने के बाद जिस तरह विदूषक की तरह हरकतें शुरू कीं, अपने लोगों को लात मारकर निकाला, उससे कहीं न कहीं इस देश का आम आदमी किसी भी सुधार, बदलाव या क्रांति की बात को ही चुटकुले की तरह लेने लगा है। केजरीवाल ने नागरिक-आंदोलनों से ही आम जनता का भरोसा उठवा दिया है। हार्दिक, कल्पेश और जिग्नेश में हम केजरीवाल परिघटना का दूसरा संस्‍करण देख रहे हैं।

अंतिम बात यह कि उसैन बोल्ट का मुकाबला गली-मोहल्ले में दौड़ने वाले नहीं किया करते। मोदी ने जिस तरह मणिशंकर अय्यर के ‘नीच’ शब्द को गुजराती और जातीय अस्मिता से जोड़ दिया, ऐन मौके पर कपिल सिब्बल के राम जन्मभूमि वाले बयान को ‘विवादित’ बना दिया, उससे किसी भी राजनीतिक दल को सीख लेनी चाहिए। आप नरेंद्रभाई मोदी को उन्हीं के दांव से चित नहीं कर सकते। उसके लिए कोई नयी तरकीब लगानी होगी।


लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं