संजीव चंदन
संघियों ने आज सोशल मीडिया में सीताराम येचुरी की सिर पर कलश रखे एक तस्वीर जारी कर खूब माहौल बनाया। धीरे-धीरे हमारे कई अम्बेडकरवादी साथी भी इसके साथ हो लिए।
शीर्षक के पहले पदबन्ध से अपनी बात शुरू करता हूँ:
दाउदनगर में एक त्योहार मनाया जाता है : जितिया। आश्विन महीने के इस त्योहार का चलन शुरू हुआ 19वीं शताब्दी में प्लेग महामारी से बचने के लिए लोक जागरण और उत्सव के रूप में। इसका चलन शुरू किया था महाराष्ट्र से आये संतों ने। आज भी इस अवसर पर दाउदनगर में लोग स्वांग रचाते हैं। खूब धूमधाम से त्योहार मनाते हैं- मनाने वाले लोग कसेरा और पटवा जाति से होते हैं-अतिपिछड़े और दलित।
हैदराबाद में 19वीं शताब्दी से ही बोनालू नामक त्योहार की शुरुआत हुई। कारण वही प्लेग। इस त्योहार को आषाढ़ जतरा उत्सवालू भी कहा जाता है। दाऊदनगर में पुरुष जीमूतवाहन या जितिया की पूजा होती है और हैदराबाद में देवी की। सीताराम येचुरी की यह तस्वीर उसी त्योहार की है-लोकपर्व में शामिल सीताराम येचुरी।
पहले तो मैंने भी जब यह तस्वीर देखी तो चौका। कॉमरेड येचुरी को फोन किया, उठाया नहीं तो मेसेज भेजा समझने के लिए कि यह क्या है? उन्होंने व्हाट्सएप पर जवाब देने को कहा लेकिन अभी तक दिया नहीं तो मैंने उस तस्वीर की खबर खोजी जो ‘द हिन्दू’ में मिली।
इस पर कोई खास राय देने के पहले इस पोस्ट से महिषासुर का क्या सम्बंध यह बता दूं। तो बात उन दिनों की है जब स्मृति ईरानी ने महिषासुर को लेकर बवाल काटा था। हम अपने पक्ष में, महिषासुर के पक्ष में बोलने के लिए राज्यसभा में किसी को खोज रहे थे। लोकसभा में ईरानी चैंपियन रही थीं। कोई तैयार नहीं हुआ- दलित-बहुजन नेता सामने नहीं आये। उदितराज की तस्वीर जारी हुई तो बचाव करते रहे। शरद यादव महिषासुर प्रकरण को अति मानते हैं। आठवले ने बाद में जाकर महिषासुर को अपना पूर्वज जरूर बताया लेकिन उस दिन कोई तैयार हुआ बोलने को तो वे थे येचुरी साहब- वह भाषण आज भी यू ट्यूब पर मौजूद है, महिषासुर और बलिराजा को लेकर दिया गया उनका भाषण। उन्होंने वह भाषण भी हमारे एसएमएस पर दिया था, संसद में फोन पर बात करना सम्भव नहीं था। वे अटल बिहारी वाजपयी द्वारा इंदिरा गांधी को दुर्गा कहने और गांधी का कहे जाने से इनकार करने का सन्दर्भ हमारे मेसेज के आधार पर दिया था। हालांकि बाद में अरुण जेटली ने कहा कि अटल जी ने कभी दुर्गा कहा ही नहीं।
दरअसल हम बड़ी जल्दी में होते हैं लोगों को कठघरे में खड़ा करने को लेकर। हालांकि मैं ऐसा कहते हुए हिन्दू विश्वासों के पक्ष में नहीं हूँ, लेकिन हमारे नेता क्या जनता के बीच के विश्वासों, लोकपर्व आदि से एकबारगी दूर हो सकते है। बोनालू के अवसर पर येचुरी साहब हैदराबाद में थे इसलिए जतरा में शामिल हो गये। संघी उसे उड़ा ले रहे। कई साथी उसे नरेंद्र मोदी इफेक्ट बता रहे। यदि ऐसा है तो कम्युनिस्ट बंगाल में क्या करते रहे हैं अब क और केरल में, जिसकी हम आलोचना करते भी रहे हैं। हम किसी को नहीं छोड़ते। क्या राजनीति शुद्धता से चलती है? कुछ दिनों पहले रामदास आठवले की एक मंदिर की तस्वीर वायरल हुई थी। आठवले का विश्वास बौद्ध है लेकिन क्या हम आठवले को बौद्धों के नेतृत्व तक सीमित रहने देना चाहते हैं। जननेता, धर्मनिरपेक्ष नेता ऐसे आयोजनों में भाग लेते ही हैं, अपने से इतर विश्वास, धर्म के लोगों के आयोजनों में। नहीं लेने पर हम ही हैं जो मोदी-योगी को कोसते भी हैं।
कुल मिलाकर मुझे लगता है कि हमे जल्दीबाजी से बचना चाहिए। यहां येचुरी साहब का ब्राह्मण नहीं नेता काम कर रहा है। ऐसा नहीं है कि करात और येचुरी का ब्राह्मण काम नहीं करता लेकिन उसके प्रसंग अलग हैं। पार्टी के नेतृत्व में ब्राह्मण वर्चस्व के जिम्मेवार लोगों में से एक येचुरी को क्यों नहीं माना जाना चाहिए? लेकिन यहां बोलने से पहले एक नेता येचुरी को समझना चाहिए और यह भी याद रखना चाहिए कि महिषासुर के मामले में दुर्गा के प्रति पॉपुलर कम्युनिस्ट आस्था के बावजूद उन्होंने बोला था।
संजीव चंदन स्त्रीकाल के संपादक हैं। उनकी फ़ेसबुक दीवार से साभार !