हम लोग जो चुनाव नतीजों के बाद हैरतज़दा से रह गए थे, उसकी हैरत हमें आज तक जकड़े हुए है: क्या यह मुमकिन नहीं कि हम सवाल ही गलत पूछ रहे हों?
यह भला कैसे हो सकता है कि प्रज्ञा ठाकुर तो जीत जाती हैं और आतिशी हार जाती हैं? नोटबंदी का प्रतिकूल असर वोटों पर क्यों नहीं पड़ता देखा जाता? जिस पार्टी की सरपरस्ती में दलितों और मुसलामानों की लिंचिंग रोज़मर्रा की बात हो जाती है, वही पार्टी दुबारा से क्योंकर चुन ली जाती है? समाज में अपने से अलग ‘दूसरों’ के प्रति नफरत का जज़्बा रखने वाले ये तमाम लोग, भला इंसानियत के हिमायतियों से कैसे जीत सकते हैं?
असल में अन्य बातों के अलावा पत्रकारों, राजनीतिशास्त्र के विद्वानों और लेखकों ने इन सवालों का जवाब देते हुए इस ओर भी इशारा किया है कि व्यापक आर्थिक सूचकों और जाति-आधारित वोटिंग पैटर्न के बारे में हमारी धारणाएं ही मूलतः गलत थीं. लेकिन सबसे प्रमुख सवाल समेत, यह सवाल अभी भी जस का तस बना हुआ है कि: तथ्यात्मकता और तर्कशीलता आखिर इतने नाटकीय अंदाज में कैसे और क्यों हार गई?
क्या इस हैरानी के बने रहने की एक वजह यह तो नहीं कि हम जिस नज़र से राजनीति को देखते-समझते-बूझते हैं, उसमे ही कहीं कोई “ब्लाइंड स्पॉट” है? क्या हमारी राजनीति की समझ अधकचरी है? यह भी तो हो सकता है कि असल में राजनीति कभी भी सिर्फ वास्तविकता और तर्कशीलता पर नहीं टिकी हुई थी. मुझे लगता है कि हालिया चुनावों के नतीजों और हिन्दू राष्ट्रवाद की ताकत को व्यापक रूप से समझने के लिए, हमें मनोवैज्ञानिक ‘लेंस’ की जरूरत पड़ेगी. राजनीति को समझने के लिए यह देखने की कोशिश करना जरूरी है कि उसमे इंसानी वासनाएँ या कामुकताएं क्या खेल खेलती हैं. इसमें खुद की सेक्स और लव लाइफ में उतरना हमारे लिए काफी मददगार साबित होगा. आज जो हम यह ‘हैरतज़दा’ महसूस कर रहे हैं उससे बाहर निकालने में ‘व्यक्तिगत ही राजनीतिक है’ का मंत्र बहुत कारगर हो सकता है. अपनी बात रखते हुए, मैं उस शोध की तरफ भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी, जिसे मैंने अपनी इस साल के अंत तक प्रकाशित होने वाली पुस्तक, फैंटेसी फ्रेम्स: सेक्स, लव एंड इंडियन पॉलिटिक्स के लिए किया है.
अपने समर्थकों को हिन्दू राष्ट्रवाद बेहद मुश्किल से हासिल होने वाला मिश्रण मुहैय्या करवाता है: सुरक्षा और रोमांच का. इस पर अधिक रौशनी डालने के लिए मैं शुरू करना चाहूंगी 2017 में हिंदुस्तान टाइम्स समिट के दौरान योगी आदित्यनाथ के साक्षात्कार की एक झलकी से: साक्षात्कार लेने वाले हिन्दुस्तान के एडिटर शशि शेखर ने शुरुआत ही योगी आदित्यनाथ को इस तथ्य के साथ चुनौती देते हुए की कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश में बढ़ती मुठभेड़ों की वारदातों को लेकर उन्हें नोटिस सर्व किया है.
सवाल सुनकर राज्य के मुख्यमंत्री ज़रा भी विचलित नहीं हुए, बल्कि उल्टे मंद-मंद मुस्कुराने लगे. उन पलों में किन्ही कारणों से मुझे उनकी चमकती त्वचा गुलाबी सी प्रतीत हुई. अब कुछ लोगों को इस चमक में उनका ‘तेज’ भी दिख सकता है. एक ऐसा तेज जिसे साधू-महात्माओं, राजे महाराजाओं या शक्तिशाली लोगों के चेहरों से जोड़कर देखा जाता है.
आदित्यनाथ द्वारा ‘अपराधियों’ को परलोक भेजे जाने को लेकर खासी चुहल करने और उनके आलोचकों पर उंगलियाँ उठाने के बाद (जिन्हें उनका चींटियों तक के प्रति दयालु हिन्दू ह्रदय नहीं दिखाई पड़ता), साक्षात्कार लेने वाला दुबारा से इंसानी जिंदगियों पर लौट आता है और मुख्यमंत्री के शासनकाल के दौरान मुठभेड़ों में मारे गए लोगों की संख्या को उससे ज्यादा है गिनाने लगता है, जितने दिन उन्हें अभी शासन संभाले भी नहीं हुए थे. तिस पर आदित्यनाथ आश्वस्त सा जवाब देते हुए कहते हैं, ‘हाँ, ये होंगे!’
ठीक इसी वक्त काले सूट और रेशमी साड़ियाँ पहने दर्शकों की तरफ कैमरा घूमता है और बीच में बैठी च्युइंग गम चबाती एक जवान महिला पर केंद्रित हो जाता है. मेरे लिए उस वक्त उस महिला के चेहरे की मुस्कान बहुत कुछ कह जाती है: मुस्कान में एक ऐसे आदमी के शब्दों और उसके द्वारा उठाये गए सख्त क़दमों की तसदीक़ थी, जिसकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था. उक्त महिला की प्रतिक्रिया सिर्फ योगी के शब्दों पर नहीं; बल्कि उनके समूचे शरीर के हावभाव पर भी थी, जिसका सामंजस्य उनके हाथों के चलन के संतुलन से झलकता था और जिसमें गजब का दृढ़ निश्चय और सुरक्षा भाव, साक्षात मौजूद नज़र आते थे. जैसे कोई इंसान अपने मुल्क के कानून से ऊपर उठ जाता है और ज्यादा ऊंचे विधान के पायदान से अपनी प्रेरणा पाता है और इस प्रक्रिया में अपने समर्थकों को भी सशक्तिकृत कर जाता है. नतीजतन, उन्हें वह ढांढस बंधाता है कि देश के कानून की फ़िक्र करने की आवश्यकता नहीं है.
इसमें आदित्यनाथ सिर्फ एक मिसाल भर हैं. हिन्दू राष्ट्रवाद कई अन्य तरीकों से भी अपने समर्थकों को सुरक्षाएं प्रदान करवाने का वायदा करता है. इस राष्ट्रवाद में निरंतरता का आभास है, जिससे उन्हें एक वैभवशाली इतिहास और भारत माता के साथ जुड़ाव महसूस होता है. सुरक्षा का यह बोध इस एहसास से भी सराबोर है कि उनके पीछे उन जैसे राष्ट्रवादियों की एक विशाल फ़ौज खड़ी है. इन्टरनेट की दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में तो उनकी पूरी की पूरी जमात सक्रिय है. इस सब में हिंदुत्व उन्हें दृढ़ निश्चय का बोध भी प्रदान कराता है: क्या चीज़ क्या है, क्यों है, कैसे है, और उसे कैसा होना चाहिए. चारों तरफ इतनी अफरा-तफरी और अनिश्चितता के माहौल में उनके लिए यह निश्चितता उन्हें बहुत आश्वस्त करती है.
जहाँ तक सुरक्षाबोध का प्रश्न है तो इन तमाम लोगों को लगता है कि इनके सिरों पर उन ताकतवर नेताओं का हाथ है, जो खुद किसी आलौकिक कानून में यकीन रखने वाले हैं और जिनके लिए देश के कायदे कानून हमेशा उनकी जूती की नोक पर रहते हैं. जब एक छप्पन इंची सीना और आत्मविश्वास से भरी ऊँगली यह ऐलान करती है कि “दुश्मन को घर में घुसके मारेंगे,” तो हिंदुत्व के इन सिपहसलारों का सीना गर्व से फूल जाता है. कहने की जरूरत नहीं कि यह आश्वासन एक ख़ास तरह का सुरक्षाबोध प्रदान करता है: कल्पित भय से उपजा हुआ – एक (कोरी) फंतासी, लेकिन बेहद नाज़ुक. इसे इस एक अटूट वायदे के साथ परोसा जाता है कि: हम चाहें तो यह सब हासिल कर सकते हैं.
यह बोध, जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करने वाला होता है और उसे संभव भी बनाता है. हालांकि जातिगत हिंसा, हिन्दू राष्ट्रवाद की रग-रग में बसी है, मैं यहाँ खासतौर पर मुसलामानों के खिलाफ की जाने वाली हिंसा पर फोकस करना चाहूंगी (यहाँ मैं बीफ लिंचिंग की बात नहीं करूंगी, क्योंकि यह सिर्फ गौ-हत्या तक सीमित नहीं है. इसके अलावा भी हिंसा, कई और रूप धर कर हमारे सामने पेश आती रहती है).
रोमांच का अनुभव लेने के लिए, हिंसा करने वाले को अब किसी साम्प्रदायिक दंगे के इन्तेजार की जरूरत नहीं रह गई है. इस तरह की गई हिंसा में कामुक उत्तेजना भी भरी होती है. हिंदुत्व अति से कम, कुछ नहीं देता. हम जानते हैं कि 2014 से ही हिंदुत्व के पैरोकार इस बात से आश्वस्त हैं कि अब उनकी सरकार सत्ता में हैं, इसलिए बहुत से छोटे-मोटे गुट, यहाँ तक कि अकेले व्यक्ति भी, मुसलामानों को गालियाँ देने, उनकी इज्ज़त उतारने, पीटने और जान से मार देने तक की हिमाकत दिखाने लगे हैं. इस तरह की हिंसा की प्रकृत्ति को, मनोवैज्ञानिक चश्मे से देखे बिना नहीं समझा जा सकता.
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मुसलामानों के खिलाफ हिंसा की जड़ में यह एहसास समाया है कि वो “दूसरा” हमारी खुशियाँ छीन रहा है. मुसलमान मर्द हमारी औरतें चुराते हैं; वे एक नहीं बल्कि चार-चार बीवियों के साथ मजे लूटते हैं (मध्यप्रदेश से जारी एक हालिया विडियो में श्रीराम सेना का सदस्य एक मुसलमान की पिटाई करते हुए बिलकुल यही शब्द कहता दिख रहा है); वे हमारी जमीनों पर, ना केवल मस्जिदें बल्कि शमशान बनाने तक के लिए कब्ज़ा कर लेते हैं. जब कोई मुसलमान मरता है, तो उसे बीस-बीस लाख रुपये का हर्जाना मिलता है; जब कोई हिन्दू मरता है तो उसे बीस हजार की रकम देकर टरका दिया जाता है. सनद रहे कि दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ की लिंचिंग के वक्त साक्षी महाराज ने ऐसा ही कहा था. 2014 में, मुजफ्फरनगर दंगों के एक साल बाद, अमित शाह ने उस वक्त की सरकार के खिलाफ कहा कि वो जाटों के हत्यारों को सुरक्षा और मुआवजा देती है. उन्होंने बाद में यह भी कहा कि आदमी भोजन और नींद के बिना जीवित रह सकता है, यानि भूखा-प्यासा तो सो सकता है, लेकिन अगर उसका अपमान किया जाता है तो वह जीवित नहीं रह सकता. और कि इस अपमान का बदला तो लेना पड़ेगा.
वोटरों को लेकर चुनाव नतीजों के बाद जो सवाल पूछा जाना चाहिए वह यह नहीं है कि इनसे उन्हें क्या हासिल हुआ, बल्कि यह कि क्या उन्हें वांछित रोमांच मिला?
इस फंतासी का कोई अंत नहीं है कि कोई हमारा सुख-चैन और खुशियाँ छीन रहा है. यह एक ऐसी खामी है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती. थॉमस ब्लूम हेंसन, जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद पर व्यापक और गहन शोध किया है, अपनी किताब, द सैफरन वेव में लिखते हैं:
. . . हिन्दू के रूप में पूर्णता की तलाश, “एक भरपूर कुनबे होने की खामी” से उभर पाना एक निरंतर चलते रहने वाली प्रक्रिया है, जिसे अंतिम रूप से प्राप्त करना लगभग असंभव है.
हेंसन यहाँ अपने विचारों को जैक लकान से प्रभावित स्लोवेनियन विचारक स्लावोक ज़िज़ेक की प्रस्थापना पर विकसित करते दीखते हैं. ज़िज़ेक के अनुसार एक राष्ट्र या समुदाय की ख़ुशी को अंतत: तभी व्यक्त किया जा सकता है जब यह महसूस हो कि वह ख़ुशी कहीं खो गई है, या, उस ख़ुशी को हासिल करना असंभव है. इस जुनून के नैरेटिव को इस खुशफ़हमी के इर्द-गिर्द गढ़ा जा सकता है कि ‘इस नुकसान के लिए ‘दूसरे’ या ‘अदर’ जिम्मेदार हैं (वे ‘अदर’ राष्ट्र, समूह, समुदाय भी हो सकते हैं), जिस कारण हम पूरी तरह अपने ख़ास अंदाज से जी नहीं पाते.”
वो जो ‘दूसरा’ हमारी खुशियाँ हमसे छीन रहा है, जरूरी नहीं कि वह हमेशा मुसलमान ही हो. समय और स्थान के अनुसार वह कभी सिख, तो कभी यहूदी, कभी अश्वेत, कभी दलित, कभी राष्ट्रविरोधी, और कभी, हाल ही में शिकार बना – खान मार्किट गैंग – हो जाता है.
उनके पास हमेशा ‘वो’ रहेगा, जो हमारे पास नहीं है. वे हमेशा ही हमारी खुशियाँ हमसे छीनते रहेंगे. और उन्हें सजा देने की जरूरत हमेशा बनी रहेगी.
इस ‘दूसरे’ को सजा देकर मिलने वाला जो मजा है, वह सिर्फ एक ख़ास तबके तक ही सीमित नहीं है. मुसलमानों के खिलाफ की जाने वाली हिंसा की वारदातों को अंजाम देते सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियोज़ में सिर्फ कामगार तबका ही शामिल नहीं है, बल्कि वे लाखों-लाख लोग भी शामिल हैं, जो उसे देखकर ‘मजे’ लूटते हैं. इनमे ऊंचे तबकों और जातियों के परिवार, जैसे कि खुद मेरा परिवार भी शामिल है, जो हिन्दू राष्ट्रवादी मेसेजों और मीम्ज़ को एक-दूसरे को फॉरवर्ड करते रहता है.
मजा ही आ जाता है जब आप इस देश पर ‘अपनी’, ना कि ‘उनकी’ दावेदारी साबित करने के लिए ग्रुरुग्राम और कनाट प्लेस की सड़कों पर आते-जाते लोगों से ‘जयश्रीराम’ बुलवाते हैं!
चुनाव नतीजों से एक दिन पहले वह भी क्या मजे का पल रहा होगा मेरी माँ के लिए जब उन्हें, ना केवल केदारनाथ मंदिर, बल्कि लाल कालीन पर लहराते हुए, मंद गति से चलते, धार्मिक लिबास में अपने नए पूजनीय नरेंद्र मोदी के भी दर्शन प्राप्त हुए! कितना आनंदमय लगता है, कितनी शांति की अनुभूति प्राप्त होती है जब एक करिश्माई, निरंकुश्वादी नेता मई 23 के बाद से लगातार मानो ईश्वर की भूमिका निभाता, निश्चितता और सुरक्षा प्रदान करता प्रतीत होता है.
अब जरा राजनैतिक से व्यक्तिगत की तरफ चलते हैं. क्या यह संभव है कि यह ‘राजनैतिक’ हमें सुरक्षा और जोखिम के अनोखे मिश्रण का एहसास करवाता है, जो हमें कभी एक अचेतन स्तर पर अपनी सेक्सुअल और रोमांटिक लाइफ में हासिल नहीं होता? मनोविश्लेषक स्टीफन ए मिचेल अपनी किताब कैन लव लास्ट में लिखते हैं कि कैसे हमें एक तरफ तो स्थायित्व, विश्वसनीयता और निरंतरता की तलाश रहती है; और दूसरी तरफ, पूर्णता और रोमांच पैदा करने वाले जीवन की. लेकिन फिर भी उस सुरक्षा और जोखिम के मेल की तलाश कभी पूरी होती नहीं दीखती.
बेल्जियम की मनोचिकित्सक एस्थर परेल, जिन्होंने (पूरी) दुनिया भर के दंपत्तियों के साथ काम किया है, कहती हैं कि इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं लोग अपने साथी द्वारा प्रदान की जाने वाली उबाऊ सुरक्षा को संभाल पाने में नकामयाब रहने के बाद, अन्य रिश्तों में जोखिम तलाशने लगते हैं.
सुरक्षा और जोखिम का यह खेल मुझे उस गुमनाम ऑनलाइन सर्वे के दौरान भी दिखाई पड़ा जो मैंने अपनी किताब के लिए किया था. इस सर्वे में भाग लेने वाले 30 लोगों ने, जिनमे ज्यादातर ने खुद को महिला, शहरी और उदारवादी बताया, अपनी सेक्सुअल फेंटेसी बयान की: जैसे, सार्वजनिक तौर पर सेक्स करने की चाह, पैसे के लिए सेक्स करने की लालसा, सामाजिक बंदिशों को तोड़ना या अपने लिए तय की गई सीमाओं को लांघना, इत्यादि. इस अनेकता में भी, सर्वे में अधिकांश भागीदारी करने वालों के जवाब में जो एक समानता देखी गई वह थी: उनके आत्मसम्मान, अधिकार और परस्परता से संबंधित आधुनिक टेबू को तोड़ने वाले द्वंद्व को लेकर. सर्वे के भागीदारियों के जवाब, अंतर्विरोधी भावनाओं से प्रेरित थे जो तार्किक, सोचे समझे तरीकों से परे थे, जिसे मैं संक्षेप में, और शायद यही इसके लिए उपयुक्त भी है, “yummy yucky” कहकर बुलाना चाहूंगी. यह भला कैसे संभव है कि ‘X’ से एक ही समय में मुझे उत्तेजना और घिन्न भी महसूस हो? परंतु सभी के जवाबों में यही एक राग समान था.
मेरी आगामी पुस्तक में #हाउ कैन इट बी यानी यहकैसेहोसकता है का हैशटैग प्रमुख रहेगा, जो प्यार के नाते में जुड़े लोगों के जवाबों में भी झलकता है. मिसाल के तौर पर, यह कैसे हो सकता है कि मैं उसी पर लट्टू हूँ जो मेरे लिए हर मायने में गलत है? यह कैसे हो सकता है कि मैं उन्हें नहीं छोड़ पा रहा/ या रही हूँ? यह कैसे हो सकता है कि दोस्तों की सलाह ने भी कोई काम नहीं किया?
बतौर उदारवादी हम खुद को तार्किक इंसान के रूप में देखने के आदी हो चुके हैं लेकिन हमारे खुद के बहुत से अनुभव हमें बताते हैं कि असल में हम अपनी काम वासनाओं से संचालित होते हैं (जो अधिकांशत: ‘yummy yucky’ तरह की होती हैं, ना कि सिर्फ आनंदमय.
राजनीति से हम हक्के-बक्के ना रह जाएँ इसके लिए हमें खुद से रूबरू होने की जरूरत है ताकि हम ‘दूसरे’ से रूबरू हो सकें. मनोविश्लेषण हमें एक ऐसा फ्रेमवर्क प्रदान करता है, जिससे हम देख सकते हैं कि हम भी सुरक्षा और जोखिम दोनों के मेल की तलाश में हैं. यह खांचा हम उदारवादियों में अपने अंदर छुपे संघी को, और ज्यादा जरूरी तौर पर शायद, एक संघी में खुद को देख पाने में मदद कर सकता है.
अगर इस प्रस्थापना को मान लिया जाए कि हिन्दू राष्ट्रवाद, सुरक्षा और जोखिम का एक मिला-जुला मिश्रण पेश करता है, तो प्रज्ञा ठाकुर के जीतने में आपको तब भी कोई अचंभा नज़र आता है? क्या यह तथ्य कि नोटबंदी, जीएसटी, किसानों के दुखड़ों और बेरोजगारी जैसे मुद्दों ने भी नरेंद्र मोदी के वोटों पर कोई असर नहीं डाला, आपको हैरतंगेज़ लगता है?
हमें शायद अपने सवालों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. अगर मान लिया जाए कि इस किस्म का राष्ट्रवाद अपने साथ जो यह कामुक ऊर्जा लेकर चलता है और कई मायनों में बहुसंक्यक की सामूहिक मानसिकता की जरूरतों को पूरा करता है, तो फिर नफ़रत की जीत भला कैसे नहीं होगी?
वैकल्पिक समझ उभरने के लिए जरूरी है कि हम अपने इस हैरतज़दा होने के एहसास को कम करें और तर्कशीलता पर अपने अंधे विश्वास को चुनौती दें.
जया शर्मा, यौनिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नारीवादी कार्यकर्त्ता और लेखिका हैं. यह लेख मूलतः काफिला वेबसाइट पर छपे अंग्रेजी लेख का अनुवाद है. अनुवाद राजेंद्र सिंह नेगी ने किया है.