अभिषेक श्रीवास्तव
”गोरखपुर, फूलपुर और अररिया लोकसभा उपचुनाव का परिणाम इस बात की तरफ इशारा है कि मंडल राजनीति का तीसरा दौर शुरू हो रहा है…।” मीडियाविजिल पर वरिष्ठ पत्रकार जितेन्द्र कुमार के 18 मार्च को प्रकाशित लेख की इस पंक्ति और लेख की समूची प्रस्थापना को यदि एकबारगी सही मान लें, तो बिहार से इसके समर्थन में कुछ ऐसे ठोस और सकारात्मक संकेत देखने को मिल रहे हैं जिन पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों की निगाह अभी तक नहीं गई है। सामाजिक न्याय की राजनीति के नए दौर की शिनाख्त करते हुए जितेन्द्र कुमार ने जो अहम बात लिखी थी उसे याद किया जाना चाहिए, ” 2015 में लालू यादव ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर मंडल दो की घोषणा की थी जिसमें बीजेपी बुरी तरह पराजित हुई, लेकिन बाद में लालू से अलग होकर नीतीश ने फिर से बीजेपी का हाथ थाम लिया है, लेकिन दलित-बहुजन मतदाता ने उसे नकार दिया है।”
मंडल 3.0 : उपचुनाव में बीजेपी की हार से निकलते कुछ व्यावहारिक सबक
लालू जेल में हैं, नीतिश बीजेपी के साथ बमुश्किल सांस ले रहे हैं और पासवान खुद केंद्र की सरकार में मंत्री हैं। इधर बीच लालू प्रसाद यादव को जो भी सहानुभूति मिली है और उनकी ताकत बढ़ी है, वह पूरे ओबीसी की ताकत नहीं है, मोटे तौर पर यादवों की है, ऐसा जानकारों का कहना है। ऐसे में सवाल उठता है कि सामाजिक न्याय के परंपरागत चेहरों को ‘नकारने’ और चार साल के भीतर भाजपा से मोहभंग के बाद मंडल के इस तीसरे दौर में ”दलित-बहुजन” के असंतोष का सियासी चेहरा कौन होगा? 2 अप्रैल 2018 को हुई रैली से सबक लेते हुए जितेन्द्र कुमार सहित बहुतों का मानना है कि ”मंडल 3.0” एक बेचेहरा आंदोलन होगा, अलबत्ता पिछले कुछ दिनों के दौरान तेज़ी से घटे राजनीतिक घटनाक्रम ने एक ऐसे नेता को बिहार की ज़मीन पर खड़ा किया है जिसे पटना से लेकर दिल्ली तक एक खास विचारधारा से जुड़े लोग अच्छे से पहचानते हैं। हम बात कर रहे हैं जीतेंद्र नाथ की- बिहार के छोटे से जिले शेखपुरा से निकला वह कठोर कम्युनिस्ट नेता जो आज उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) का प्रदेश उपाध्यक्ष है और आरक्षण के सवाल पर शायद देश की सबसे मुखर आवाज़ है।
बिहार में ज़मीनी संघर्ष का जीतेंद्र नाथ बीते पांच दशक से चर्चित चेहरा रहे हैं, सत्ता की कतारों में हमेशा नेपथ्य में रहते आए हैं। चुनाव भी लड़े, आंदोलन भी किए, लेकिन रोशनी से दूर रहे। कह सकते हैं कि नाव ही कमज़ोर थी, कोई कैसे पार करता। बरसों वे जिस नाव में सवार रहे उसने ”जय भीम लाल सलाम” के हवाई नारे की आड़ में एक बार फिर अपने पोलित ब्यूरो में एक बार फिर सवर्णों की सत्ता कायम कर दी है। जीतेंद्र नाथ लंबे समय से सीपीआइ के भीतर रहते हुए इन्हीं कुछ कारणों से असहज महसूस कर रहे थे।
RLSP नेता जितेंद्र नाथ बोले-आरक्षण-सम्मान की लड़ाई के लिए दलितों-पिछड़ों को होना होगा गोलबंद
बात 2015 की फरवरी में पहले हफ्ते की है जब नीतिश कुमार को सरकार बनाने के लिए समर्थन की ज़रूरत थी और सीपीआइ ने अपने इकलौते विधायक का समर्थन जेडीयू को ज़ाहिर कर दिया था। समर्थन के सवाल पर बिहार की सीपीआइ में एकमत नहीं था। सेक्रेटेरियट के नौ में से पांच सदस्य समर्थन के पक्ष में थे लेकिन चार विरोध में। आखिरकार दिल्ली से फ़रमान आता है और समर्थन की चिट्ठी पटना के राजभवन में पहुंचा दी जाती है। नीतिश कुमार को सीपीआइ के समर्थन का यह पत्र राज्यपाल तक पहुंचाने वाला कोई और नहीं, जीतेंद्र नाथ थे। इसके बाद जेडीयू के महासचिव प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के सीपीआइ के समर्थन का एलान करते हैं और नीतिश अपने विधायकों का जत्था लेकर चुनाव परिणाम के अगले ही दिन दिल्ली में राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे होते हैं। इस घटना का विवरण तहलका हिंदी के 14 मार्च 2015 के अंक में मैंने अपनी आवरण कथा ”ढलती शाम में संसदीय वाम” में दिया था।
बिहार सीपीआइ के भीतर इस समर्थन से ही दरारें पड़ना शुरू हो गई थीं। यह दरार स्पष्ट तौर पर जातिगत थी। सवर्ण बनाम अन्य की लड़ाई तेज़ हो गई थी, जो ज्यादा दिन टिक नहीं सकी और नाथ के नेतृत्व में शेखपुरा सीपीआइ की समूची इकाई समेत दो दर्जन से ज्यादा जिला इकाइयों से सैकड़ों काडरों ने एक झटके में पार्टी से इस्तीफा दे दिया। प्रतिस्पर्धी दलगत राजनीति के माहौल में नाथ और उनके समर्थकों की नई डगर अगस्त 2017 आते-आते बेशक एनडीए में मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी तक जा पहुंची है, लेकिन सामाजिक न्याय की नई राजनीति का खाका भी यही लोग तैयार कर रहे हैं। केवल एनडीए के नाम पर इस घटनाक्रम की उपेक्षा नहीं की जा सकती, खासकर एक ऐसे दौर में जब एनडीए ही क्या खुद भाजपा के भीतर अंत:विस्फोट की आवाज़ें सुनी जाने लगी हैं।
रालोसपा एनडीए की घटक है। इसके बावजूद पिछले दिनों कुशवाहा की पार्टी में जीतेंद्र नाथ के आने से सामाजिक न्याय की जो नई राजनीतिक परिभाषा आकार ले रही है, वह बिहार में एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह है। जिस दौर में दलितों के घर जाकर अमित शाह, रविशंकर प्रसाद और योगी आदित्यनाथ जैसे सैद्धांतिक रूप से दलित विरोधी नेता राहुल गांधी की लीक पर भोजन खाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं, जीतेंद्र नाथ पटना की जनसभा में खुलेआम इसे ढोंग बता रहे हैं। वे सवाल खड़ा करते हैं कि क्या खुद को दलित हितैषी दिखाने वाले ये नेता मरा हुआ चूहा खाएंगे, जो दलित वास्तव में खाते हैं। क्या इन्हें दलितों का भोजन स्वीकार होगा? जिस दौर में देश का चौथा खंबा विधायिका का चारण बना फिर रहा हो, जीतेंद्र नाथ मीडिया में आरक्षण की मांग उठाते हैं। क्या इससे पहले आपने किसी राजनेता को मीडिया में आरक्षण की बात करते सुना है?
सामाजिक न्याय पर जीतेंद्र नाथ की तीखी राजनीतिक समझदारी एक क्षेत्रीय लीडर के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में बरसों काम करने से पैदा हुई है, जहां वे सामाजिक न्याय की परंपरागत ताकतों को लताड़ने से नहीं चूकते। साथ ही दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक की एकता पर लगातार ज़ोर देते हैं और उन्हें आईना भी दिखाते हैं। कम्युनिस्ट पार्टियो ने साठ साल तक दलित-बहुजन को भुलाए रखा जिससे समय के साथ ज़मीनी स्तर के नेताओं का इनसे मोहभंग होता गया। नाथ इसी मोहभंग की पैदावार हैं जो साठ पार में अब जाकर सुर्खरू हो रहे हैं।
इधर बीच जीतेंद्र नाथ के कई साक्षात्कार मीडिया में आए हैं। उनके भाषण राजनीतिक परिपक्वता की मिसाल हैं। वे दलितों-बहुजनों के सड़क पर उतरने और देशव्यापी आक्रोश को केवल चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं रखते। वे कहते हैं, ”1990 के बाद एक समझ विकसित हुई थी कि एससी, एसटी के बाद पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण मिल गया तो अब सभी वंचित तबका विकास की मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा, जैसा कि दक्षिण के राज्यों में देखा गया था। पिछड़ा और दलित इस आत्ममुग्धता में रहे कि अब समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाएंगी और उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक भी था क्योंकि न सिर्फ आरक्षण प्राप्त हुआ बल्कि सामाजिक न्याय का नारा लगातार ही सत्ता में जाने की शर्त बन चुका था। लेकिन सदियों से जो तबका उदासीन था वह इसे चुपचाप स्वीकार कर ले, यह सोचना सरलीकृत सैद्धांतिक गणित की तरह तो हो सकता है, व्यवहारिक बिल्कुल नहीं होना था और न हुआ। होता भी क्यों जब विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका पर जिनका कब्जा था वे इसे क्योंकर होने देते। सभी तरह की चालें चलीं गयीं।”
नाथ कहते हैं, ”बिहार में सामाजिक न्याय की धारा फिर एक नयी चमक के साथ आकार ले रही है। देश भर के वंचित वर्ग को लगता है कि इस बार नए सिरे से एक स्पष्ट रोडमैप के साथ सामाजिक न्याय की मंजिल तय की जाए। गुस्से से नहीं बल्कि स्पष्टता के साथ सामाजिक न्याय के लक्ष्य को निरूपित किया जाए ताकि उत्तर भारत में भी सामाजिक समरसता को समझना होगा कि छल-कपट से सामाजिक समानता नहीं पायी जा सकती है और न घटते अवसर का इलाज वंचितों को उनके हिस्से से वंचित कर खोजा जा सकता है। हर तरह के वंचित तबकों को उनका हिस्सा, उनका बकाया और सम्मान देकर ही सम्पूर्णता में हम एक विकसित भारत की कल्पना कर सकते हैं।”
”गुस्से से नहीं बल्कि स्पष्टता के साथ”- सामाजिक न्याय की राजनीति में यह समझदारी लंबे अरसे बाद दिखी है। नाथ स्पष्ट तौर पर मानते हैं कि इधर बीच देश में जो दलित-बहुजप का उभार हुआ है, उसे केवल चुनावी परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि व्यापक सामाजिक बदलाव के संदर्भ में तौला जाना होगा। कुछ ऐसी ही समझदारी उनकी आरक्षण को लेकर भी है, जिससे परंपरागत आंबेडकरवादियो को दिक्कत हो सकती है।
अरक्षण के बारे में वे कहते हैं, ”आरक्षण सिर्फ तरक्की पाना और नौकरी पाने का मामला भर नहीं है। आरक्षण के बावजूद वंचित तबके को नौकरी पाने के पहले बहुत सारी सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उसे तमाम चुनौतियों और सामाजिक बंधनों के बावजूद अपने भीतर सपना जगाए रखना पड़ता है। आप निचले स्तर पर वंचितों के आसपास की स्थितियों की कल्पना मात्र से सिहर जाते हैं। ऐसे में सपना जगाए रखना कितनी बड़ी चुनौती है, उसे समझना होगा। मेरा मानना है आरक्षण नौकरी और तरक्की से आगे की चीज है, यह सम्मान हासिल करने का मामला है। समाज में बराबरी का मामला है और जब तक वंचित तबका इस सम्मान को हासिल करने के लिए मजबूती से गोलबंद नहीं होगा तब तक उसे सम्मान मिलना असंभव है। दलितों और पिछड़ों को रोज लादी जा रही चुनौतियों के बरक्स अपनी गोलबंदी दिखानी होगी।”
कम्युनिस्ट राजनीति करते हुए पहचान की राजनीति की खामियों को पकड़ना और सामाजिक न्याय की राजनीति में उतर कर प्रगतिशील मूल्यों को उसमें समाहित करवाना- दलीय गठबंधनों की राजनीति में सत्ता पक्ष का पाला पकड़े हुए यह एक ऐसी कठिन कोशिश है जिसे दलित सैद्धांतिक विमर्श में बुद्धिजीवी आनंद तेलतुम्बड़े के यहां और नारों की उकसावे वाली सियासत में युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी के यहां पाया जा सकता है। बिहार को लंबे समय से एक ऐसे नेता की तलाश थी जो सामाजिक न्याय के पुराने पुरोधाओं से दलित-बहुजन के मोहभंग के बाद खाली हुई जगह को भर सके। परंपरागत आंबेडकरवादी मुहावरों से हटकर वाम प्रगतिशीलता के खांचे में दलित-बहुजन एकता को सिचुएट करना और ज़मीन पर उसे नारों की शक्ल देना- यह जिग्नेश मेवाणी और आनंद तेलतुम्बड़े के बीच की एक ऐसी ज़मीन है जिसे जीतेंद्र नाथ बिहार जैसे मुश्किल राज्य में एनडीए के भीतर रह कर साध रहे हैं।
यह आवाज़ एनडीए के भीतर से उठ रही है। जिस तरीके से दलित-बहुजन की राजनीति देश भर में आकार ले रही है, बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में 2019 के चुनाव से पहले कोई ऐसा व्यापक मोर्चा क्षेत्रीय दलों का कायम हो जो बिलकुल वही चमत्कार एक बार फिर दोहरा सके जो एक वक्त में लालू-नीतिश से मिलकर किया था। बहुत संभव है कि गैर-यादव ओबीसी और एमबीसी, अल्पसंख्यक और दलित-महादलित एक छत के नीचे आ जाएं। ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा को यह तय करना पड़ेगा कि वे किधर जाएं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी की मोतिहारी जनसभा में जाते वक्त जिस तरीके से आरक्षण विरोधी भीड़ ने हाजीपुर में कुशवाहा के ऊपर हमला किया, वह घटना दिखाती है कि एनडीए के घटक दलों में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इस हमले के विरोध में जीतेंद्र नाथ ने एक आक्रोश रैली निकाली थी।
नीतिश कुमार के हाथों हुई बेइज्जती को कुशवाहा इतनी जल्दी नहीं भूलेंगे। नीतिश यदि एक बार फिर से अलग होते हैं और किसी कथित सेकुलर मोर्चे में जाते हैं तो आरएलएसपी की स्थिति सांप छछूंदर वाली हो जाएगी। ऐसे में जीतेंद्र नाथ के रूप में एक उभरते हुए जननेता का उपयेाग बिहार की राजनीति कैसे करेगी, यह देखने वाली बात है। बहरहाल, सामाजिक न्याय के नए दौर में सत्ता के भीतर से आंदोलन की जो स्थितियां बन रही हैं, उसे जीतेंद्र नाथ की इस पोस्ट से बेहतर समझा जा सकता है:
”हल्ला बोल, दरवाज़ा खोल” का आग़ाज़ दिल्ली से हो रहा है। यह मामूली बात नहीं है, खासकर उस नेता के लिए जो खुद केंद्र की सरकार में मंत्री है। निजी क्षेत्र में आरक्षण का सवाल मायावती भी उत्तर प्रदेश में उठा चुकी हैं। यह बात अलग है कि उनकी कारतूस दग चुकी है, म्यान खाली है और मुखौटा उतर चुका है। ”मंडल 3.0” की बेचेहरा आवाज़ों को सुनिए। उभरते हुए चेहरों को देखिए। आने वाला वक्त बेहद उथल-पुथल भरा है। फिलहाल, एक बात पक्के तौर पर तय है कि अगर मंडल 3.0 कोई हकीकत है, तो उसे बेचेहरा रहना गवारा नहीं होगा। चेहरे मौजूद हैं, हमें बस दिख नहीं रहे। इस बार के चेहरे सामाजिक न्याय की ऐतिहासिक गलतियों को दुरुस्त कर के सामने आएंगे, यह भी तय है।
लेखक मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक हैं