अभिषेक श्रीवास्तव
चुनाव नज़दीक आ रहे हैं। केंद्र सरकार हलकान है। जीतने के लिए कुल मिलाकर बच रही प्रधानमंत्री की ”जान” है। लिहाजा उन्हें ”जान के खतरे” के नाम पर सबकी जान बारी-बारी से ले ली जाएगी, सरकार बहादुर ने ऐसा ही तय किया है। कोई सीधे मारा जाएगा, कोई डर कर मर जाएगा। शुजात बुखारी को पिछले दिनों सीधे मार दिया गया। शनिवार को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया पहुंची महाराष्ट्र पुलिस ने बाकी को डरा दिया।
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया देश में पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था है। कंपनी कानून के तहत इसे एक कंपनी माना जाता है। यहां का हर सदस्य इस कंपनी का शेयरधारक है। इसके कुछ अपने नियम-कायदे हैं। ये नियम-कायदे पिछले कुछ दिनों से अब पुलिस की जांच में बतौर शिनाख्त और सबूत काम आ रहे हैं। चुनाव में चुनी हुई प्रबंधन कमेटी चुप है।
घटना शनिवार की है। पुणे पुलिस का एक सब-इंस्पेक्टर और एक सिपाही अप्रत्याशित रूप से प्रेस क्लब पहुंचते हैं। वे कार्यालय सचिव से कुछ जानकारी मांगते हैं। उन्हें कहा जाता है कि लिखित में अपना आवेदन दें। सब-इंस्पेक्टर जीआर सोनावड़े कलम से टूटी-फूटी अंग्रेजी में एक आवेदन लिखकर देता है जिसका मजमून कुछ यों है:
”महाराष्ट्र के पुणे स्थित विश्रामबाग थाने में आइपीसी की धारा 153(बी), 505(1)(बी) और 117 इत्यादि के अंतर्गत दर्ज एफआइआर संख्या 04/18 के सिलसिले में कृपया निम्न सूचना उपलब्ध कराएं: 20/04/2018 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। कृपया अपने कार्यालय में उपलब्ध उसकी छायाप्रति और अन्य विवरण उपलब्ध कराएं।”
सब-इंस्पेक्टर को लिखित आवेदन लेने के बाद उक्त कार्यक्रम से जुड़ी सूचना मुहैया करा दी जाती है। वे लेकर चले जाते हैं। कहां जाते हैं, कोई नहीं जानता लेकिन शहर की पत्रकार बिरादरी में यह सूचना शाम होते-होते जंगल की आग की तरह फैल जाती है। अव्वल तो इसलिए क्योंकि पिछली बार जब महाराष्ट्र पुलिस 6 जून को दिल्ली आई थी तो एक शख्स को गिरफ्तार कर के ले गई थी और उसके ऊपर यूएपीए के तहत मुकदमा कायम कर दिया गया था। दूसरे, जिस एफआइआर और धाराओं का जि़क्र सब-इंस्पेक्टर ने अपने आवेदन में किया, पिछली बार पुलिस उसी की जांच के सिलसिले में दिल्ली आई थी। पिछली बार शिकंजे में एक राजनीतिक कार्यकर्ता रोना विल्सन था। इस बार शिकंजा एक पत्रकार के ऊपर है जिसका नाम विश्वदीपक है। जिस एफआइआर का हवाला दिया गया है, वह पुणे के विश्रामबाग थाने में 3 जनवरी, 2018 को दर्ज किया गया था जिसका संबंध भीमा-कोरेगांव की बरसी पर 1 जनवरी को आयोजित हुए कार्यक्रम से एक दिन पहले 31 दिसंबर, 2017 को आयोजित ‘यलगार परिषद’ से है जिसमें गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू के छात्र उमर खालिद को आरोपी बनाया गया है। जिस तारीख 20 अप्रैल 2018 के कार्यक्रम की सूचना ली गई है, उसका आयोजन ”कमेटी फॉर द डिफेंस एंड रिलीज़ ऑफ जीएन साइबाबा” ने करवाया था।
इस घटना से प्रथम दृष्टया तीन सवाल उठते हैं:
1) 31 दिसंबर, 2017 के एक आयोजन के संबंध में 3 जनवरी, 2018 को पुणे में दायर एफआइआर की जांच का सिरा पीछे जाने के बजाय आगे यानी 20 अप्रैल 2018 को दिल्ली में आयोजित किसी कार्यक्रम तक कैसे पहुंचा? क्या किसी घटना की जांच भविष्य में की जा सकती है?
2) भीमा-कोरेगांव में हुए दलितों के कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर आयोजित यलगार परिषद के संबंध में हो रही जांच का दिल्ली में तीन महीने बाद हुए जीएन साइबाबा केंद्रित एक कार्यक्रम से क्या लेना-देना?
3) अगर कोई लेना-देना है भी तो हॉल की बुकिंग की परची पुलिस द्वारा लिए जाने का इससे क्या संबंध है, जो अनिवार्यत: प्रेस क्लब का एक आंतरिक प्रावधान है जिसके तहत किसी भी आयोजन के लिए क्लब के एक सदस्य के दस्तखत ज़रूरी होते हैं?
यह न तो कोई संयोग है, न ही पुलिसिया गफ़लत। दिल्ली के प्रेस क्लब में महाराष्ट्र पुलिस का आना और एक छोटी सी बेमेल सूचना का काग़ज़ लेकर चले जाना एक बड़े राजनीतिक षडयंत्र का हिस्सा है। यह षडयंत्र 6 जून, 2018 को दिल्ली और महाराष्ट्र से यलगार परिषद की जांच के सिलसिले में हुई पांच लोगों की गिरफ्तारी (सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विलसन, शोमा सेन, महेश राउत और सुधीर ढावले) के बाद मीडिया और सत्ता द्वारा मिलकर रचे गए एक आख्यान पर टिका है। यह आख्यान भीमा-कोरेगांव हिंसा, एलगार परिषद, दलित आंदोलन, माओवाद, कांग्रेस पार्टी आदि के बेमेल मिलावट से बनी एक बदज़ायका खिचड़ी है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम की छौंक लगा दी गई है। हमें बताया गया है कि प्रधानमंत्री की जान को इस खिचड़ी से खतरा है। पुलिस इसी बात को साबित करने में जुटी है। साबित करने के लिए वह विवेच्य घटना के भविष्य में हुई घटनाओं का सहारा ले रही है। पता नहीं ऐसा दुनिया में कहीं और होता है या नहीं।
बहरहाल, कल हुई घटना के छह महीना पीछे जाकर हम घटनाओं की एक टाइमलाइन रख रहे हैं। इन्हें जोड़कर कहानी को समझने की कोशिश करें कि आखिर देश की सत्ता केवल एक शख्स के नाम पर कितना खतरनाक खेल कर रही है…
31 दिसंबर, 2017
शनिवारवाड़ा, पुणे में यलगार परिषद का आयोजन
1 जनवरी, 2018
भीमा-कोरेगांव में दलितों का आयोजन और हिंसा
2 जनवरी, 2018
पुणे के डेकन जिमखाना थाने में दो युवा अक्षय बिक्कड़ (22) और आनंद धोंड (25) की ओर से एक शिकायत दर्ज कराई गई
3 जनवरी, 2018
उपर्युक्त शिकायत के आधार पर पुणे के विश्रामबाग थाने में जिग्नेश मेवाणी और उमर खालिद को आरोपी बनाते हुए आइपीसी की धारा 153(ए), 505 और 117 के तहत एफआइआर दर्ज की गई। एफआइआर में मेवाणी और खालिद के यलगार परिषद में दिए भाषण के विवादास्पद अंश शामिल हैं।
8 जनवरी, 2018
पुणे पुलिस ने एफआइआर में धारा 34 को जोड़ते हुए इसके भीतर कबीर कला मंच के सदस्यों सुधीर ढावले, सागर गोरखे, दीपक डेंगले, हर्षाली पोतदार, रमेश गायचोर और ज्योति जगताप का नाम यलगार परिषद के दौरान ”भड़काऊ” भाषण देने के आरोप में शामिल कर लिया।
अप्रैल, 2018
पुणे पुलिस का यलगार परिषद से कथित तौर पर जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं के घर और दफ्तर पर छापा– कबीर कला मंच, रिपब्लिकन पैंथर्स, रोना विलसन, सुधीर ढावले, हर्षाली पोतदार और सुरेंद्र गाडलिंग। पुणे पुलिस आयुक्त ने कहा कि पुलिस इन सभी की यलगार परिषद में भूमिका की जांच कर रही है। सरकार ने कहा कि पुलिस इन लोगों का माओवादियों के साथ संबंध तलाश रही है।
6 जून, 2018
दिल्ली से रोना विलसन, मुंबई से सुधीर ढावले और शोमा सेन, नागपुर से महेश राउत और सुरेंद्र गाडलिंग को पुणे पुलिस ने गिरफ्तार किया। सभी के ऊपर यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज। गिरफ्तारी के बाद पुणे पुलिस ने दावा किया कि अप्रैल में पड़े छापों के दौरान उसे रोना विलसन के लैपटॉप से उसे दो पत्र बरामद हुए थे। एक पत्र 2 जनवरी का था जिसे सीपीआइ(माओवादी) के केंद्रीय कमेटी के एक सदस्य ने कथित रूप से लिखा था जिसमें विलसन और अन्य द्वारा यलगार परिषद को कामयाब बनाने की कोशिशों की सराहना की गई थी।
7 जून, 2018
पुणे पुलिस ने अदालत को बताया कि 18 अप्रैल को लिखी एक और चिट्ठी उसके हाथ लगी है जिसे किसी ”आर” ने ”कामरेड प्रकाश” को लिखा था। पुलिस ने कोर्ट में दावा किया कि यह माओवादियों का आंतरिक संदेश था जिसमें यह बात सामने आई थी कि वे प्रधानमंत्री का ”राजीव गांधी टाइप असैसिनेशन” करने की योजना बना रहे हैं। पुलिस के अनुसार इस पत्र में यलगार परिषद के लिए पैसों की बात कही गई है, तमाम कार्यकर्ताओं के नाम हैं और प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवाणी, कुछ कांग्रेसी नेताओं और नक्सलियों से उनके संपर्क का हवाला है। इस कथित चिट्ठी के आधार पर मीडिया ने एक आख्यान रचा कि कांग्रेस और माओवादी पार्टी आपस में मिले हुए हैं और जिग्नेश मेवाणी इनके बीच संपर्क सूत्र का काम करता है।
11 जून, 2018
इन पत्रों के आलोक में प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने वाले स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) ने बयान दिया कि वह प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त कदम उठा रहा है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इन पत्रों में ज़ाहिर खतरे के आलोक में प्रधानमंत्री की सुरक्षा की समीक्षा की।
20 जून, 2018
प्रधानमंत्री की सुरक्षा बढ़ा दी गई है, राजनाथ सिंह का बयान
30 जून, 2018
दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पुणे पुलिस के एसआइ सोनावड़े का पहुंच कर 20 अप्रैल, 2018 के कार्यक्रम की हॉल बुकिंग से जुडा विवरण ले जाना और उसी एफआइआर व धाराओं का हवाला लिखित रूप से देना, जो 3 जनवरी 2018 को विश्रामबाग थाने में यलगार परिषद के सिलसिले में दर्ज किया गया था।
अब चूंकि भीमा-कोरेगांव और यलगार परिषद से जुड़ी सारी जांच को ”प्रधानमंत्री की जान को खतरे” पर लाकर केंद्रित कर दिया गया है और व्यापक आख्यान कांग्रेस व माओवादियों की मिलीभगत से बन रहा है, लिहाजा यह ज़रूरी है कि कांग्रेस और माओवादियों का संपर्क दिखाने के लिए एक ठोस सबूत खोजा जाए। इसके लिए 20 अप्रैल, 2018 का आयोजन पुलिस के लिए आसान सहारा बनता है जिसके लिए हॉल उस पत्रकार ने बुक करवाया था जो नेशनल हेरल्ड में काम करता है। नेशनल हेरल्ड से बेहतर संस्थान और नहीं हो सकता चूंकि वह कांग्रेस का अखबार है। विश्वदीपक से बेहतर चुनाव और नहीं हो सकता क्योंकि:
– ‘द कारवां’ के अलावा समूचे मीडिया में अकेले विश्वदीपक ही वह पत्रकार हैं जिन्होंने जस्टिस लोया के मामले में स्वतंत्र जांच कर के कई स्टोरी की थी। ताज़ा स्टोरी इसी जून की है जिसमें यह खुलासा हुआ था कि ज बीएच लोया की मौत ड्यूटी के दौरान हुई।
– बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के सहकारी बैंक में नोटबंदी के बाद भारी संख्या में जमा हुई राशि पर स्टोरी उन्होंने की थी।
– आरएसएस के करीबी और पुणे निवासी बीजेपी के एक नेता डीएस कुलकर्णी के 2000 करोड़ के घोटाले की खबर भी विश्वदीपक ने ही लिखी थी।
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नेशनल हेरल्ड ने कल की घटना पर जो खबर लिखी है, वह बेशक अपने पत्रकार का बचाव करने और पुलिस पर आक्रामक होने के लिहाज से काफी कमज़ोर है लेकिन उसके शीर्षक में इस बात का जि़क्र साफ़-साफ़ है कि ”पुणे पुलिस उस पत्रकार को खोजने आई जो जज लोया का केस कवर कर रहा था”। इससे समझ में आता है कि पुलिस और केंद्र सरकार की निगाहें कहीं और हैं, निशाना कहीं और और बहाना है प्रेस क्लब।
एक आखिरी बात। इस समूचे राजनीतिक षडयंत्र में प्रेस क्लब की स्थिति बड़ी विचित्र हो चली है। प्रेस क्लब एक ऐसी जगह है जहां कोई भी आकर और हॉल बुक करवाकर अपनी बात कह सकता है। दो साल पहले जब प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव, डीयू के प्रोफेसर और प्रेस क्लब के वरिष्ठ सदस्य अली जावेद को दिल्ली पुलिस ने पूछताछ के लिए बुलाकर परेशान किया था उस वक्त सदस्यों ने काफी विरोध किया। क्लब के अध्यक्ष रहे राहुल जलाली ने हालांकि मीडिया में अली जावेद के खिलाफ न केवल उलट बयान दे दिया बल्कि उनकी सदस्यता भी जाने किस दबाव में समाप्त कर दी गई। अबकी जब विश्वदीपक की खोज में पुलिस कल क्लब आई, तो बिलकुल उसी घटना का दुहराव देखने को मिला। यह खबर लिखे जाने तक न तो क्लब ने कोई आधिकारिक बयान जारी किया है और न ही कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की है। इसके उलट हाथ से लिखी मात्र एक चिट्ठी के आधार पर क्लब ने अपना आधिकारिक विवरण पुलिस को सौंप डाला।
ऐसा लगता है कि प्रेस क्लब पर सरकार का दबाव बढ़ रहा है। पिछले कुछ दिनों से प्रेस क्लब में हॉल बुक करवाने के लिए आधार कार्ड दिखाना ज़रूरी हो गया है। हॉल बुक करना-करवाना यहां रोज़ का काम है। रोज ही दो-चार आयोजन होते हैं। कुछ पत्रकारों का कहना है कि इधर बीच हॉल बुक करवाने की जानकारी रोज़मर्रा के आधार पर पुलिस को भेजी जा रही है क्योंकि पुलिस हॉल बुक करवाने वाले सदस्यों को फोन कर के बार-बार सूचना ले रही है। पहले ऐसा नहीं था। प्रेस क्लब कोई व्वयावसायिक होटल नहीं है। बुकिंग का विवरण पुलिस के पास भेजा जाना क्लब की स्वायत्तता और सदस्य पत्रकारों की जान के लिए खतरा बन चुका है जिसका फायदा पुलिस उठा रही है।
कुछ वरिष्ठ सदस्य मानते हैं कि जिस तरीके से दूसरे राज्य की पुलिस ने शनिवार को क्लब से जानकारी जुटायी, वह आपत्तिजनक तो है ही साथ में अनौपचारिक भी है। एक सदस्य को कठघरे में खड़ा करने के बहाने यह पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था की स्वायत्तता को धीरे-धीरे समाप्त करने की कोशिश है।
शनिवार की रात सोशल मीडिया पर विश्वदीपक के खिलाफ एफआइआर की भ्रामक खबर इतना शेयर हुई कि दिल्ली के पत्रकारिता जगत में इसे लेकर सनसनी फैल गई। अब तक उनके ऊपर कोई एफआइआर नहीं है लेकिन बहुत संभव है कि पुलिसवाले जो काग़ज़ लेकर दिल्ली से गए हैं, उसके आधार पर वे बाद में उनके ऊपर कोई मुकदमा कायम कर दें। सत्ता और सत्ताप्रेमी मीडिया के रचे षडयंत्रकारी आख्यान को आखिर पुष्ट करने का मामला है। जब तक प्रधानमंत्री की जान को खतरा है, तभी तक इस सरकार को खतरा नहीं है। यह बात भारतीय जनता पार्टी अपने गुजरात के अनुभव से जानती है। आखिरकार चार साल बाद दिल्ली में गुजरात का मॉडल काम करने लगा है। इसकी चपेट में अभी कई आएंगे। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि वे कौन हैं और क्या हैं।
हम अब तक नहीं जानते कि विश्वदीपक कहाँ हैं और कैसे हैं? खबर लिखे जाने तक विश्वदीपक का फोन बंद था। प्रेस क्लब के प्रबंधन को इस सम्बन्ध में दिए जाने वाले एक ज्ञापन पर सदस्यों के दस्तखत लिए जा रहे हैं और बहुत मुमकिन है कि सोमवार को प्रेस क्लब कोई आधिकारिक बयान जारी करे।