हिंदी का नंबर एक अख़बार दैनिक जागरण बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बारे में लिखते हुए कभी ‘क़ातिल’ ‘रंगदार’ या ‘तड़ीपार’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल नहीं करता, जबकि उन पर क़त्ल, फ़िरौती वसूलने से लेकर एक लड़की की अवैध जासूसी कराने तक के अरोप लगे थे। जागरण ऐसा करके बिलकुल ठीक करता है क्योंकि अमित शाह को अदालत से ‘बरी’ कर दिया गया है।
लेकिन जब नाम अमित की जगह ‘वासिफ़’ हो तो जागरण पत्रकारिता की यह सामान्य सिद्धांत ताख़ पर रख देता है। वरना अदालत से बरी कर दिए जाने के बावजूद वह कानपुर के वासिफ़ हैदर को बार-बार आतंकी न लिखता। उसे इसमें कुछ ग़लत नहीं लगा। लेकिन इस एक नंबरी अख़बार से मोर्चा लेने की वासिफ़ की ज़िद की वजह से आपराधिक मानहानि का एक अहम मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। 3 अप्रैल को जस्टिस चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इसे गंभीर मसला मानते हुए शीघ्र सुनवाई के आदेश दिए। जागरण के संपादक और प्रकाशक कठघरे में हैं। अदालत का रुख बता रहा है कि यह मामला बाक़ी मीडिया के लिए भी एक नज़ीर बन सकता है।
वासिफ़ हैदर की कहानी भी सुन लीजिए। कानपुर निवासी वासिफ़ मेडिकल उपकरणों की सप्लाई करने वाली एक अमेरिकी मल्टीनेशनल, बैक्टन डिकिन्सन कंपनी में क्षेत्रीय बिक्री प्रबंधक के रूप में काम कर रहे थे जब 31 जुलाई 2001 को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी), दिल्ली पुलिस, स्पेशल सेल और स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) की टीमों ने उनका ‘अपहरण’ कर लिया। बम विस्फोट कराने से लेकर अवैध हथियारों तक के मामलों को कबूलने के लिए उन्हें ‘थर्ड डिग्री’ दी गई और ‘कबूलनामे’ का वीडियो भी बना लिया गया। इनमें एक मामला दिल्ली का भी था। ज़ाहिर है, चार बेटियों वाले वासिफ़ के परिवार पर कहर टूट पड़ा। आस-पड़ोस ही नहीं पूरे कानपुर में उनके परिवार की थू-थू हुई। लंबी जद्दोजहद के बाद अदालत से वे सभी मामलों में बरी हो गए। पूरी तरह निर्दोष साबित होने के बाद वे 12 अगस्त 2009 को जेल से बाहर आए। यानी बेगुनाह वासिफ़ की ज़िंदगी के आठ से ज़्यादा साल जेल की सलाखों के पीछे बीते।
जेल से निकलकर ज़िंदगी को पटरी पर लाना आसान नहीं था। बहरहाल, अदालत से मिला ‘निर्दोष होने’ का प्रमाणपत्र काम आया और धीर-धीरे वे समाज में स्वीकार किए जाने लगे। लेकिन करीब साल भर बाद जब 2010 में बनारस के घाट पर बम विस्फोट हुआ तो दैनिक जागरण ने एक ख़बर में इसका तार कानपुर से जोड़ते हुए लिखा कि ‘आतंकी वासिफ़’ पर नज़र रखी जा रही है। पता लगाने की कोशिश हो रही है कि वह किससे मिलता है, उसका ख़र्चा कैसे चलता है…वग़ैरह-वग़ैरह..। जागरण कानपुर से ही शुरू हुआ अख़बार है और आज भी यह शहर उसका गढ़ है। ज़ाहिर है, इस अख़बार में ‘आतंकी’ लिखा जाना वासिफ़ के लिए सिर पर बम फूटने जैसा था। वे कहते रह गए कि अदालत ने उन्हें हर मामले में बरी कर दिया है, लेकिन अख़बार बार-बार उन्हें ‘आतंकी वासिफ़’ लिखता रहा। जो समाज थोड़ा क़रीब आया था, उसने फिर दूरी बना ली।
वासिफ़ के लिए यह आघात तो था, लेकिन उन्होंने भिड़ने की ठानी। उन्होंने 2011 में जागरण के ख़िलाफ़ स्पेशल सीजीएम कोर्ट में आपराधिक मानहानि का मुक़द्दमा दायर कर दिया। कोर्ट ने पुलिस को जाँच सौंपी तो पता चला कि वासिफ़ के आरोप सही हैं, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि इसके बाद अदालत तारीख़ पर तारीख़ देने लगी। वासिफ़ ने तब हाईकोर्ट का रुख किया जहाँ मामले के जल्द निपटारे का निर्देश हुआ। इस पर मजिस्ट्रेट ने जागरण की यह दलील मानते हुए कि- वासिफ़ पर पहले आरोप थे और कुछ मुकदमे चल भी रहे हैं, लिहाज़ा आतंकी लिखकर कोई मानहानि नहीं की गई- याचिका को निरस्त कर दिया। जबकि हक़ीक़त यह थी कि वासिफ़ के ख़िलाफ़ कोई मामला दर्ज नहीं था और न ही कोई जाँच चल रही थी। वे सभी मामलों में बरी हो चुके थे।
वासिफ़ ने इसके ख़िलाफ़ पहले सेशन्स कोर्ट और फिर हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन हर जगह निराशा हाथ लगी। उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के पास भी अख़बार की शिकायत की थी लेकिन कुछ हल नहीं निकला। वासिफ़ ने मीडिया विजिल को बताया कि इसी निराशा के दौर में उनकी मुलाकात प्रशांत भूषण से हुई। उन्होंने मामले को समझा और केस दायर कर दिया। सुप्रीमकोर्ट ने 30 मार्च 2015 को जागरण के एडिटर संजय गुप्त, मैनेजिंग एडिटर महेंद्र गुप्त और प्रकाशक कृष्ण कुमार विश्नोई के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस मामले में नोटिस जारी कर दिया।
3 अप्रैल 2018 को इस मामले में एक बड़ा मोड़ आया जब जस्टिस चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मामले को गंभीर माना। अदालत ने कहा कि ‘इस मामले में क़ानून का बड़ा सवाल है, इसलिए इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता है।
अंग्रेज़ी वेबसाईट LIVELAW.IN में छपी ख़बर के अनुसार वकील प्रशांत भूषण ने अदालत के सामने तर्क दिया कि यह मुद्दा सिर्फ किसी एक के निर्दोष होने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मामला कई मामलों में दोहराया गया एक बना बनाया पैटर्न है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए अदालत को इसपर समग्र रूप से विचार करना चाहिए।
प्रशांत भूषण की टीम के सदस्य एडवोकेट गोविंद ने कहा, ” सवाल यह है कि एक अखबार या मीडिया हाउस किसी व्यक्ति विशेष को एक आतंकवादी के रूप में कैसे प्रचारित कर सकता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति पर एक दफा आतंकवाद का झूठा आरोप लग चुका था। इस मसले पर कानून की धारा 499 और 500 से स्पष्ट है।”
अदालत ने मामले को गंभीर माना है। अगली सुनवाई जुलाई में होगी। उम्मीद है कि अदालत कुछ ऐसा आदेश ज़रूर देगी जिससे मीडिया आरोपितों और दोषियों में फ़र्क करने की तमीज़ वापस हासिल करने को मजबूर हो। बात निकली है तो दूर तलक जाने में ही सबकी भलाई है।