लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस इत्यादि के रिश्ते पर दिमागी उहापोह को दुरुस्त करने के आसान नुस्खे



प्रकाश के रे

उदारवादी और वामपंथी ख़ेमे में त्रिपुरा में भाजपा की जीत और वाम मोर्चे की हार के बाद सबसे सतही, सरलीकृत और सुविधाजनक विश्लेषण और टिप्पणी यह है कि वाम मोर्चे को कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ गठबंधन करना चाहिए तथा वाम मोर्चे की अकेले चलने की रणनीति ठीक नहीं है. इस तरह के निष्कर्ष या तो देश में वामपंथ की उपस्थिति को लेकर जानकारी के अभाव का नतीज़ा है या फिर एक नासमझ बेचैनी है. ऐसी बहसों से वाम मोर्चे की बेहतरी और विपक्ष की मज़बूती के लिए जो कोशिशें सही मायने में होनी चाहिए, उनकी चर्चा पीछे छूट जाती है. इस संबंध में कुछ बिंदुओं को संज्ञान में लेना ज़रूरी है.

 

१. केरल में वाम मोर्चे के साथ कुछ अन्य दल भी गठबंधन में हैं. उस गठबंधन को इसी कारण लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट कहा जाता है. वहाँ कांग्रेस के नेतृत्व में भी एक मोर्चा है, जिसे यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट कहा जाता है. इसलिए बड़ा मोर्चा बनाने की दलील वहाँ बेमतलब है क्योंकि पहले से ही ऐसा है.

२. बंगाल में वाम मोर्चा हाल के चुनाव कांग्रेस के साथ लड़ चुका है. उसमें उसे बड़ा घाटा हुआ और कांग्रेस हाशिये से उठ कर दूसरे नंबर की पार्टी बन गयी. वहाँ तृणमूल से तो कोई गंठबंधन संभव नहीं है.

३. त्रिपुरा में कांग्रेस और तृणमूल का पूरा संगठन और नेतृत्व भाजपा में जा चुका था, वहाँ किससे गठबंधन होता?

४. आंध्र प्रदेश में राजशेखर रेड्डी के समय में कांग्रेस के साथ रणनीतिक समझदारी बनी थी और वाम मोर्चे ने कांग्रेस के साथ वहाँ तत्कालीन सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा आंदोलन चलाया था. इसका चुनावी फ़ायदा भी हुआ था. परंतु, जीतने के बाद कांग्रेस की सरकार अपने एजेंडे पर चलने लगी, जिसका घाटा वाम मोर्चे को हुआ और उसका ज़मीनी संघर्ष कमज़ोर हो गया.

५. तमिलनाडु की राजनीति के अपने हिसाब-किताब हैं. फिर भी वहाँ द्रमुक के साथ गाहे-बगाहे वाम मोर्चे का साझा बनता रहता है.

६. बिहार में वाम पार्टियों को लालू प्रसाद ने निगल लिया. पहले उन्होंने माले के और फिर सीपीआई के विधायकों को लपेटा. उसके बाद सीपीएम को साथ लिया और उसकी धार को कुंद कर दिया. वाम मोर्चा ने सामाजिक न्याय की सियासत के आगे अपने एजेंडे को भुला दिया. वहाँ ले-देकर माले का कुछ बचा हुआ है और एकाध जगह पर सीपीआइ का. गठबंधन कीजियेगा, तो अधिक-से-अधिक पाँच सीट देगा कोई भी और पूरे चुनाव भर लाल झंडे की जगह अपना झंडा ढोवाएगा.

७. इन जगहों के अलावा कहीं छिटपुट उपस्थिति भी है, तो वहाँ गठबंधन की गुंजाइश नहीं है और वाम मोर्चे के समर्थन-विरोध से वहाँ कुछ होना जाना नहीं है. उदाहरण के लिए आप उत्तर प्रदेश को ले सकते हैं.

८. वाम मोर्चे के जो संगठन हैं, उनकी माँगों पर कांग्रेस कभी ईमानदार हो ही नहीं सकती है. ऐसे में कांग्रेस से कोई समझौता या गठबंधन ट्रेड यूनियन, छात्र-युवा आंदोलन या महिला आंदोलन में वाम मोर्चे की बची-खुची मौज़ूदगी को भी कुंद कर देगा.

९. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर सक्रिय दलों के साथ वाम मोर्चे का स्थायी साझा संभव नहीं है क्योंकि इनके बीच ऐतिहासिक रूप से विभेद हैं तथा उन दलों का समर्थक वाम पंथ को ‘हरी घास पर हरा साँप’ के नज़रिये से देखता है. गिने-चुने राज्यों को छोड़ दें, तो अल्पसंख्यक वामपंथी पार्टियों के मतदाता नहीं हैं.

१०. वाम मोर्चे के जन-संगठनों के कमज़ोर होने से थोड़ा-बहुत वोट गिरवाने की उनकी क्षमता भी क्षीण हुई है. ऐसे में दूसरी पार्टियाँ भी वामपंथी पार्टियों से गठबंधन के लिए बहुत गंभीर नहीं हैं.

ऐसे में मेरी नज़र में वाम मोर्चे के पास एक ही रास्ता बनता है- वे मुद्दों पर आधारित आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करें. ध्यान रहे, इसी रास्ते वे सत्ता तक पहुँचे थे और राजनीतिक ताक़त बने थे. रही बात, विपक्ष की सरकार बनने में वाम मोर्चे की भूमिका की, तो चुनाव से पहले स्थानीय वास्तविकताओं के आधार पर किसी दल को समर्थन देने तथा चुनाव बाद लोकसभा में किसी गठबंधन को समर्थन देने का विकल्प तो खुला ही हुआ है. ऐसा तो बहुत ज़माने से होता रहा है.


लेखक की फेसबुक दीवार से साभार