कल से चुकी #इमरजेंसी पर चर्चा थोड़ी अधिक चल निकली है, मैं ‘अपनी’ कुछ बात कहना चाहता हूँ। ढेर सारी आलोचना और असहमति का जोखिम उठाते हुए कह रहा हूँ कि इंदिरा जी को इमरजेंसी कम से कम एक दशक तक लगाए रखना चाहिए था। इंदिरा जी की सबसे भारी भूल इमरजेंसी लगाना नहीं, बल्कि उसे केवल 19 महीनें में हटा लेना था। इमरजेंसी के पहले और उसके दौरान जो लोग प्रतिरोध की मशाल लिए घूम रहे थे उनमें से अधिकांश लोग स्वातंत्र्य का सही अर्थ कभी जान ही नहीं पाए थे। यही कारण है कि इमरजेंसी-प्रतिरोध का राजनीतिक उत्तराधिकारी आज भारतीय राजनीति की सबसे निकम्मी जमात है।
ऊपर से राजनीतिक और न्यायिक प्रक्रियाओं का सर्वे करने वालों के लिए फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन, थॉट, और फलाना-धमाका का मतलब बहुत ज्यादा होता है। आम लोग रोजी-रोटी की रोजमर्रा से ही तंगहाल होते हैं। वो तब भी परेशान थे, वो अब भी परेशान हैं। दलगत कैडरों को छोड़ दें तो 1975-77 के मध्य जीवित और सक्रिय एक भी आदमी मुझे आजतक इमरजेंसी पर कुछ बुरा कहता हुआ नहीं मिला है। एक तुर्कमान गेट, या नसबंदी में हुए कुछ बल प्रयोग को जैसे पूरे भारत की कहानी बनाकर पेश किया गया है वह अ-ऐतिहासिक है। इमरजेंसी का प्रदेशों में पड़ने वाला प्रभाव भी बहुत विषम और विविध था। दक्षिण और उत्तर भारत का अपना और ही अलग अनुभव था।
हर पीढ़ी को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना होता है। जिसे स्वतंत्रता बिना संघर्ष के मिल जाये वह उसका नकारात्मक पक्ष ही प्रयोग में लाता है। 1980 के दशक और उसके बाद पैदा हुए लोगों के साथ यही हो गया है। वे स्वतंत्रता आंदोलन की लिगेसी से कहीं दूर थे। इतिहास के पाठ्यक्रम में पूरे भारत को उपनिवेशवाद विरोधी बताया जाता रहा। अंग्रेजों के बहुसंख्यक भारतीय सहयोगियों या तठस्थ भारतीयों को भी गाँधीवादी जन आंदोलन का अटूट हिस्सा बताकर राज्य-प्रायोजित इतिहासलेखन ने स्वतंत्रता संग्राम की परिधि को इतना ज्यादा बड़ा कर दिया जितना वो कभी थी नहीं। औपनिवेशिक राज्य के सेवक रहे भारतीयों को स्वतंत्रता के बाद सबसे ऊँचे पद दिए गए और औपनिवेशिक राज्य का विस्तार 1947 के बाद भी इस देश में होता रहा।
सही मायने में उस विस्तार को तोड़ने या नियंत्रित करने का आखिरी मौका 1975-77 के मध्य ही मिला था। अगर इंदिरा जी इमरजेंसी की मियाद को बढ़ाती जाती तो लोग ‘रूल ऑफ लॉ’ के सही मायने सीख पातें। व्यवस्था के भीतर का कूड़ा-करकट राज्य अपनी आर्गेनिक गति से साफ कर लेता। जातिवाद और साम्प्रदायिकता के जिन्न बोतल से बाहर नहीं आतें। शायद संघीय ढाँचे में भी आमूलचूल परिवर्तन होता।
यह बेहद विवादस्पद तर्क है लेकिन मेरी व्यक्तिगत समझ यह कहती है कि इमरजेंसी के दौरान भारत को कुछ ‘कामनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स’ की तर्ज पर पुनः गठित कर देना चाहिए था। जो प्रक्रियाएं 1980 के मध्य में शुरू हुई थी और जिनका परिणाम हम आज देख रहें हैं उन्हें इमरजेंसी के समय नियंत्रित कर लिया गया था। इंदिरा जी की कमजोरी के कारण उन प्रक्रियाओं को उन्होंने अपने सामने 19 महीनें में फिर से शुरू करवा दिया। उसनें सबसे पहले उनका नुकसान किया। बाद बाकी उनके कमजोर उत्तराधिकारी उन प्रक्रियाओं की प्रकृति समझ ही नहीं पाए और वो अनियंत्रित होती गई।
ऐसा लगता है कि संविधान निर्माण प्रक्रिया पर अब कुछ उग्र टिप्पणियाँ की जानी चाहिए। सभी समस्याओं की जड़ें और उनकी जड़ता उसी ओर जाती दिखाई दे रही हैं। सबसे गंभीर समस्या है कि यह कार्य करेगा कौन? हमारे लोक और बौद्धिक विमर्श में जैसे कुछ संस्थाओं और प्रक्रियाओं को ‘पाक साफ’ बताया गया है, वो वैसी कत्तई नहीं हैं। लेकिन चुकी वो संस्थाएं वर्ग विशेष के स्वार्थों की सिद्धि करती आई हैं, इसलिए वह उनकी आलोचना करने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है।
आज वे लोग भी इमरजेंसी की आलोचना करते हुए दिखाई दे रहे हैं जिन्हें उससे फ़ायदा मिला। इसमें कांग्रेसी और वाम का एक हिस्सा तो है ही, बल्कि संघ परिवार, समाजवादी और जातीयता की राजनीति करने वाले भी हैं। खैर, मैं बस यही कह कर बात खत्म कर देता हूँ कि इमरजेंसी इन देश के लिए आखिरी मौका था जहाँ कई संरचनात्मक सुधार किए जा सकते थे। इंदिरा जी का दोष यह है कि उन सुधारों की शुरुआत करके वो पीछे हट गईं।