अतुल चौरसिया
अकसर ये बात सरसरी तौर पर कह कर बहुत सारी जिम्मेदारियों से नेता-अधिकारी बच लेते हैं कि अशिक्षा इसकी जड़ है. एक बार लोग शिक्षित हो जाएं तो बहुत सी समस्याएं समाप्त हो जाएं. पर यह अधूरा सच है. शिक्षा सिर्फ एक पहलू है, सारा पहलू नहीं. यहां हम दो ऐसे ही पढ़े-लिखे लोगों की बात करने जा रहे हैं, जिन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, कंपटीटिव पॉलिटिक्स की अंधी दौड़ में कमपढ़, अधिकतर खलिहर नौजवानों को धर्म की आड़ लेकर इतना बरगलाया कि पहले से ही सांप्रदायिक नजरिए से बदनाम आज़मगढ़ का सरायमीर कस्बा एक और नफरत की आग में जल उठा. कस्बे के लोगों ने एक दूसरे पर हमला किया, पुलिस बूथ जलाया, पुलिस थाने पर पथराव किया और पुलिस अधिकारी पर भी हमला किया. सरायमीर कस्बा अभी भी तनाव की गिरफ्त में है.
यह सारा किया धरा दो पढ़े-लिखे लोगों का है. ओबैदुर्हमान और कलीम जामेई. ओबैदुर्रहमान अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से पढ़े लिखे हैं और कलीम जामिया मिलिया इस्लामिया से, जैसा कि उनके नाम से ही विदित है. ओबैदुर्हमान सरायमीर टाउन एरिया के दो बार चेयरमैन रह चुके हैं लेकिन पिछले दो बार से वे चेयरमैन बनने चूक रहे हैं. इसकी बड़ी वजह कस्बे का धार्मिक ध्रुवीकरण है जो भाजपा के उठान के कारण उनके खिलाफ जा रहा है. कुछ महीने पहले हुए नगर पंचायत के चुनाव में हार के बाद ओबैदुरर्हमान ने पूरी तरह से मुस्लिम पहचान की राजनीति को हवा देने और भड़काने का काम किया. ऐसा उनकी फेसबुक पोस्ट से गुजर कर समझा जा सकता है. चुनाव से पहले उनकी छवि धर्मनिरपेक्ष थी. अब वे धर्म-सापेक्ष हो गए हैं. जाहिर है चुनावी हार-जीत से जीवन मूल्यों को पल-पल बदलने वाला कोई व्यक्ति किसी भी धारा के प्रति कितना प्रतिबद्ध हो सकता है.
दूसरे कलीम जामेई हैं जो हाल के दिनों में बड़ी तत्परता से कस्बे की राजनीति में अपना वजूद तलाश रहे हैं. इस तरह अलीगढ़ और दिल्ली की जामिया यूनिवर्सिटी से निकले दो खिलाड़ियों ने किस तरह अपनी सियासी महत्वाकांक्षा में कस्बे को लोगों का जीवन नर्क बना दिया वह कहानी आप भी जानें. इस पोस्ट के साथ लगे कुछ स्क्रीन शॉट से भी आपको स्थिति समझने में मदद मिलेगी.
25 अप्रैल के आस-पास कस्बे के एक हिंदू लड़के ने पैगंबर साहब और मुस्लिम समाज में बुर्का को लेकर बेहद आपत्तिजनक फेसबुक पोस्ट किया. उन पोस्ट का स्रोत कोई भी आसानी समझ जाएगा कि व्हाट्एप यूनिवर्सिटी का ज्ञान है. पोस्ट का सार मुस्लिम समाज से घृणा और अज्ञान को बढ़ावा देने वाला है. जाहिर है प्रशासन को समय रहते चेत जाना चाहिए था. पर ऐसा नहीं हुआ, जैसा कि हमेशा से होता है. उस लड़के का अपराध अक्षम्य इसलिए भी है कि वो लंबे समय से इसी तरह की घृणास्पद पोस्ट लिखने के लिए बदनाम है।
27 अप्रैल आते-आते मुस्लिम समाज की ठेकेदारी इन दो नेताओं ने अपने हाथ में ले ली. गुस्ताखे रसूल के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने, उसका श्रेय लेने के दलदल में दोनों इस क़दर मसरूफ हुए कि यह लड़ाई एक कीचड़ में तब्दील हो गई.
खैर पहली बाजी ओबैदुर्हमान के हाथ लगी. एफआईआर दर्ज हुई, आरोपित लड़के को गिरफ्तार कर लिया गया. दूसरे “पढ़े-लिखे” खिलाड़ी कलीम जामेई को अपने हाथ से जाती सियासत ने बेचैन कर दिया. तो उसने आरोपित की गिरफ्तारी के बाद भी मुद्दे को तूल देने की कोशिश में नई कहानी रची कि जो धाराएं लगाई गई हैं वो रसूल के अपमान को देखते हुए कमतर हैं. आरोपित पर रासुका लगाना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो 28 अप्रैल को बाजार बंद रहेगा. थाने का घेराव और प्रदर्शन होगा. ये बात कलीम अपने साथियों और सोशल मीडिया के जरिए फैलाने लगे. दूसरी तरफ ओबैदुरर्हमान अपनी जमीन मजबूत करने के चक्कर में सोशल मीडिया पर कलीम जामेई को नाम लेकर उन्हें डरपोक और भगोड़ा करार देने लगे. बेरोजगार, कमपढ़, मुस्लिम युवा जिसके हाथों में मोबाइल और फेसबुक हाल ही के दिनों में पहुंचा है, इन दोनों महत्वाकांक्षी नेताओं की पाट में ल्यूब्रिकैंट बन गया. दोनों की सियासत हजारों युवाओं की ऊर्जा पाकर तरलता से फिसलने लगी. जामेई के आह्वान को मुसलिम युवाओं का मिल रहा जबर्दस्त समर्थन देख ओबैदुर्रहमान की स्थिति सांप-छछूंदर वाली हो गई. शाम होते-होते वे भी बाजी अपने हाथ में रखने के लिए बाजार बंद के समर्थन में पोस्ट लिखने लगे.
व्हाट्सएप, फेसबुक के जरिए 28 अप्रैल को बंद की ख़बर पूरे कस्बे और आस-पास के सैकड़ों गांवों में फैला दी गई. 1500 से 2000 के बीच लोगों की भीड़ ने 28 अप्रैल को सुबह थाना घेर लिया. इसके बाद वो सब हुआ जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है. भीड़ ने बाजार के स्थानीय बुजुर्ग भाजपा नेता को पीट दिया, इससे मामला और सांप्रदाययिक हो गया. हिंदुओं ने भी पलट कर मुसलिमों पर हमला किया. जो लड़ाई अभी तक मुसलिम युवा (अपने नेताओं के बरगलाने पर) प्रशासन से लड़ रहे थे उसका दायरा तत्काल ही हिंदू-मुसलमान हो गया.
सरायमीर कस्बा लंबे समय से सांप्रदायिकता की चपेट में है. दो-तीन महीने पहले ही यहां के एक हिंदू युवक और मुसलिम युवती की शादी को लेकर कस्बा ज्वलनशील हो गया था. तब भी इन्हीं दो नेताओं ने जमकर राजनीति को हवा दी थी. हालांकि तब लड़की ने खुद ही बयान देकर मामला खत्म कर दिया था कि वह अपनी स्वेच्छा से शादी कर रही थी और दस्तावेज मुहैया करवाकर दोनों ने खुद के वयस्क होने का सबूत दिया.
इस तरह कहानी इस मुकाम पर पहुंची, कि पढ़े-लिखे लोग कमपढ़, अशिक्षितों के बीच किसी समस्या का समाधान होने की बजाय ऐसा ज़हर हैं जो लोगों को नीम बेहोशी की हालत में पहुंचा देते हैं. पढ़े-लिखे लोगों के नेतृत्व में कस्बा दो महीने के भीतर दूसरी बार जलने को तैयार है. अब यह नेता लोग इस आग पर गंगा-जमुनी तहजीब का पानी छिड़कने में लगे हैं. हालांकि गंगा-जमुनी तहजीब शब्द की उत्पत्ति इनसे पूछ ली जाय तो बहुत संभव है कि इन्हें गूगल खंगालना पड़े.
अतुल चौरसिया न्यूज़लांड्री हिंदी के संपादक हैं. यह पोस्ट और तस्वीर उनकी फेसबुक दीवार से साभार है.