पंकज श्रीवास्तव
क्या आपको याद है कि कांग्रेस के इतिहास में किसी अध्यक्ष ने कभी ‘मनुवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया हो और इससे लड़ने का इरादा ज़ाहिर किया हो?
क्या आपको याद है कि कांग्रेस कि किसी अध्यक्ष ने बीजेपी से लड़ते हुए आरएसएस को उसका शक्तिस्रोत बताते हुए निरंतर प्रहार किया हो, उसे देश के लिए खतरा बताते हुए वैचारिक स्तर पर सीधी चुनौती दी हो?
जवाब है-नहीं। राहुल गाँधी कांग्रेस के पहले अध्यक्ष हैं जो मनुवाद पर निशाना साध रहे हैं। उसे आरएसएस और बीजेपी की ‘दमनकार सोच’ बता रहे हैं।
नेहरू आरएसएस को खतरनाक मानते थे, लेकिन पटेल ने उन्हें उसका ज़हर निकालने का आश्वासन दिया था। कोशिश भी की। पटेल मानते थे कि गांधी जी की हत्या आरएसएस के बनाए माहौल की वजह से ही मुमकिन हुई, लेकिन उसकी संगठनशक्ति का इस्तेमाल ‘राष्ट्रनिर्माण’ में होना चाहिए। यही वजह है कि पटेल ने प्रतिबंध हटाने की शर्त के रूप में संघ को संविधान बनाने और राजनीति से दूर रहने का शपथपत्र देने को मजबूर किया था। ( संघ ने पटेल को धोखा दिया, यह अलग बात है।) इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी के दौरान संघ से राजनीतिक विरोधी की तरह निपटा, लेकिन मनुवाद या उसके धर्म आधारित राष्ट्रवाद की अवधारणा को कभी चुनौती नहीं दी। ‘मनुवाद’ शब्द कांग्रेस के शब्दकोश में नहीं रहा।
तो क्या राहुल गाँधी काँग्रेस को एक अलग वैचारिक भूमि पर खड़ा कर रहे हैं। आरएसएस जिस ‘हिंदुत्व’ की बात करता है, वह ‘जाति’ के प्राचीन गौरव से युक्त है। वह जातिवाद को तो ग़लत कहता है लेकिन जाति उसके लिए पुरखों से मिली महान विरासत है। वह हिंदू एकता की बात करता है, लेकिन एकता की राह में बाधक जाति तोड़ने की बात कभी नहीं करता। गोलवलकर सहित संघ के सारे सिद्धांतकार जाति के सिद्धांत को महान बता चुके हैं। जाति उनके राष्ट्र-धर्म का आधार है।
आरएसएस यूँ भी मूलत: चितपावन ब्राह्मणों के नियंत्रण में चलता रहा है और आज भी उसके सर्वोच्च निकाय में ब्राह्मण ही भरे हुए हैं। ज़ाहिर है, वह डॉ आंबेडकर की उस मुनादी के विरुद्ध है जहाँ वे जाति को भारत के राष्ट्र बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं। आरएसएस के लिए राष्ट्र तो हज़ारों साल से बना हुआ है (ब्राह्मण वर्चस्व को हज़ारों साल से जाति के नाम पर शूद्रों के शोषण की दुर्गंध, मधुवन क सुगंध लगती है।) जबकि आंबेडकर राष्ट्र बनाने के लिए जाति के विनाश को जरूरी कार्यभार मानते हैं। उनके सपनों का राष्ट्र अभी बना नहीं है और आरएसएस का लक्ष्य ‘हिंदू राष्ट्र’ तो उनकी नज़र में एक विपत्ति ही है।
यानी जाति को वैचारिक आधार देने वाला ‘मनुवाद’ आरएसएस की नाभि का अमृत है। यह संयोग नहीं कि पहली बार बीजेपी के ‘बहुमत’ के ज़रिए देश की सत्ता संभाल रहे आरएसएस के राज में ‘जाति गौरव’ का उबाल आया है। दलितों पर भीषण अत्याचार हो रहे हैं। उनके प्रतिवाद को आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक का नाम दिया जा रहा है। भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण से लेकर कोरेगाँव हिंसा मामले में पकड़े गए सुधीर ढावले तक की कहानी यही कहती है।
इस माहौल में दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने ‘मनुवाद’ को निशाना बनाकर आरएसएस की नाभि पर ही तीर चलाया है। आरएसएस परेशान है कि राहुल के वार बीजेपी तक सीमित क्यों नहीं रहते, आरएसएस तक क्यों आ रहे हैं। बीते एक हफ्ते से आरएसएस को लेकर मीडिया में जारी उल्लासनृत्य के बीच मनमोहन वैद्य सरीखे संघ विचारकों ने बार-बार कहा कि कांग्रेस बीजेपी और आरएसएस को एक समझने की गलती कर रही है। यह अलग बात है कि जिस समय पीएम से लेकर सीएम तक संघ की इच्छा और निर्देश से बन रहे हों, इस सफ़ाई पर मूर्ख ही यकीन कर सकते हैं। वैसे भी बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ को बनाते वक्त संघ ने यही कहा था कि ‘यह गाजर की पिपहरी है, बजी तो बजी नहीं तो खा जाएँगे।’ बहरहाल, पिपहरी बजी और पहली बार जनता पार्टी के ज़रिए सत्ता के शिखर पर पहुँचे पूर्व जनसंघियों ने आरएसएस की सदस्यता न छोड़ी, जनता पार्टी तोड़ दी। आरएसएस और जनसंघ भी एक था और आरएसएस और बीजेपी भी एक है।
राहुल गाँधी एक तरफ़ तो ख़ुद को उदार हिंदू के रूप में पेश कर रहे हैं, मंदि-मंदिर मत्था टेक रहे हैं, दूसरी तरफ़ मनुवाद को निशाना बना रहे हैं। यह बिलकुल नई रणनीति है जिससे आरएसएस बौखलाया हुआ है। उदार हिंदू, हिंदुत्व के प्रोजेक्ट की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है और मनुवाद पर निशाना तो उसकी निगाह में भारतीय संस्कृति पर ही हमला है।
लगता है कि राहुल को यकीन हो गया है कि मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ दरअसल, आरएसएस का ही एजेंडा है, इसलिए हमला सीधे उस पर होना चाहिए। यह रणनीति पर्दे के पीछे रहने और ‘रहस्य का रोमांच’ बनाए रखने की आरएसएस का खेल बिगाड़ रही है। वैसे भी, कांग्रेस उदार हिंदुओं की पार्टी रही है जिसने आरएसएस के ‘हिंदू राष्ट्र प्रोजेक्ट’ को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। गाँधी की हत्या ने इस प्रोजेक्ट को कई दशक पीछे धकेल दिया था। गैरकांग्रेसवाद की नाव के सहारे ही संघ ‘मुख्यधारा’ तक पहुँच पाया। राहुल ‘उदार हिंदू’ को फिर से स्थापित करने में जुटे हैं, साथ ही मनुवाद पर हमला करके हिंदुत्व के आधार पर चोट कर रहे हैं।
प्रणव मुखर्जी को नागपुर बुलाना, दररअसल राहुल की इसी रणनीति का जवाब है। यह संयोग नहीं कि प्रणव मुखर्जी के नागपुर भाषण के दौरान टीवी बहसों में पूरी तैयारी से बैठे बीजेपी प्रवक्ताओं और ‘संघ के जानकारों ने बार-बार कहा’ कि यह ‘सोनिया और राहुल’ की कांग्रेस है जो उसे अशपृश्य मान रही है, वरना तो पहले की कांग्रेस ने लगातार आरएसएस से संवाद किया है। इस उत्साह में गाँधी, नेहरू से लेकर इंदिरा तक का नाम लिया गया जिन्होंने ‘संघ की तारीफ़ की’ (कब और किस संदर्भ में, इसका उल्लेख ज़रूरी न था। गाँधी ने तो संघ की तुलना फ़ासिस्टों से की थी और उसे तानाशाही दृष्टिकोण वाला संगठन बताया था।)
आरएसएस मुख्यालय में प्रणव मुखर्जी का भाषण बहुत लोगों के लिए राहत की बात है। उन्होंने ‘विविधिता में एकता’ और भारत की नेहरूवादी व्याख्या को वहाँ मज़बूती से रखा, लेकिन हक़ीकत यह भी है कि उन्होंने संविधान पर प्रहार करने वाली ‘हिदू राष्ट्र की प्रार्थना’ को खड़े होकर सम्मान दिया और आगंतुक रजिस्टर में संघ संस्थापक हेडगवार को ‘भारत माता का महान सपूत’ बताया। (अगर हेडगवार महान सपूत थे तो फिर उनके विचारों पर खड़ा संघ भी महान हुआ और फिर गोडसे भी महान हुआ और इस तरह प्रणव मुखर्जी का पूरा भाषण ही बेमानी हुआ, नहीं?)
प्रणव मुखर्जी यह भी भूल गए कि उन्होंने 2010 में वित्तमत्री रहते हुए आरएसएस को आतंकी संगठन बताया था। हद तो यह कि इतिहास की बात करते हुए उन्होंने आर्य, शक, हूण, कुषाण आक्रमणों का कोई जिक्र नहीं किया, लेकिन ‘मुस्लिम आक्रमणकारियों’ का हवाला देते हुए पूरे मध्यकाल को दो लाइनों में निपटा दिया। उन्हें अशोक याद रहे, अकबर नहीं। नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया के मुरीद प्रणव मुखर्जी ने क्या ऐसा करके आरएसएस की इतिहासदृष्टि पर मुहर नहीं लगाई? और क्या यह संयोग था कि उन्होंने महात्मा गाँधी के बलिदान का कोई जिक्र नहीं किया जिनके हत्यारे आरएसएस शाखा से निकले थे?
ज़ाहिर है, संघ का काम हो गया। प्रवक्ताओं ने टीवी बहसों में ‘मुस्लिम आक्रमणकारी’ पद थाम लिया। वैसे भी, संघ को सिर्फ़ तस्वीर चाहिए थी जो उसे आगंतुक रजिस्टर पर प्रणव मुखर्जी की टिप्पणी और हिंदू राष्ट्र की अभ्यर्थना के समय संघ के शीर्ष मंच पर सम्मान से खड़े प्रणव मुखर्जी के रूप में मिल गई। बाक़ी उसे सीधे कुछ नहीं करना पड़ता। वह सिर्फ माहौल बनाता है। 24 घंटे भी नहीं बीते कि सोशल मीडिया पर न जाने कितने ऐसे कोटेशन तैरने लगे हैं जो प्रणव मुखर्जी ने नहीं कहे (जो आमतौर पर सोनिया गांधी और राहुल गाँधी के ख़िलाफ हैं। मनमोहन सिंह की तरह ‘गुलाम’ न होने की मुनादी है।) पूर्व राष्ट्रपति की बेटी शर्मिष्ठा ने इसी का ख़तरा बताकर उनके नागपुर जाने को गलत बताया था। ऐसी तस्वीरें आ गई हैं जिसमे प्रणव मुखर्जी काली टोपी पहने ‘संघ प्रणाम’ करते नज़र आ रहे हैं।
गौर से देखिए तो, गैरकांग्रेसवाद से गति पाने वाला आरएसएस अब सिर्फ़ कांग्रेस के नेताओं पर ही अपना दावा नहीं कर रहा है, वह सोनिया गाँधी (जिन्हें ईसाई प्रचारित करते रहने का अघोषित नियम है!) के रंगमंच पर आने को एक विभाजनरेखा मानते हुए पूर्व की पूरी कांग्रेस ही हज़म करने की कोशिश कर रहा है। यह उसकी ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ ग्रंथ परियोजना का ही एक अध्याय है। प्रणव मुखर्जी का उसने बड़े करीने से इस्तेमाल किया है। राहुल गाँधी ने मनुवाद पर हमला करके उसकी नाभि में छिपे अमृत को सुखाने की कोशिश की है, ‘प्रणवास्त्र’ उसी का जवाब है।
पुनश्च: पिछले दिनों मीडिया विजिल से बातचीत करते हुए प्रख्यात दलित चिंतक कांचा इलैया ने बताया था कि उनकी राहुल से लंबी बात हुई है। कई और बहुजन चिंतकों से राहुल लगातार संपर्क में हैं, ऐसी ख़बरें हैं। कांग्रेस अध्यक्ष की ज़ुबान पर मनुवाद शब्द यूँ ही नहीं चढ़ा है, लेकिन भारत में मनुवाद का ख़ात्मा एक बड़ी राजनीतिक-सांस्कृतिक परियोजना की माँग करता है। अगर राहुल गाँधी ऐसा नहीं कर पाते तो ऐसी बातें ज़बानी जमाखर्च भर रह जाएँगी। सिर्फ जोड़-घटाना करके एक बार मोदी को सत्ता से हटा भी दिया गया तो सामाजिक रूपांतरण का अभाव, संघ के किसी और मोहरे को ज़्यादा ताक़त से वापस लाएगा जैसे कि इंदिरा गाँधी 1977 में हार कर 1980 में वापस आई थीं।