सौरभ बाजपेयी
मोहन भागवत के बयान को कैसे समझें? क्या वो जो कुछ बोल रहे हैं उसको ‘फेस वैल्यू’ पर लेना चाहिए या उसके कुछ गहरे निहितार्थ हैं. कुछ लोग मान रहे हैं कि वो कांग्रेस पर दाँव खेलना चाहते हैं और इसलिए सॉफ्ट हिंदुत्व को प्रोजेक्ट कर रहे हैं. मेरी समझ से ऐसा समझना नासमझी है.
मोहन भागवत सहित पूरी आरएसएस समझ रही है कि नेहरु के बाद आरएसएस के खिलाफ इतना खुला मोर्चा लेने वाले राहुल गाँधी पहले कांग्रेसी नेता हैं. वो यह भी जानते हैं कि कांग्रेस और आरएसएस दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी ताकतें हैं और कांग्रेस के भीतर अपने लोग भेजकर उसे कुछ हद तक प्रो-हिंदुत्व तो बनाया जा सकता है लेकिन कांग्रेस अपनी मूल विचारधारा और कार्यक्रम में बदलाव करके आत्महत्या करने की मूर्खता तो कभी नहीं कर सकती.
जिन लोगों को धुर कांग्रेस विरोध की आदत है उन्हें यह मानने दीजिये कि कांग्रेस और भाजपा एक हैं. अगर दोनों एक हैं तो पिछले चार साल से इतनी हायतौबा क्यों मची है?
अब आइये मूल मुद्दे पर. मेरी समझ से मोहन भागवत का हालिया बयान एक डिफेंसिव स्टेटमेंट है. आरएसएस जनता की नब्ज़ समझकर काम करने वाला गुप्त संगठन है जिसके “खाने के दांत और और दिखाने के दांत और” हैं. आरएसएस को समय-समय पर अपना चोला बदलने में कोई नैतिक संकट नहीं लगता. गाँधीजी की हत्या से लेकर आपातकाल तक अपने किये से पलट जाना उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है.
पिछले साढ़े चार सालों में आरएसएस ने बार-बार यह देखने की कोशिश की कि देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के उसके एजेंडे के लिए लोग कितना तैयार हैं. या हिंदुत्व के इस प्रयोग के विरुद्ध देश में किस हद तक प्रतिरोध का माहौल तैयार है? इस दौरान उसने यह बात समझ ली कि भले ही देश में हिंदुत्व के समर्थन में ऊपरी माहौल मीडिया, सोशल मीडिया और पार्टी प्रोपगंडा से तैयार हो गया हो, लोग मुस्लिम विरोधी क्रूर हिंसा के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं.
शम्भूलान रैगर (राजस्थान में एक मुस्लिम को पीट-पीटकर मार डालने और इस कुकृत्य का वीडियो बनवाने वाला हत्यारा ) जैसों के पक्ष में भी माहौल बनाने वाले लोग या तो भाजपा-आरएसएस के अपने कैडर थे या 5-5 हजार रुपये पर भाड़े में भर्ती किये गए बजरंग दल आदि संघी संगठनों के पेड वालंटियर्स. यह जानना एक संतोष की बात है कि बजरंग दल आदि संगठन जो कि आरएसएस के स्टॉर्म ट्रूपर्स की तरह काम करते हैं, हाल के दिनों में उसका विस्तार विचारधारात्मक नहीं है. संघ के कई संगठनों ने पिछले दिनों बड़ी तादात में ऐसे कार्यकर्ताओं की भर्ती की है जिन्हें हर महीने कुछ हजार रुपये दिए जाते हैं. कम आय वर्ग के लोगों के लिए यह अतिरिक्त आय का साधन तो है ही सत्ता के क़रीब होने और क़ानून-व्यवस्था को अपने इशारे पर नचाना भी उनके लिए बड़ा आकर्षण होता है.
जब कहीं देश में यह पेड वालंटियर्स कोई कारनामा करते हैं तो देखने में ऐसा लगता है कि यह आम भीड़ है लेकिन वास्तव में इसकी शुरुआत यही लोग करते हैं और आसपास की भीड़ अनायास इस उत्तेजना का वैसे ही हिस्सा बन जाती है जैसे किसी पॉकेटमार या चोर को पकड़कर पीटने पर बनती है.
यह सब आम लोगों को पता हो या न पता हो, आरएसएस को तो अंदरखाने सब पता है. यही नहीं उसे तो यह भी पता है कि कैसे अमित शाह जैसे लोगों ने पिछले दिनों चुनावों में भाजपा की जीत सुनिश्चित की है. ईवीएम के साथ छेड़खानी अब कोई छुपी बात नहीं है. अब तो गाँव-जवार तक के लोगों का विश्वास ईवीएम से उठ चुका है. शायद आरएसएस के अपने आकलन के मुताबिक़ मोदी का जादू उतर चुका है. उसको पता है कि अगर यह चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में लड़ा गया और अगर फ्री एंड फेयर इलेक्शन हो गया तो भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो जाएगा.
सबसे बढ़कर, 2004 में एनडीए-1 के बाद आरएसएस संगठन को जिस तरह नुकसान हुआ था, मोदी सरकार जाने के बाद उसकी तुलना में बहुत बड़े नुकसान का अंदाजा है. 2009 में कुछ अखबारों के मुताबिक़ उत्तर भारत में संघ की शाखाओं की संख्या अप्रत्याशित रूप से गिर गयी थी. क्योंकि संघ से जुड़े तमाम लोग जो अपनी सादगी, अनुशासन और त्याग की कमाई खाते थे, सत्ता मिलते ही सत्ता प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द मँडराने लगे.
हालाँकि इसके बावजूद संघ और भाजपा के संबंधों को लेकर एक दूरी बनी हुयी थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने खुद को भले ही संघ का प्रतिबद्ध कार्यकर्ता घोषित किया था, आरएसएस तब भी “मीठा-मीठा गप और कड़वा -कड़वा थू” करने की स्थिति में था. जिन चीजों से उसको फ़ायदा हो उनमें भाजपा उसका अपना राजनीतिक दल था और जिनमें उसका नुकसान हो रहा हो उनमें यह कह दिया जाता था कि आरएसएस और भाजपा अलग-अलग हैं.
इस बार आरएसएस यह कहने की स्थिति में नहीं है क्योंकि मोदी के उभार के वक्त उसे लगा था कि देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने का समय आ गया है. इसीलिए अति उत्साह में आरएसएस और भाजपा के बीच की दूरी को स्पष्ट रूप से नज़रअंदाज़ किया गया.
यह पहला मौक़ा था जब आरएसएस के लोग गणवेश में भाजपा के लिए वोट मांगने सड़कों-गलियों में उतरे थे. इसके पहले आरएसएस परदे के पीछे से भाजपा और उसके पहले जनसंघ का चुनाव अभियान मैनेज करती थी. राम माधव जैसे चर्चित नेताओं को आरएसएस से भाजपा में भेजकर शायद लोगों को यह सन्देश देने का प्रयास किया गया कि अब आरएसएस देश की सत्ता पर क़ाबिज है. आरएसएस के लोग मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्रियों की खुलेआम क्लास लगाने लगे थे और आरएसएस पूरे देश एक सत्ता केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ. हर महत्वपूर्ण संस्थानों में महत्वपूर्ण फ़ैसलों में आरएसएस की खुली भूमिका ने उसके और सरकार के बीच के फ़ासले को ख़त्म कर दिया है.
आम जनमानस में इस दूरी को पाटने का काम पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने भी बखूबी किया है. राहुल गांधी ने भाजपा सरकार पर पिछले दिनों जितने हमले किये हैं उसमें आरएसएस-भाजपा की सरकार कहकर उसे पुकारा है.
आरएसएस को यह डर भी सता रहा है कि राजनीतिक सत्ता जाने के बाद कहीं इस बार कांग्रेस आरएसएस के खिलाफ़ कोई बड़ी मुहिम न छेड़ दे. आरएसएस के दामन में फंडिंग से लेकर गुप्त तरीकों से काम करने के तमाम मामले हैं जो राजनीतिक इच्छा-शक्ति होने पर खोले जा सकते हैं और भारतीय संविधान और न्याय प्रणाली के तहत उस पर कार्यवाही भी की जा सकती है.
इसलिए मोहन भागवत के ये बयान उनकी किसी नयी योजना के नहीं, हताशा के परिचायक हैं. साढ़े चार साल अनेक प्रयोगों के बाद उन्होंने एक बार फिर तय किया है कि खोल में वापस छुप जाना ही फ़िलहाल बेहतर है. इसीलिए आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस के योगदान को स्वीकारा गया है; मुसलमानों को भारतीय राष्ट्र का हिस्सा बताया गया है; बंच ऑफ़ थॉट्स की बातों से खुद को अलग भी कर लिया गया है; भारतीय संविधान में “सेक्युलर” और “सोशलिस्ट” छोड़ आस्था जताई गयी है; यह भी कह दिया गया है कि डॉ० हेडगेवार ने जो कुछ कहा-लिखा उसको समय-सन्दर्भ के अनुसार बदला भी जा सकता है.
कोई पूछे कि आखिर आरएसएस जो हमेशा परदे के पीछे से खेलने की आदी है, उसके सरसंघचालक को विदेशों से लेकर दिल्ली तक सार्वजनिक मंचों पर आकर उन बातों पर सफ़ाई देने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है जो उसकी विचारधारा का मूल रही हैं. यह और कुछ नहीं बल्कि फिर से अपने कदम वापस खींचकर अगले कुछ समय इंतज़ार करने की नीति है.
अक्सर हम संगठनों और व्यक्तियों को समय से अधिक ताक़तवर मान बैठते हैं इसलिए आरएसएस को हद से ज्यादा मजबूत और प्रभावी मान बैठते हैं जबकि ऐसा होता नहीं है. यह क्यों सोचते हैं कि आरएसएस कोई गलती नहीं कर सकता और उनकी रणनीति फूलप्रूफ़ है. आरएसएस ने गलती कर दी है और अब राजनीति से दूर रहकर सांस्कृतिक-सामाजिक काम करने वाले संगठन की उसकी थाती लुट चुकी है. यह डैमेज कण्ट्रोल है, और कुछ नहीं.
लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं।
तस्वीर एशियन एज से साभार।