बिहार: सांप्रदायिक घटनाओं में रिकॉर्ड इज़ाफ़ा! ख़ाक़ हुई नीतीश की साख!



लालूमुक्त और बीजेपीयुक्त सरकार बनाकर नीतीश कुमार ने अपने लिए चाहे सुकून हासिल कर लिया हो, लेकिन बिहार का सुकून छिन गया है। जुलाई 2017 में गठबंधन टूटने के बाद बिहार में 200 सांप्रदायिक घटनाएँ हो हुई हैं। इस साल अब तक 64 ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं। बीते मार्च में ही ऐसी 30 घटनाएँ हुईं हैं और लगता है जैसे पूरे बिहार में आग लगी हुई है।

इस संदर्भ में आज इंडियन एक्सप्रेस ने एक ख़बर छापी है जिसमें बीते पाँच साल का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसके मुताबिक 2012 में 50, 2013 में 112, 2014 में 110, 2015 में 155 , 2016 में 230 और 2017 में सबसे ज़्यादा 270 सांप्रदायिक घटनाएँ बिहार में दर्ज की गईं। नीतीश कुमार 2010 से एनडीए में थे। जून 2013 में एनडीए से अलग हुए। नवंबर 2015 में वे काँग्रेस और आरजेडी गठबंधन में शामिल हुए। यह साथ जुलाई 2017 तक रहा। इसके बाद वे फिर एनडीए का हिस्सा हो गए।

बिहार में ज़्यादातर सांप्रदायिक घटनाएँ धार्मिक जुलूसों के ज़रिए अंजाम दी जा रही हैं। हिंदू संगठनों के जुलूस मुस्लिम बहुल इलाके में गए और झगड़ा हुआ, यही पैटर्न है। हमेशा आरोप लगा कि जुलूस में शामिल लोग अपमानजनक नारे लगाते हुए झगड़ा ‘रचते’ हैं। ऐसा कई ज़िलो में हुआ। रामनवमी या नवसंवत्सर के नाम पर,आपत्तिजनक नारे लगाते और हथियार लहराते मोटरसाइकिल रैलियाँ निकालना किसी धार्मिक परंपरा का हिस्सा नहीं है। यह धर्म की आड़ में शुरू किया गया राजनीतिक अभियान है।

अररिया में आरजेडी प्रत्याशी की जीत के बाद मुस्लिम लड़कों का भारत विरोधी नारे लगाते एक वीडियो वायरल हुआ था। बाद में जाँच से पता चला कि उस वीडियो में आवाज़ काटकर नारे डाले गए थे। ज़ाहिर है, नफ़रत का अभियान हर क़ीमत पर बढ़ाया जा रहा है। मक़सद सिर्फ़ एक कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफ़रत बढ़ाई जाए।

पिछले दिनों जिस तरह केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अर्जित शाश्वत का नाम भागलपुर हिंसा में आया है, उसने नीतीश कुमार के सुशासन और बीजेपी की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। काफ़ी दिनों तक पुलिस की पकड़ से बाहर अर्जित ने कल ही सरेंडर किया है, लेकिन इस बीच उसने और अश्विनी चौबे ने जिस तरह सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की हरक़तों को ‘राष्ट्रवाद’ से जोड़ा, उससे बीजेपी की रणनीति स्पष्ट हो गई है।

आरजेडी की उपचुनावों में जीत ने संकेत दिया है कि नीतीश कुमार और बीजेपी का गठबंधन चुनावी मोर्चे पर कमज़ोर साबित हो सकता है। ऐसे में बीजेपी सांप्रदायिक उन्माद फैलाकर विपरीत सामाजिक समीकरणों पर भारी पड़ना चाहती है। लेकिन सवाल तो नीतीश कुमार के सुशासन के दावे का है। जिस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर उन्होंने आरजेडी से नाता तोड़ा था, क्या बीजेपी नेताओं के मुंह से निकलने वाली दंगाई आग उससे कम  ख़तरनाक है।

सच तो यह है कि बिहार सांप्रदायिक उन्माद की आग में झुलस रहा है तो सबसे पहले नीतीश कुमार की साख ही ख़ाक हो रही है। नीतीश ने इसे जल्द नहीं समझा तो बीजेपी, बिहार की चौसर पर बादशाह को पैदल करने में देर नहीं करेगी।

 

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