सूफ़ी शायर मलिक मोहम्मद जायसी ने 1540 में अपना अद्भुत प्रेमाख्यान ‘पद्मावत’ रचा, यानी दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मौत (1316 ई.) के 224 साल बाद। ‘मुस्लिम’ जायसी के इस आख्यान की नायिका है सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी और नायक है राजपूत राजा रतन सिंह। खलनायक है ‘मुस्लिम’ शासक अलाउद्दीन खिलजी। कहानी में भगवान शंकर , पार्वती से लेकर हनुमान जी तक इस प्रेम को संभव बनाने में मदद करते हैं। दार्शनिक स्तर पर यह जीव और ब्रह्म के मिलन की कहानी है जिसकी राह में ‘माया ‘ है। यहाँ अलाउद्दीन खिलजी माया का प्रतीक है। लेकिन इस दार्शनिक प्रेमाख्यान को इतिहास के रूप में प्रचारित करके 2018 में पूँजी के प्रेतों ने ऐसा आख्यान रचा है जिसका मक़सद घृणा का कारोबार करना है। भूख-प्यास और अभाव से विकल हो रहे भारत महादेश की एकमात्र परेशानी फ़िलहाल ‘पद्मावती’ से ‘पद्मावत ‘कर दी गई फ़िल्म का शांतिपूर्ण प्रदर्शन है। वरिष्ठ पत्रकार राजेश जोशी ने रिलीज़ के पहले आयोजित एक विशेष शो में यह फ़िल्म देखी। यहाँ पढ़िए उनकी समीक्षा- संपादक
भुनी हुई रान चबाता ख़िलजी और पति को पंखा झलती पद्मावती !
फ़िल्म पद्मावत में संजय लीला भंसाली के सिनेमा की भव्यता और तड़क-भड़क भरपूर मौजूद है:
- नेज़े-भाले और ढाल-तलवार लिए एक दूसरे पर टूट पड़ते हज़ारों-हज़ार घुड़सवार सैनिक,
- धूल के ग़ुबार से काले पड़ गए युद्ध के मैदान में आग उगलने वाली तोपगाड़ी खींचते हाथी,
- आसमान में गूँजती युद्ध की रणभेरियों की धमक,
- राजपूत और सल्तनत काल के ऐश्वर्य को जीवंत बनाते करोड़ों रुपए ख़र्च करके बनाए गए सेट,
- और अद्भुत रूप से विश्वसनीय संगीत!
दिल्ली के एक थिएटर में चंद लोगों के लिए किए गए इस फ़िल्म के प्रीव्यू को थ्री-डी चश्मा पहनकर देखते हुए लगा जैसे आप ख़ुद एक अदृश्य किरदार की तरह कहानी की घटनाओं के हिस्सेदार और गवाह हैं.
ये तो रही भंसाली के सिनेमा की कला और तकनीक की ख़ूबी. पर अगर पद्मावत फ़िल्म की राजनीति को समझना हो तो उसमें खाने के दृश्यों को ग़ौर से देखिएगा. खानपान की आदतों से ही इन दिनों भारत में हीरो और विलेन तय किए जा रहे हैं.
फ़िल्म में एक तरफ़ दस्तरख़्वान में सजाए गए गोश्त पर टूट पड़ने से पहले उसे भूखे जानवर की तरह सूँघता हुआ अलाउद्दीन ख़िलजी है, तो दूसरी ओर एक साधक की तरह शांति से बैठकर सात्विक भोजन कर रहे अपने शालीन लेकिन कठोर पति को पंखा झलती पद्मावती.
एक तरफ़ बड़े जानवरों की भुनी हुई रान को चबर-चबर चबाते, अपने दुश्मनों की पीठ पर धोखे से वार करने वाले क्रूर और अराजक मुसलमान आक्रांता हैं, तो दूसरी ओर अपनी आन-बान-शान और वचन के लिए मर मिटने वाला हिंदू राजपूत राजा रतन सिंह.
पिछले तीन चार बरस में हिंदुस्तान में जिस तरह मुसलमानों की स्टीरियोटाइपिंग की गई है, संजय लीला भंसाली ने उसी स्टीरियोटाइपिंग का इस्तेमाल अपनी फ़िल्म में किया है.
उन्होंने राजपूतों को वचन के पक्के हीरो और मुसलमान आक्रांताओं को चालबाज़ और ख़ूँख़ार खलनायकों की तरह दिखाया है. पर ये दाँव उलटा पड़ गया और ख़ुद राजपूत ही हिंसा के बल पर फ़िल्म को रोकने की धमकी दे रहे हैं.
जिस दौर में मोहम्मद अख़लाक़, पहलू ख़ान और जुनैद आदि को मुसलमान होने के कारण पीट-पीट कर मार डाला गया हो, जब आम मुसलमान से कश्मीर, पाकिस्तान, आतंकवाद के मुद्दों पर बार बार सफ़ाई माँगी जाती हो, सफ़ाचट मूँछ के साथ दाढ़ी रखने वालों को शक़ की निगाह से देखा जाने लगा हो, ऐसे में ये फ़िल्म दानव जैसे ख़िलजियों के साथ राजपूतों के टकराव की कहानी कहती है.
जल्लाद सा दिखने वाला ख़िलजी
फ़िल्म के पहले ही दृश्य में ही भारी सी अफ़ग़ानी पगड़ी पहने, आँखों में गाढ़ा सुरमा लगाए, गोश्त चबाते हुए जलालुद्दीन ख़िलजी का जल्लाद सा दिखने वाला भारी चेहरा परदे पर नज़र आता है.
दालान के एक कोने में एक समूचा बड़ा जानवर आग के ऊपर गोल-गोल घुमाकर भूना जा रहा है. जलालुद्दीन ख़िलजी के आसपास पगड़ी पहने, सफ़ाचट मूछों और मुसलमानों वाली दाढ़ी वाले दस-बारह और दरबारी इकट्ठा हैं. ये अफ़ग़ान लुटेरे दिल्ली पर अपनी फ़तह का जश्न मना रहे हैं.
ऐसे में ऊँचे क़द का ग़ुरूर से भरा एक जवान बड़े से शुतुरमुर्ग़ को कुत्ते की तरह ज़ंजीर से बाँध कर वहाँ ले आता है. ये जलालुद्दीन ख़िलजी का भतीजा अलाउद्दीन ख़िलजी है. उसकी चचेरी बहन ने उससे शुतुरमुर्ग़ का पंख माँगा था पर वो पूरा शुतुरमुर्ग़ ही ले आया ताकि अपने चाचा जलालुद्दीन से अपनी चचेरी बहन का हाथ माँग सके. क्योंकि वो हर नायाब चीज़ को अपना बनाना चाहता है.
सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी पद्मावती ऐसी ही नायाब सुंदरी है जो अपने पिता के मेहमान मेवाड़ के राजा रतन सिंह के प्रेम में पड़ कर उससे शादी कर लेती है. चक्र घुमाकर ‘ऊँ मणि पद्मे हुम्’ का जाप करने वाली ये बौद्ध कन्या शादी के बाद ऐसी राजपूतानी में बदल जाती है जो तलवार को क्षत्राणी का कंगन बताने लगती है और फ़िल्म के अंत में जौहर करने के लिए जीवित ही सैकड़ों क्षत्राणियों के साथ आग में कूद पड़ती है.
कहानी के केंद्र में एक क़िरदार राजा रतन सिंह का राजगुरु है जिन्हें पद्मावती देश से निकलवा देती है. यही गुरू, अलाउद्दीन ख़िलजी को पद्मावती के हुस्न के बारे में बताता है.
पद्मावती को हासिल करने के लिए अलाउद्दीन की फ़ौजें चित्तौड़गढ़ का घेरा डाल देती हैं. अलाउद्दीन ख़िलजी आत्मसमर्पण करने के बहाने क़िले के अंदर पहुँच जाता है और पद्मावती की झलक लेने की कोशिश करता है. असफल होने पर राजा रतन सिंह को अपने ख़ेमे में मेहमान के तौर पर बुलाता है.
थ्री-डी तकनीकी से सजी फ़िल्म
अब शुरू होता है लोहे से लोहा टकराने का दौर. संजय लीला भंसाली अपनी फ़िल्मों की जिस भव्यता के लिए जाने जाते हैं उन्होंने इस भव्यता को रणक्षेत्र में भी उतार दिया है.
थ्री-डी तकनीक का कमाल है कि आप ख़ुद को युद्ध के मैदान में खड़ा पाते हैं.
गरजती रणभेरियों और तलवारों की खनक के साथ-साथ चलती है राजपूती आन-बान-शान की कहानी — राजपूत सिर कटा सकता है लेकिन झुका नहीं सकता.
राजपूत अपना वचन पूरा करने के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगाने को तैयार रहता है.
राजपूत किसी को एक बार मेहमान बना लेता है तो फिर उस पर तलवार नहीं चलाता.
राजपूत अपने दुश्मन की क़ैद में पड़ने के बावजूद समझौता नहीं करता.
राजपूत धोखेबाज़ दुश्मन से भी धोखा नहीं करता.
क्षत्राणी अपने शील और धर्म की रक्षा करने के लिए कंगन उतार कर तलवार उठाने में भी नहीं हिचकती.
क्षत्राणी विधर्मी के हाथों में पड़ने की बजाए जौहर करके ख़ुद को भस्म कर लेना उचित समझती है.
राजपूतों का गौरवगान
जिस तरह ये फ़िल्म राजपूत राजाओं को लगभग अतिमानव या सुपरह्यूमन का दर्जा देती है उससे राजपूतों को ख़ुश होना चाहिए.
फ़िल्म के अंत में राजपूतानियों को जौहर में जाते हुए दिखाया गया है और राजस्थान में ऐसे कई लोग मिल जाएँगे जो जौहर और सती प्रथा का अब भी गुणगान करते हैं.
बहुत से लोगों को याद होगा कि तीस साल पहले जब राजस्थान में देवराला की रूपकुँवर को उसके पति की चिता में जला दिया गया था, तब बहुत से राजपूत संगठन सती प्रथा का गुणगान करते हुए लगभग करणी सेना के सुर में ही सती प्रथा का विरोध करने वालों की ईंट से ईंट बजाने की धमकी देते थे.
इस सबके बावजूद पता नहीं क्यों पद्मावत फ़िल्म से राजपूत करणी सेना की भावनाएँ आहत हो रही हैं?
ख़िलजी बादशाहों को बदमाश, चालबाज़, ख़ूँख़ार, धोखेबाज़, काइयाँ आदि दिखाने से मुसलमानों की भावनाएँ आहत होने की ख़बर मैंने अभी तक नहीं पढ़ी.
हिंदुस्तान में क्या कोई मुसलमान ख़ुद को ख़िलजी ख़ानदान का वारिस कहता भी होगा और अगर कोई होगा भी तो क्या उसे अलाउद्दीन या जलालुद्दीन को ख़ूँख़ार दिखाए जाने से कोई फ़र्क पड़ता होगा?
फिर पता नहीं क्यों करणी सेना की ‘आहत भावनाओं’ पर फाहा रखने को चार राज्यों की सरकारें बेताब हैं!
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सिंहल द्वीप की बौद्ध सुकन्या को राष्ट्रमाता बता रहे हैं.
भारतीय जनता पार्टी के छुटभैये नेता पद्मावती का रोल करने वाली दीपिका पादुकोण का सिर काटने वाले को सौ करोड़ का इनाम देने का ऐलान कर चुके हैं.
बीजेपी सरकारों को परवाह नहीं कि देश का सुप्रीम कोर्ट सभी एतराज़ों को दरकिनार करते हुए फ़ैसला दे चुका है कि 25 जनवरी को फ़िल्म रिलीज़ की जानी चाहिए.
असली उलझन संजय लीला भंसाली और उनके फ़ाइनेंसरों के लिए है जिन्होंने राजपूतों की गौरवगाथा सुनाई और राजपूतों को ही मना नहीं पा रहे हैं.