मोदीराज में गौरक्षा के नाम पर शुरू हुए ख़ूनी उत्पात ने देश ही नहीं दुनिया का ध्यान झारखंड के लातेहार में 18 मार्च 2016 की उस घटना की ओर खींचा था जब दो मुसलमानों को पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी गई थी। इस वारदात के दोषियों को सज़ा दिलवाना क़ानून के शासन की कसौटी थी, लेकिन झारखंड पुलिस ने इस मामले में आपराधिक लीपापोती की ताकि अपने उन राजनीतिक आकाओं को ख़़ुश कर सके जिन्होंंने गोरक्षा के नाम पर देश के ताने-बाने को तोड़ने की ठानी है। केस कमज़ोर करने का नतीजा ये हुआ कि आरोपित हाईकोर्ट से ज़मानत पर रिहा हो गए। मशहूर पत्रकार अजित साही ने इस पूरे मामले की छानबीन की और 2 अप्रैल को दिल्ली के प्रेस क्लब में रिपोर्ट जारी की जिस पर पूरी दुनिया के मानवाधिकार संस्थाओं की नज़र है- संपादक
स्वतंत्र जाँच:
गौरक्षकों ने दी फाँसी, सरकार ने की नाइंसाफ़ी!
गौरक्षकों द्वारा पहली फाँसी
18 मार्च 2016 को झारखंड राज्य के लातेहार ज़िले में गौरक्षकों ने दो मुसलमानों का अपहरण कर उनकी निर्दयता से पिटाई की और उनको पेड़ से लटकाकर मार दिया. मरने वाले थे 32 साल के मवेशी व्यापारी मज़लूम अंसारी और उनके बिज़नेस पार्टनर का 12 साल का नाबालिग़ लड़का, इम्तियाज़ ख़ान. जब गौरक्षकों ने इन पर हमला किया था तो मज़लूम और इम्तियाज़ आठ बैलों को बेचने के लिए हाट ले जा रहे थे.
हालांकि मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही मुसलमानों पर गौरक्षकों का हमला बढ़ चुका था, लेकिन फाँसी पर लटकाने का ये पहला मामला था. गौरक्षकों की इस घिनौने करतूत ने अमेरिका में लंबे समय तक चली नस्लवादी हिंसा की याद दिला दी, जहाँ गोरों ने ख़ुद को सर्वोच्च घोषित करने के लिए हज़ारों अफ़्रीकी, लैटिनो और मूल अमेरिकी लोगों की हत्याएँ की थीं.
लातेहार से उठी मज़लूम और इम्तियाज़ की हत्या की गूंज तुरंत पूरी दुनिया में सुनाई पड़ी. 2016 में वाशिंगटन डी. सी. में अमेरिकी कांग्रेस के टॉम लेंटॉस मानवाधिकार आयोग के सामने भारत में मानवाधिकार की स्थिति पर चर्चा में कई वक्ताओं ने अपनी बात में इसका ज़िक़्र किया. जब 2017 में संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद ने भारत की सार्वभौमिक सामयिक समीक्षा (Universal Periodic Review) की तो वहां भी लातेहार में गौरक्षकों द्वारा दी गई फाँसी को प्रमुखता से चिन्हित किया गया. लेकिन अब तक न तो केंद्र सरकार और न ही झारखंड में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस घटना को ग़लत बताया है और गौरक्षकों की निंदी की है. मृतकों के परिजनों को अब तक कोई मुआवज़ा भी नहीं मिला है.
निर्विवाद तथ्य
गौरक्षकों द्वारा अन्य हत्याओं की तरह इस घटना के भी चश्मदीद गवाह मौजूद हैं. बयानात से निम्न बातें साफ़ हैं:
- तीन लोगों ने अपराध को घटते हुए देखा
- चश्मदीद गवाह हत्या के कई आरोपियों को बाक़ायदा नाम और चेहरे से पहचानते थे
- हत्या से दिनों पहले आरोपियों ने पीड़ितों को धमकी दी थी कि मवेशियों की ख़रीद–फरोख़्त का काम बंद कर दें नहीं तो जान से मार देंगे
चश्मदीद गवाही और ठोस सबूत होने के बावजूद पुलिस ने ढंग से जाँच नहीं की. दोषियों के ख़िलाफ़ उचित आरोप भी नहीं लगाए. नतीजा ये कि केस कमज़ोर हो गया और आरोपी झारखंड उच्च न्यायालय से ज़मानत पर रिहा हो गए.
चश्मदीद गवाहों के बयान
लातेहार डबल मर्डर कांड के तीन चश्मदीद हैं: मज़लूम अंसारी के छोटे भाई मनुव्वर अंसारी, इम्तियाज़ ख़ान के पिता आज़ाद ख़ान, और मज़लूम अंसारी और आज़ाद ख़ान के बिज़नेस पार्टनर, मोहम्मद निज़ामुद्दीन. जब मुंह अंधेरे मज़लूम और इम्तियाज़ बैल लेकर घर से पैदल निकले थे तो निज़ामुद्दीन मोटरसाइकिल से साथ निकले थे. आज़ाद ख़ान भी अपनी मोटरसाइकिल पर मज़लूम और इम्तियाज़ के निकलने के आधे घंटे बाद निकले थे. मौक़ा–ए–वारदात पर निज़ामुद्दीन और आज़ाद अलग–अलग पहुंचे थे. तब तक गौरक्षक मज़लूम और इम्तियाज़ का अपहरण कर उनके बैल चोरी कर चुके थे.
घबराकर निज़ामुद्दीन ने वहाँ से भाग कर मज़लूम के भाई मनुव्वर को फ़ोन किया था और मनुव्वर फ़ौरन वहाँ के लिए रवाना हो गए. मनुव्वर और आज़ाद ख़ान ने जो देखा वो रोंगटे खड़े कर देने वाला था. गौरक्षकों ने मज़लूम और इम्तियाज़ को पीट–पीटकर कर, दोनों के गले में रस्सी बाँधकर पेड़ से लटका दिया था. तब तक निज़ामुद्दीन भी वापस आ चुके थे और उन्होंने भी छुप कर पूरी वारदात को देखा था.
मुनव्वर अंसारी:
मनुव्वर के मुताबिक जब हत्या के बाद तक़रीबन 7 बजे सुबह पुलिस मौक़ा–ए–वारदात पर पहुँची तो उन्होंने तुंरत पुलिस को आँखों–देखा बयान किया. लेकिन पुलिस ने लिखित में कुछ नहीं दर्ज किया. मनुव्वर ने इस बात को दोबारा अदालत के सामने नवंबर 2017 में बताया. (सभी चश्मदीदों ने अदालत में इस बात की तसदीक़ की थी कि पुलिस लगभग सात बजे सुबह घटनास्थल पर पहुँची थी. लेकिन एफ़आईआर में समय काफ़ी देर बाद का लिखा गया.)
मनुव्वर ने अदालत में आठ में से पाँच आरोपियों को नाम के साथ पहचाना: अरुण साव, मिथिलेश उर्फ़ बंटी साहू, मनोज साहू, अवधेश साव, और विशाल तिवारी. मनुव्वर ने कहा मनोज साहू उसका शिक्षक रह चुका था. मनुव्वर ने यह भी कहा कि वो बाक़ी के तीन आरोपियों का नाम नहीं जानता लेकिन शक्ल से पहचानता है. मनुव्वर ने बताया कि उनके भाई मज़लूम ने घर बनाने के लिए बंटी साहू की दुकान से सीमेंट ख़रीदा था.
आज़ाद ख़ान:
इम्तियाज़ के पिता आज़ाद के पैर की हड्डी ढाई साल पहले टूट गई थी. उसके बाद उन्होंने इम्तियाज़ से मवेशियों को हाट ले जाने के काम में मदद लेनी शुरू की. घटना के दिन उनका बेटा इम्तियाज़ और बिज़नेस पार्टनर मज़लूम सुबह ढाई बजे आठ बैलों के साथ हाट के लिए निकले थे. इन आठ में से दो बैल आज़ाद ख़ान के थे. हाट के लिए इनके निकलने के थोड़ी देर बाद ही आज़ाद भी अपनी मोटरसाइकिल से उनके पीछे–पीछे निकले थे.
जनवरी 2017 में अदालत के सामने दिए अपने बयान में आज़ाद ने कहा कि एक जगह उन्होंने सभी आठ बैलों को घास चरते देखा लेकिन वहाँ मज़लूम और इम्तियाज़ नहीं दिखे. ठीक उसी समय आज़ाद को इम्तियाज़ के चिल्लाने और मदद की गुहार लगाने की आवाज़ सुनाई पड़ी. जब वो आवाज़ का पीछा करते हुए आगे बढ़े तो देखा कि पिस्तौल और अन्य हथियारों से लैस कुछ लोग मज़लूम और इम्तियाज़ की बुरी तरह से पिटाई कर रहे हैं.
अदालत में आज़ाद ने बताया—“मैं झाड़ियों में छुप गया. मैंने देखा अरुण साव एक पेड़ पर चढ़ा और उसने ऊपर एक रस्सी बाँध दी. फिर नीचे खड़े उसके साथी मज़लूम और इम्तियाज़ के शरीर को ऊपर की तरफ़ धक्का देने लगे.”
मोहम्मद निज़ामुद्दीन:
घटना के दिन निज़ामुद्दीन ने पुलिस को वही बताया जो मनुव्वर ने बताया था. घटना को अंजाम देने वाले विनोद प्रजापति नाम के एक और शख़्स की निज़ामुद्दीन ने पहचान की. वो लातेहार में बीजेपी नेता है. निज़ामुद्दीन जब घटनास्थल पहुँचे तो प्रजापति बैलों के पास खड़ा था. निज़ामुद्दीन को देख वो चिल्लाकर बोला इसे पकड़ो, यही है असली मवेशी व्यापारी. “ये सुनते ही मैं वहां से भाग खड़ा हुआ.” उन्होंने मज़लूम के भाई मनुव्वर को फ़ोन किया. थोड़ी देर बाद निज़ामुद्दीन फिर घटनास्थल पर पहुँचे.
अन्य गवाह
नजमा बीबी:
घटना के दो दिन बाद, 20 मार्च 2016 को, इम्तियाज़ की माँ नजमा बीबी ने जाँच अधिकारी सब–इंस्पेक्टर अजय कुमार को दिए बयान में कहा कि उनका बेटा इम्तियाज़ बताता था कि सभी आठ आरोपी — मिथिलेश (बंटी) साहू, मनोज कुमार साहू, अवधेश साव, प्रमोद साव, मनोज साहू, अरुण साव, सहदेव सोनी और विशाल तिवारी — उसको धमकी देते थे कि मवेशियों का काम छोड़ दो नहीं तो जान से मार देंगे.
नजमा बीबी और मज़लूम की बेवा सायरा बीबी के बयानों से साफ़ है कि आरोपी न सिर्फ़ पीड़ितों को जानते थे बल्कि लंबे समय से जान से मार डालने की अपनी मंशा को ज़ाहिर कर रहे थे.
सायरा बीबी:
वारदात की जानकारी मिलने के तुरंत बाद ही मज़लूम अंसारी की पत्नी सायरा बीबी भी मौक़ा–ए–वारदात पर पहुँचीं. वारदात के एक दिन बाद, 19 मार्च को, उन्होंने पुलिस को बयान दिया कि लगभग एक–डेढ़ महीने पहले कई सारे लोग उनके घर आए थे और उनके शौहर को खुलेआम धमकी दे कर गए थे कि मवेशी का धंधा छोड़ दो नहीं तो जान से मार देंगे. धमकी देने वालों के जो नाम उन्होंने पुलिस को बताए वही आरोपी बाद में गिरफ़्तार भी किए गए.
नईमुद्दीन:
मज़लूम अंसारी के ससुर और सायरा बीबी के पिता नईमुद्दीन ने घटना के दो दिन बाद, 20 मार्च 2016 को, सब–इंस्पेक्टर अजय कुमार को बताया कि सभी आठ आरोपी मज़लूम को लगातार धमकी देते थे कि मवेशियों का काम छोड़ दो नहीं तो जान से मार डालेंगे.
स्पष्ट पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट
चश्मदीद गवाहों के बयानात के अलावा एक और मज़बूत साक्ष्य है जो यह साबित करने में पूरी तरह सक्षम है कि मज़लूम और इम्तियाज़ के साथ क्या हुआ था. यह है पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट. दोनों मृतकों की पोस्टमॉर्टम रिपोर्टों में साफ़ लिखा है कि फाँसी पर लटकाने से पहले पीड़ितों को बुरी तरह मारा–पीटा गया था. शव परीक्षण करने वाले सरकारी डॉक्टर, डॉ. लक्ष्मण प्रसाद और डॉ. एस के सिंह, ने स्पष्ट रूप से अपनी टिप्पणी में लिखा है: “लोहे के लंबे धारदार रॉड को हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया है और दोनों के शरीर पर इससे हमला किया गया है.”
इम्तियाज़ की रिपोर्ट में चोट के बारे में दोनों डॉक्टरों ने लिखा: “दाहिनी जाँघ, बाएं घुटने और दोनों कंधों पर नीले और काले रंग की चोट साफ़ दिखाई देती हैं…”
मज़लूम की चोट के बारे में डॉक्टरों ने लिखा: (2) दाहिनी बाँह और दाहिने कंधे की हड्डी के ऊपर चोट के निशान साफ़ दिखाई देते हैं जो आपस में मिल गए हैं (3) नीली–काली चोटें दाहिनी और बाईं जांघों पर दिखाई देती हैं (4) नीले और काले रंग का धब्बा बाईं बाँह के अंदरूनी हिस्से पर दिखाई देते हैं.”
डॉक्टरों ने लिखा कि दोनों की मौत “फाँसी पर लटकाए जाने की वजह से और दम घुटने से हुई है”. दोनों के गलों के पास के निशानों से स्पष्ट होता है कि दोनों की गरदनों में रस्सी या रस्सी जैसा कुछ बांधा गया था.
पुलिस का षड्यंत्र
चश्मदीद गवाही और पोस्टमॉर्टम के आधार पर पुलिस को इस मामले में इन बिन्दुओं पर जाँच करनी चाहिए थी:
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- आरोपियों द्वारा की गई हत्याएँ सुनियोजित तरीक़े से की गई थी, क्योंकि आरोपी मज़लूम और इम्तियाज़ को पहले से जानते थे और जान से मारने की धमकी घटना से पहले देते रहे थे
- आरोपियों ने हत्याओं के लिए साज़िश रची थी
- आरोपियों में से कम से कम एक ऐसा है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी से जुड़ा हुआ है. इसी पार्टी की झारखंड में सरकार है
- हमलावर पिस्तौल और धारदार रॉड इत्यादि से लैस थे
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पुलिस ने घटना में कमसेकम एक गौरक्षक के शामिल होने की बात मानी. लेकिन साथ ही ये भी कहा कि ये गोहत्या नहीं बल्कि गैंग द्वारा मवेशी लूटने की वारदात थी. हत्या में गौरक्षकों के शामिल होने की जाँच करने के बजाय घटना के तीन ही दिन बाद द इंडियन एक्सप्रेस से इंटरव्यू में लातेहार के एसपी अनूप बरथारे ने कहा कि मृतकों के घरवालों ने भी किसी ख़ास संगठन पर आरोप नहीं लगाया है.
एफ़आईआर से शुरू हुआ गौरक्षकों को बचाने का काम
हत्या की जाँच को लेकर पुलिस का रवैया घटना के बाद से ही उदासीन रहा. घटना को अंजाम सुबह 3.30 से 6 बजे के बीच दिया गया, जबकि पुलिस ने एफ़आईआर सत्रह घंटे बाद रात को 10.47 मिनट पर दर्ज किया. हैरानी की बात यह है कि पोस्टमॉर्टम तक एफ़आईआर दर्ज करने से पहले हो गया. अब तक पुलिस ने एफ़आईआर में देरी के कारण नहीं बताए हैं. अगस्त 2016 में जब मामले की सुनवाई कोर्ट में होने लगी तब भी न तो अभियोजन पक्ष ने और न ही मामले की सुनवाई कर रहे जज ने इस बड़ी चूक पर सवाल पूछे.
एफ़आईआर में लिखा है कि पुलिस को घटना की पहली जानकारी सुबह 11 बजे निज़ानुद्दीन से मिली. लेकिन कोर्ट में दिए कागज़ात में जाँच अधिकारी सब–इंस्पेक्टर अजय कुमार ने लिखा है कि निज़ामुद्दीन का बयान सुबह 9.30 बजे दर्ज किया. यानी जाँच अधिकारी और एफ़आईआर में डेढ़ घंटे की गड़बड़ी है. और अगर ये मान भी लिया जाए कि पहली जानकारी सुबह 11 बजे मिली तो पुलिस ने अपनी डायरी में इसे रात 10.16 पर क्यों दर्ज किया?
निज़ामुद्दीन के बयान के प्रति पुलिस का रवैया संदेहास्पद है. जैसा कि पहले बताया गया है निज़ामुद्दीन ने पुलिस को दिए अपने बयान में स्थानीय बीजेपी नेता विनोद प्रजापति का नाम लिया था. उन्होंने दावा किया था कि मज़लूम और इम्तियाज़ को पेड़ से लटकाकर फाँसी देने में विनोद प्रजापति और उसके आदमी ही शामिल थे.
ज़ाहिर है निज़ामुद्दीन के बयान की वजह से ही पुलिस ने एफ़आईआर में प्रजापति का नाम डाला था. मज़लूम के भाई मनुव्वर और इम्तियाज़ खान के पिता आज़ाद ने अपने बयानों में दूसरे हमलावरों का भी ज़िक़्र भी किया था लेकिन पुलिस ने सिर्फ़ प्रजापति का नाम एफ़आईआर में दर्ज किया.
घटना को हुए दो साल गुज़र गए हैं लेकिन पुलिस ने प्रजापति से अब तक न को कोई पूछताछ की है और न ही उसको गिरफ़्तार किया है. चार्जशीट का कहना है कि अब तक की जाँच के आधार पर प्रजापति के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिले हैं और उसके अपराध में शामिल होने की जाँच अब भी जारी है. एफ़आईआर में अब भी प्रजापति का नाम दर्ज है. मुक़दमा शुरू हुए बीस महीने हो चुके हैं लेकिन अब तक अभियोग पक्ष ने प्रजापति की जाँच पूरी नहीं की है.
चौंकाने वाले इक़बालिया बयान
मई 2016 में पुलिस ने अदालत में चार्जशीट दाखिल की. उसमें सभी आठ आरोपियों ने बयान दिए कि वारदात को अंजाम इन्होंने ही दिया है. न सिर्फ़ ये बल्कि इन आठ आरोपियों ने यह भी विस्तार से बताया कि किस तरह घंटों पहले से तैयारी करके घटना को अंजाम देने की योजना बनाई.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) के मुताबिक़ पुलिस के सामने दिए इक़बालिया बयान सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं है. ऐसे बयान तभी सबूत माने जाते हैं जब इन्हें दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 164 के तहत किसी मजिस्ट्रेट के सामने रिकॉर्ड कराया जाता है. इसके बावजूद पुलिस ने इन सभी आरोपियों के बयानों को मजिस्ट्रेट के सामने नहीं दर्ज कराया.
मनोज कुमार साहू का इक़बालिया बयान:
घटना के अगले दिन गिरफ़्तार किए जाने वाले मनोज कुमार साहू (30 वर्ष) पहले एक स्कूल शिक्षक थे और बाद में मैनेजर बन गए. मनोज कुमार ने बताया कि उनके हमनाम मनोज साहू ने उन्हें गौरक्षक दल में शामिल किया. मनोज कुमार ने पुलिस को बताया कि इस हत्याकांड के सभी आरोपी इस दल के सदस्य थे.
घटना के पहले भी इन लोगों ने दो–तीन बार और मुसलमानों से मवेशी छीनने का काम किया था. घटना के दिन सुबह 3.30 बजे मिथिलेश उर्फ़ बंटी साहू ने मनोज कुमार को फ़ोन किया और बताया कि मज़लूम और इम्तियाज़ मवेशी लेकर जा रहे हैं. जब मनोज कुमार मौक़े पर पहुँचा तो वहाँ सहदेव सोनी, विशाल तिवारी, बंटी साहू और अवधेश साव पहले से थे. इन लोगों ने इम्तियाज़ और मज़लूम का पीछा किया और थोड़ी दूर जाने के बाद रोक लिया.
अरुण साव ने मनोज कुमार और तीन और लोगों को आदेश दिया कि वो इनके मवेशी छीन कर जंगल में आगे ले जाकर बाँध दें. इसी समय अरुण साव और मनोज साहू (मनोज कुमार के हमनाम) ने मज़लूम और इम्तियाज़ के हाथों को पीछे करके बाँध दिया और मोटरसाइकिल पर बिठाकर ले गए.
मनोज कुमार और तीन और लोग जब मवेशी पेड़ से बाँधकर लौटे तो अरुण साव और मनोज साहू ने उनको रास्ते में बताया कि दोनों मुसलमानों को पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दिया.
अवधेश साव का इक़बालिया बयान:
अवधेश साव (32 वर्ष) घर से सुबह 3.30 बजे शौच के लिए निकला. उसी समय उसने देखा कि दो लोग मवेशी लेकर जा रहे हैं. उसने तुरंत मनोज साहू (मनोज कुमार साहू नहीं) को फ़ोन किया. इसके थोड़ी ही देर बाद सभी लोग मौक़े पर पहुँचे और दोनों मुसलमान लोगों को अगवा कर लिया.
इसके बाद अवधेश साव ने भी वही सारी बातें बताईं जो मनोज कुमार ने अपने बयान में कही थीं. अवधेश ने यह भी बताया कि मज़लूम और इम्तियाज़ की पिटाई और हत्या से पहले अरुण साव ने उन्हें कहा था कि हमें कुरैश (मुसलमानों में क़साई का काम करने वाली जाति) से बदला लेना चाहिए क्योंकि वो मवेशियों को बेचते हैं. अवधेश ने यह भी माना कि उनका ग्रुप पहले भी मुसलमानों को परेशान करता रहा है और उनके मवेशियों को जबरन छीनकर या चुराकर हाट में बेच देता रहा है या फिर जंगलों में छोड़ देता रहा है.
प्रमोद साव का इक़बालिया बयान:
प्रमोद साव (28 वर्ष) मज़लूम और इम्तियाज़ को पेड़ से लटकाकर फाँसी देने वालों में से था. प्रमोद सो रहा था जब उसे फ़ोन आया. फिर वो भी मौक़े पर पहुँचा. प्रमोद ने अपने बयान में बताया कि वो दो में से एक मोटरसाइकिल पर, जिनपर मज़लूम और इम्तियाज़ को पेड़ से लटकाने के लिए ले जाया गया था, पीछे बैठा था. मज़लूम और इम्तियाज़ के हाथ पीछे करके बँधे थे. प्रमोद के बयान से साफ़ होता है कि अरुण साव ने रस्सी को पेड़ से बाँधा था जबकि ख़ुद प्रमोद साव और सहदेव सोनी ने दोनों मुसलमानों को नीचे से धक्का देकर ऊपर उठाया ताकि फाँसी दी जा सके.
मनोज साहू का इक़बालिया बयान:
मनोज साहू (27 वर्ष) (मनोज कुमार साहू नहीं) उन आरोपियों में से एक था जिसने मज़लूम और इम्तियाज़ को फाँसी पर लटकाया था. मनोज साहू को सुबह तीन बजे फ़ोन आया जब वो घर पर सो रहा था. फिर वो मौक़े पर पहुँचा और अन्य सदस्यों से मिला. उसने अपने बयान में एक नई बात जोड़ी कि छह महीने पहले कुछ कुरैशियों ने अरुण साव के साथ मारपीट की थी. उसके बाद से ही अरुण बदला लेने की कोशिश में था.
मज़लूम को मनोज साहू की मोटरसाइकिल पर बिठाया गया और पेड़ के पास लाया गया, जहाँ वारदात को अंजाम दिया गया. मनोज साहू ने पुलिस को बताया कि मुसलमानों की पिटाई के बाद अरुण साव ने मज़लूम का गला घोंट दिया और बाक़ी लोगों को कहा कि वो इम्तियाज़ पर नज़र रखें जबतक वो रस्सी लेकर आता है. वो रस्सी लेकर आया और उसे मज़लूम की गरदन पर बाँध कर पेड़ की एक शाख़ से बाँध दिया. उसके बाद उसने दूसरों से कहा वो शव को ऊपर धक्का दें. फिर इम्तियाज़ को भी फाँसी पर लटका दिया.
मिथिलेश उर्फ़ बंटी साहू का इक़बालिया बयान:
मिथिलेश उर्फ़ बंटी (22 वर्ष) एक सीमेंट व्यापारी है. ऊपर की सभी बातों को जोड़ते हुए मिथिलेश ने पुलिस को बताया कि मनोज साहू ने उसको गौरक्षक दल में शामिल करवाया था. बंटी के अनुसार मनोज साहू ने उसको बताया कि कुरैशियों ने अरुण साव को मारा पीटा है और अरुण साव बदला लेने की ताक में है.
अरुण साव का इक़बालिया बयान:
अरुण साव (35 वर्ष) इस ग्रुप का नेता था. उसने अपने बयान में खुलासा किया कि वो 2005 में पाँच महीने डकैती के आरोप में जेल में रहा था. अगले साल फिर से डकैती के लिए ग्यारह महीने जेल में रहा. वह गौरक्षक दल में 2012 से है और दो बार मवेशियों का व्यापार करने वाले मुसलमानों के साथ मारपीट के मामले में जेल भी जा चुका है. ग़ैरक़ानूनी तरीके से अपने ट्रक में कोयला ले जाने के लिए भी वो जेल जा चुका है.
अरुण साव ने बताया कि कुछ कुरैशी लोगों को साथ मारपीट के बाद उसने बदला लेने के लिए गौरक्षक दल बनाया. 18 मार्च 2016 को मनोज साहू ने अरुण साव को सुबह साढ़े तीन बजे फ़ोन किया और बताया कि मज़लूम और इम्तियाज़ मवेशियों के साथ जा रहे हैं. अरुण साव ने तुरंत अपने दल के लोगों को मौके पर पहुँचने को कहा और मज़लूम और इम्तियाज़ को कब्ज़े में कर लिया. उसने पुलिस को बताया— “मैंने मिथिलेश उर्फ़ बंटी साहू, मनोज कुमार साहू, अवधेश साव और विशाल तिवारी को कहा कि वो सभी आठ बैलों को जंगल की तरफ़ ले जाएँ.”
अरुण साव ने मज़लूम के हाथ पीछे बाँध दिए और उसे अवधेश साव की मोटरसाइकिल पर बिठा दिया. अरुण साव ने प्रमोद साव को मज़लूम के पीछे बैठने को कहा. इस तरह तीनों एक मोटरसाइकिल पर बैठ गए. इम्तियाज़ के हाथ पीछे बाँध कर उसको दूसरी मोटरसाइकिल पर मनोज साहू के साथ बिठाया और पीछे सहदेव सोनी को बैठने को कहा. मनोज साहू मोटरसाइकिल लेकर पेड़ के पास पहुँचा. इसके बाद मज़लूम और इम्तियाज़ की जमकर पिटाई की गई.
“मैंने मज़लूम का गला घोंट दिया जिससे उसकी मौत हो गई,” अरुण साव ने अपने बयान में बताया. इसके बाद वो पास के गाँव में रस्सी लेने के लिए गया. जब लौटा तो पता चला कि प्रमोद साव ने इम्तियाज़ का गला घोंट कर मार दिया था. इसके बाद मौजूद सभी लोगों की मदद से दोनों को पेड़ से लटका दिया. फिर सब अपने–अपने घर चले गए.
सहदेव सोनी और विशाल तिवारी के इक़बालिया बयान:
सहदेव सोनी (20 वर्ष) और विशाल तिवारी (34 वर्ष) ने बाक़ी छह आरोपियों के बयानों की पुष्टि की. इन्होंने भी ये बताया कि पेड़ पर लटकाने से पहले अरुण साव ने मज़लूम और प्रमोद साव ने इम्तियाज़ का गला घोंट दिया था.
लगाई गई आईपीसी धाराएँ
मनुव्वर, आज़ाद ख़ान और निज़ामुद्दीन के पुख़्ता बयान, आरोपियों के इक़रारनामे, और पोस्टमॉर्टम के रूप में सही और ठोस सबूत होने के बावजूद पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की सिर्फ़ तीन धाराओं के आधार पर एफ़आईआर दर्ज किया. यहाँ तक की उन्होंने दो महीने की जाँच के बाद भी चार्जशीट में कुछ नया नहीं जोड़ा.
हत्या के आरोप में लगाई जाने वाली धारा 302 में आरोपियों को बेल नहीं दी जाती है. इसके बावजूद इस मामले में गिरफ़्तार सभी आठ मुलज़िमों को झारखंड उच्च न्यायालय से ज़मानत मिल गई क्योंकि पुलिस ने दाखि़ल चार्जशीट में लगाए गए आरोपों को काफ़ी कमज़ोर बना दिया. साथ ही अभियोग पक्ष आरोपी की ज़मानत की अर्ज़ी के ख़िलाफ़ मज़बूती से अपनी बात रखने में नाकाम रहा. आरोपी को ज़मानत मिलने के 18 महीने बाद भी झारखंड सरकार ने ज़मानत रद्द करने के लिए अब तक सुप्रीम कोर्ट में कोई अपील नहीं की है.
नज़रअंदाज़ की गई आईपीसी धाराएँ
पुलिस की सही जाँच से अभियोग पक्ष का केस मज़बूत हो गया होता. इम्तियाज़ के पिता आज़ाद और माँ नजमा, और मज़लूम की विधवा सायरा के बयानों से हत्या की साज़िश की बात पुख़्ता होती है. लेकिन इससे जुड़ी उचित धाराएँ चार्जशीट में नहीं लगाई गईं. दरअसल पुलिस ने आईपीसी की कई ऐसी धाराओं को जिन्हें लगाना चाहिए था न एफ़आईआर में और न ही चार्जशीट में शामिल किया. आईपीसी की धाराएँ जो नहीं लगाई गईं वो हैं:
अपराध की साज़िश / IPC 120B
हैरानी की बात है कि लातेहार पुलिस ने न एफ़आईआर और न चार्जशीट में आईपीसी की धारा 120B लगाई. ये तब जबकि सभी आरोपियों ने साफ़–साफ़ क़ुबूल किया था कि उन्होंने हमले और हत्या की पूर्व योजना बनाई थी, और सायरा और नजमा ने भी पुलिस को बताया था कि घटना से पहले आरोपियों ने मज़लूम और इम्तियाज़ को जान से मारने की धमकी दी थी. झारखंड के ही रामगढ़ ज़िले में गौरक्षकों द्वारा अलीमुद्दीन अंसारी नाम के एक मुसलमान की 2017 में हत्या के मामले में एफ़आईआर और चार्जशीट दोनों में आईपीसी धारा 120B लगाई गई थी. उस मुक़दमें में इस साल 16 मार्च को अदालत ने 11 आरोपियों को हत्या का दोषी पाते हुए उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई. इनमें से तीन आरोपियों को, जिनमें एक बीजेपी का नेता भी है, धारा 120B के तहत भी दोषी पाया गया.
अपहरण / IPC 362
चश्मदीद गवाही के मुताबिक जब मज़लूम और इम्तियाज़ मवेशी लेकर हाट जा रहे थे तो आरोपियों ने उन्हें रोका और अगवा कर के लगभग दो किलोमीटर दूर ले गए. उसके बाद उनकी जमकर पिटाई की और पेड़ से लटकाकर मार डाला. फिर भी पुलिस ने आरोपियों के ख़िलाफ़ अपहरण की धारा 362 नहीं लगाई.
हमला, आपराधिक बल से किसी को जबरन रोकना / IPC 357
चश्मदीद गवाहों ने अपने बयान में बताया था कि आरोपियों ने दोनों पीड़ितों को बुरी तरह पीटा था. निज़ामुद्दीन और आज़ाद ख़ान ने बयान दिया था कि इम्तियाज़ चीख़ कर मदद की गुहार लगा रहा था. मनुव्वर ने विस्तार से बताया था कि हमलावरों ने दोनों पीड़ितों की बुरी तरह पिटाई की. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से भी यह बात साबित होती है कि दोनों को पीड़ितों के शरीर पर पिटाई के निशान साफ़ दिखाई दे रहे थे. लेकिन न एफ़आईआर और न चार्जशीट में आईपीसी धारा 357 लगाई गई जो हमले और आपराधिक बल से संबंधित है.
ग़लत तरीक़े से प्रतिबन्धित करना / IPC 342
आईपीसी धारा 357 के साथ जोड़ते हुए ग़लत तरीके से प्रतिबंधित करने के अपराध वाली धारा 342 को भी एफ़आईआर और चार्जशीट में लगाया जाना चाहिए था.
ख़तरनाक हथियार से हमला करके चोट पहुँचाना/ IPC 324
इम्तियाज़ के पिता आज़ाद ख़ान ने बयान में कहा था कि उन्होंने आरोपियों के पास अन्य हथियारों के अलावा कम से कम एक रिवॉल्वर देखा था. इस बात का ज़िक्र पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में भी किया गया था कि पीड़ितों पर लंबे, मज़बूत और धारदार लोहे के रॉड से हमला किया गया है. लेकिन पुलिस ने इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया और यही कारण है कि उसने धारा 149 को एफ़आईआर और चार्जशीट में नहीं शामिल किया.
समान तौर पर दोषी / IPC 143, 149
एफ़आईआर और चार्जशीट में धारा 143 भी नहीं लगाया जो उन आरोपियों के लिए है जो ग़ैरक़ानूनी जमावड़े का हिस्सा बनते हैं. साथ ही धारा 149 भी नहीं लगाई जो ये कहती है कि ऐसी भीड़ का “हर व्यक्ति अपराध का बराबर दोषी होता है चाह वो अपराध भीड़ के किसी भी व्यक्ति ने किया हो”.
धार्मिक द्वेष को बढ़ावा देना / IPC 153A
एफ़आईआर और चार्जशीट में धारा 153A को भी नहीं लगाया. ये धारा “धर्म के आधार पर दो समुदायों के बीच दुश्मनी बढ़ाने” का अपराध तय करती है. शुरू से ही पुलिस ने मज़लूम और इम्तियाज़ की हत्या को गौरक्षा से अलग दिखाने की कोशिश की है. लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है दोनों की हत्या सिर्फ़ इसलिए हुई कि वो मुसलमान थे और मवेशी का धंधा करते थे. सायरा बीबी और नजमा बीबी ने भी अपने बयान में साफ़ कहा है कि आरोपियों ने मज़लूम और इम्तियाज़ को धमकी दी थी कि मवेशी बेचने का धंधा छोड़ दें वरना उनको जान से मार देंगे.
डकैती / IPC 396, 397, 399, 402
ये बात तय है कि कि जब मज़लूम और इम्तियाज़ हाट जा रहे थे से तो सभी हमलावरों ने उनसे उनके आठ बैल लूट लिए थे. ये मवेशी मज़लूम, निज़ामुद्दीन और आज़ाद ख़ान ने क़ानूनन ख़रीदे थे और इस विक्रय की रसीद भी उनके पास थी. चूंकि हमलावर संख्या में पाँच से ज़्यादा थे इसलिए इस में डकैती का मामला दर्ज होता है. (टेबल 2)
अगर यह जाँच धारा 120B के तहत होती तो स्थापित हो जाता कि हमला पूर्वनियोजित था और हमलावरों की मंशा हथियार के बल पर मवेशी लूटने की और दोनों मुसलमानों की हत्या करने की थी. क्योंकि न धारा 120B लगाई और न डकैती की धारा लगाई, मुक़दमे को पुलिस और अभियोग पक्ष ने कमज़ोर कर दिया और आरोपियों को बचाने का काम किया.
वारदात के एक दिन बाद, 19 मार्च 2016 को, मिथिलेश साहू के बयान के आधार पर पुलिस ने दो बैलों को बरामद करने में सफलता पाई थी. यह साफ़ दर्शाता है कि बैलों को मज़लूम और इम्तियाज़ से चोरी किया गया था. इसलिए डकैती की धाराएँ लगाई जानी चाहिए थीं.
इंसाफ़ का रास्ता
इस बात की मांग की जाती है लातेहार पुलिस और अभियोग पक्ष निम्नलिखित पहलुओं को गंभीरता से उठाए जिससे न्याय सुनिश्चित हो सके: