राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार-पुरुष और दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरूजी ने संघ की पहली राजनीतिक संतान यानी भारतीय जनसंघ के जन्म के समय कहा था- ‘जनसंघ हमारे लिए गाजर की पिपहरी (पुंगी) के समान है। वह बजेगी तब तक बजाएंगे, नहीं तो उसे चबा कर हजम कर जाएंगे।’ दरअसल, गोलवलकर हमेशा संघ को राजनीति से ऊपर मानते थे। उन्होंने जनसंघ की स्थापना के समय राजनीति में जाने वाले स्वयंसेवकों और प्रचारकों से भी दो टूक कहा था- ‘आप चाहे जितनी ऊंचाई पर पहुंच जाएं, आपको लौटकर जमीन (संघ) पर ही आना पडेगा।’
गोलवलकर ने जैसा कहा, मौका आने पर वैसा किया भी। इस सिलसिले में जनसंघ के संस्थापकों में शुमार किए जाने वाले अपने समय के कद्दावर नेता प्रो. बलराज मधोक को पहली और सबसे बडी मिसाल माना जा सकता है। बलराज मधोक ने जनसंघ का अध्यक्ष रहते हुए कुछ मामलों में थोडी स्वायत्तता लेते हुए संघ के निर्देशों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया तो पहले उन्हें अध्यक्ष पद से हटाया और फिर पार्टी से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। दूसरा बडा उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी का है। जब तक आडवाणी संघ की रीति-नीति के अनुरूप चलते रहे, संघ की आंखों के तारे बने रहे, लेकिन जैसे ही उन्होंने दूसरे गैर-कांग्रेसी दलों में अपनी स्वीकार्यता बनाने-बढाने के लिए अपने उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों को ढीला कर उदार दिखने की कवायद शुरू की, संघ ने उन्हें अपनी नजरों से उतार दिया। पहले उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से और फिर थोडे समय बाद संसदीय दल के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। फिर उनके ऐतराज को सिरे से खारिज करते हुए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर उन्हें एक तरह से सक्रिय राजनीति से ही चलता कर दिया। यद्यपि आडवाणी आज भी भाजपा में हैं और लोकसभा के सदस्य भी, कई सार्वजनिक मौकों पर भी वे अपनी बेचारगी भरी उपस्थिति भी दर्ज कराते हैं लेकिन कुल मिलाकर हैं तो अकेलेपन के शिकार ही।
अब पिछले दिनों पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हुई हार के मद्देनजर राजनीतिक हलकों में कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या संघ नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का विकल्प तलाश रहा है? इस तरह के कयासों को जन्म दिया है संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन राव भागवत, उनके बेहद विश्वस्त समझे जाने वाले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और संघ के ही एक पूर्व प्रचारक किशोर तिवारी के बयानों ने।
इन बयानों को अगर गोलवलकर के उपरोक्त कथनों की रोशनी में देखा जाए तो स्थिति बहुत हद तक साफ हो जाती है कि अब संघ और भाजपा में मोदी और अमित शाह को लेकर स्थिति सामान्य नहीं है। सवाल है कि क्या पिछले साढे चार साल के दौरान अपनी हिकमत अमली से भाजपा को राजनीतिक सफलता के शिखर पर पहुंचा देने वाले इन दोनों नेताओं को मौका आने पर संघ नेतृत्व अपने गुरू गोलवलकर के शब्दों में ‘गाजर की पिपहरी’ बना सकता है?
हाल ही में जैसे ही पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे आए और भाजपा तीन राज्यों में सत्ता से बेदखल हुई, संघ और भाजपा के भीतर मोदी और शाह के खिलाफ असंतोष के स्वर मुखर हो उठे हैं। इस सिलसिले में सबसे पहले संघ के प्रचारक रहे महाराष्ट्र के चर्चित किसान नेता किशोर तिवारी ने कहा है कि 2019 में अगर भाजपा जीतना चाहती है तो उसे मोदी की जगह नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाना चाहिए। ‘वसंतराव नाईक शेती स्वावलंबन मिशन’ (वीएनएसएसएम) के चेयरमैन किशोर तिवारी ने संघ प्रमुख मोहन भागवत और सरकार्यवाह भैयाजी सुरेश जोशी को पत्र लिखकर कहा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की हार का कारण ‘अहंकारी नेतृत्व’ है, जिसने नोटबंदी, जीएसटी, ईंधन के दामों में वृद्धि और दूसरे विनाशकारी-जनविरोधी फैसले लागू किए। उन्होंने आगे लिखा, ‘ऐसे नेता जो पार्टी और सरकार में तानाशाही दृष्टिकोण रखते हैं, वह समाज और देश के लिए खतरनाक है… यह पहले भी देखा जा चुका है। आगे इतिहास न दोहराया जाए, इसलिए 2019 के चुनाव के लिए पार्टी की बागडोर गडकरी को सौंप देनी चाहिए।’
अपने पत्र में तिवारी ने मोदी और अमित शाह पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारों द्वारा किए गए अच्छे कामों पर पानी फेरने का आरोप लगाते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि उन्हें (मोदी-शाह) सिर्फ बुलेट ट्रेन और मेट्रो प्रोजेक्ट में ही दिलचस्पी है। किशोर तिवारी ने पत्र में लिखा है- ‘मोदी और शाह ने देश में भय और कटुता पैदा करने का काम किया है। उनकी जगह गडकरी जैसा स्वीकार्य और सभ्य नेता होना जरुरी है, जो सभी को साथ लेकर चल सकते हैं।’
किशोर तिवारी का यह पत्र सार्वजनिक होने के बाद ही नितिन गडकरी ने एक के बाद एक बयान देकर मोदी और शाह का नाम लिए बगैर उनकी नेतृत्व क्षमता और कामकाज के तौर तरीकों पर सवाल उठा दिए। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के संदर्भ में उन्होंने कहा- ‘चुनावों में जब जीत होती है तो उसके कई माई-बाप बन जाते हैं लेकिन पराजय अनाथ होती है, उसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेता। लेकिन उसके लिए जिम्मेदार होता है- पार्टी अध्यक्ष। यदि मैं पार्टी का अध्यक्ष हूं और मेरी पार्टी के सांसद और विधायक ठीक से काम नहीं करते तो उसके मैं ही जिम्मेदार होउंगा। आप सिर्फ भाषणों की जलेबियों उतारकर चुनाव नहीं जीत सकते। कुछ ठोस करके भी दिखाइए।’
प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में अक्सर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की निंदा-आलोचना करते रहते हैं, लेकिन गडकरी ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की वार्षिक भाषणमाला में बोलते हुए नेहरू की तारीफ की और कहा कि उन्हें नेहरू के भाषण बहुत पसंद हैं। गडकरी ने कहा कि एकता, विविधता और सहिष्णुता भारतीय संस्कृति का अंग है, इसके बगैर देश मजबूत नहीं हो सकता। कुल मिलाकर गडकरी ने यह बातें कहकर परोक्ष रूप से मोदी और शाह पर ही निशाना साधा। चूंकि संघ नेतृत्व से गडकरी की निकटता जगजाहिर है, लिहाजा पार्टी और सरकार में से किसी भी नेता या प्रवक्ता ने गडकरी की बातों का प्रतिवाद नहीं किया।
संघ नेता किशोर तिवारी और केंद्रीय मंत्री गडकरी के यह बयान बताते हैं कि भाजपा और संघ में अंदरखाने सब कुछ सामान्य नहीं है। संघ प्रमुख भागवत ने भी इसी महीने की तीन जनवरी को नागपुर में एक शिक्षण संस्थान में भाषण देते हुए कहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर अभी अनिश्चय की स्थिति है। यानी भागवत भी भाजपा की जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। वैसे मोदी को लेकर संघ में सुगबुगाहट करीब छह महीने पहले ही शुरू हो चुकी थी, जब भागवत ने नरेंद्र मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के आह्वान को सिरे खारिज करते हुए कहा था कि यह संघ की भाषा नहीं है, क्योंकि संघ का विश्वास ‘मुक्त’ में नहीं ‘युक्त’ में है। भागवत ने कहा था- ‘हमें राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सभी लोगों को शामिल करना है, उन लोगों को भी जो हमारे विरोधी हैं।’
उल्लेखनीय है कि ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए प्रचार करते हुए दिया था। उसके बाद से यह नारा एक तरह से पूरी भाजपा के लिए राजनीतिक मंत्र हो गया था। पार्टी अध्यक्ष से लेकर केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और दूसरे तमाम नेता हर सार्वजनिक सभा में यह मंत्रोच्चार करते रहते थे। खुद नरेंद्र मोदी संसद में, संसद के बाहर, और तो और विदेशी धरती पर भी लोगों को यह समझाने की कोशिश करना नहीं भूलते कि देश की सारी समस्याओं की जड कांग्रेस है, उसने साठ साल तक सत्ता में रहने के बावजूद कुछ नहीं किया, इसलिए भारत को कांग्रेस-मुक्त करना जरूरी है। इतना ही नहीं, मोदी अपनी अधकचरी पढाई-लिखाई और हास्यास्पद इतिहास-बोध के आधार पर यह भी कहते रहे कि महात्मा गांधी ने भी ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का सपना देखा था।
शुरू में तो संघ के किसी भी नेता ने मोदी के इस निहायत अलोकतांत्रिक और अहंकार की फुफकार भरे आह्वान से असहमति नहीं जताई, लेकिन इसी वर्ष जून में संघ प्रमुख भागवत ने मोदी के इस आह्वान और अभियान को सार्वजनिक तौर पर सिरे से खारिज कर दिया। संघ प्रमुख का बयान साफ तौर पर नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनके अहम सिपहसालार अमित शाह के लिए चिंताजनक ही नहीं, बल्कि अपमानजनक भी था क्योंकि देश पर 55 बरस तक एकछत्र राज करने वाली जिस कांग्रेस को महज चार साल में उन्होंने अपनी मेहनत और हिकमत से लगभग पैदल कर दिया, उसे उनके मातृ-पितृ संगठन का मुखिया बैठे-बिठाए राजनीतिक तौर पर ऑक्सीजन देने जैसी बात कर रहा था।
संघ सुप्रीमो का यह बयान और हाल ही में आए गडकरी और तिवारी के बयान बेशक गंभीर निहितार्थों से भरे रहे हैं, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि भागवत और मोदी की जुगलबंदी टूटने लगी है और संघ मोदी का विकल्प तलाशने लगा है। मोदी, शाह और भागवत समेत समूचे संघ के कोरस-गान में अब भी कोई सुर टूटा नहीं है। सरकार और संगठन के स्तर पर मोदी-शाह के हर फैसले का भागवत और उनकी संघ-मंडली ने खुलकर समर्थन किया है और जरूरत पडने पर मोदी के धुर विरोधी प्रवीण तोगडिया जैसों को उनकी औकात दिखाने और संजय जोशी को नेपथ्य में रखने का काम भी किया है।
भागवत-मंडली की इस अनुकंपा के बदले में मोदी ने भी संघ को हर तरह का सरकारी समर्थन और संरक्षण प्रदान किया। संघ के प्रमुख आयोजनों के प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी प्रचार माध्यमों की सेवाएं उपलब्ध कराई गईं। संघ द्वारा अनुशंसित स्वयंसेवकों को सरकारी पदों से नवाजा गया। संघ के आला पदाधिकारियों के करीबी रिश्तेदारों को उनका कारोबार जमाने में हर तरह की सरकारी-गैर सरकारी मदद पहुंचाई गई। सत्ता के सान्निध्य का प्रभाव संघ के पदाधिकारियों और प्रचारकों की जीवन-शैली पर भी पडा। निजी और सांगठनिक जीवन में आधुनिक सुख-सुविधाओं के साधनों ने खासी जगह बना ली। खुद मोदी ने भी समय-समय पर संघ के विचार और कार्यक्रमों को आगे बढाने में कोई कोताही नहीं की।
दरअसल, मोदी और भागवत मंडली यानी संघ की यह जुगलबंदी एक तरह से 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से ही शुरू हो गई थी। उस चुनाव में मिली जीत से मोदी की अखिल भारतीय महत्वाकांक्षाओं को पंख लग चुके थे। देश के बडे कॉरपोरेट घरानों को भी अपने लिए मोदी में अपार संभावनाएं नजर आने लगी थीं। कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया में प्रायोजित तौर पर मोदी और उनके तथाकथित गुजरात मॉडल का कीर्तन शुरू हो चुका था। खुले बाजार और कॉरपोरेट केंद्रित राजनीति के हिमायती दलाल पत्रकारों और विश्लेषकों की पलटन मोदी को अवतार पुरुष के तौर पर चित्रित करने में जुट गई थी। गुजरात के तथाकथित विकास को लेकर बढ-चढ कर दावे करने वाले विज्ञापन और प्रायोजित लेख गुजरात के बाहर उत्तर और दक्षिण के पत्र-पत्रिकाओं में भरपूर जगह पाने लगे थे। मोदी के शासन में एक दशक से गुजरात जिस तरह हिंदुत्व की प्रयोगशाला बना हुआ था, उससे संतुष्ट संघ का नेतृत्व मोदी के अखिल भारतीय इरादों और तैयारियों पर नजर रखे हुए था। उसे भी 2014 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यह अंदाजा हो गया था कि मोदी के नाम पर बन रहे माहौल को नजरअंदाज करना राजनीतिक भूल होगी। इसीलिए उसने अपने राजनीतिक इरादों को तवज्जो देने की अपनी पुरानी रवायत के मुताबिक उन लालकृष्ण आडवाणी को भी किनारे करने में कोई हिचक नहीं दिखाई जो उस समय तक तमाम गैर-कांग्रेसी और गैर-वामपंथी दलों के बीच स्वीकार्यता हासिल कर चुके थे।
2014 के चुनाव के बाद मोदी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे कुछ उदारवादी जुमले उछाले। उनकी इस कीमियागीरी पर मीडिया के ढिंढोरची वर्ग ने उनमें अटल बिहारी वाजपेयी का अवतार देखा। यह आभास कराने की कोशिश की गई कि मोदी अब ‘गुजराती अतीत’ से बाहर आ चुके हैं और वे संघ के काबू से बाहर निकलकर देश का नेतृत्व करेंगे। संघ भी उनके रास्ते में टांग नहीं अडाएगा और उन्हें उनके हिसाब से काम करने देगा। मगर मोदी और भागवत ने ऐसा सोचने वालों को हर मौके पर गलत साबित किया।
सवाल उठना लाजिमी है कि जब मोदी और भागवत के बीच आपसी समझदारी कायम है और सबकुछ ठीक चल रहा है तो फिर संघ के ‘प्रथम पुरुष’ को सत्ता के शीर्ष पर बैठे अपने समर्पित स्वयंसेवक के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ वाले आह्वान से पल्ला क्यों झाडना पडा। क्यों उन्हें यह सफाई देनी पडी कि यह शब्दावली संघ की नहीं है? क्या यह संघ की नई पैंतरेबाजी नहीं है?
दरअसल, इन सवालों का जवाब खोजने के लिए हमें राजनीति से संघ के छल-छद्म भरे रिश्तों की पडताल करनी होगी और उसे समझना होगा। संघ के तमाम प्रचारक घोषित तौर यह कहते आए हैं कि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कोई सरोकार नहीं है। उनके इस बयान को सामने रखते हुए संघ के तमाम कार्यक्रमों को नंगी आंखों और खुले दिमाग से देखें तो हम पाएंगे कि संघ का राजनीति से कैसा और कितना गहरा सरोकार है। इस सिलसिले में राजनीति और भाजपा के बारे में संघ की आधिकारिक दृष्टि का जिक्र इस लेख की शुरुआत में ही किया जा चुका है, जिसमें गुरू गोलवलकर ने जनसंघ (अब भाजपा) को गाजर की पिपहरी बताया है।
जो बात गोलवलकर ने जनसंघ की स्थापना के समय साफ-साफ शब्दों में कही थी वही बात मोहन भागवत ने सत्ता-शीर्ष पर बैठे अपने स्वयंसेवक और उसके अनुचरों को संकेतों में समझाई कि राजनीति में आज आप जिस ऊंचाई पर पहुंच गए हों, उसके पीछे संघ की ही ताकत है। आप अपनी ऊंचाई को संघ से ऊंची समझने की गलतफहमी न पालें। भागवत ने स्पष्ट रूप से कहा है- हमें राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सभी लोगों को शामिल करना है, उन लोगों को भी, जो हमारा विरोध करते हैं। जाहिर है कि संघ खुद को भारत राष्ट्र का स्वयंभू संरक्षक समझता है और उसके सरसंघचालक मानते हैं कि इस राष्ट्र को बाहरी और भीतरी शत्रुओं से बचाने की जिम्मेदारी संघ की ही है। यही वजह है कि कुछ दिनों पहले मोहन भागवत ने कहा था कि विदेशी दुश्मन से युद्ध के लिए भारतीय सेना को तैयार होने में छह महीने लगेंगे लेकिन संघ के स्वयंसेवक तीन दिन में तैयार हो जाएंगे।
दरअसल, भागवत ने कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से पल्ला झाडकर एक तरह से मोदी को झिडकी दी थी। इस झिडकी की अहम वजह अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार की नाकामी भी है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण छोटे और मझौले कारोबारियों में असंतोष, किसानों में हताशा, रोजगार के घटते अवसर और अन्यान्य कारणों से दलितों की बढती नाराजगी के चलते नरेंद्र मोदी की छवि मलिन हुई है, उनकी लोकप्रियता के ग्राफ में गिरावट आई है, जिसकी ताजा झलक पांच राज्यों के चुनाव नतीजों में भी देखने को मिली है। यह पूरा सूरत-ए-हाल संघ नेतृत्व की चिंता का सबब बना हुआ है। इस चिंता की फौरी झलक मोहन भागवत, नितिन गडकरी और किशोर तिवारी के बयानों में देखी जा सकती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं