‘वन अधिकार मान्यता कानून’ 2006, पर सुप्रीम कोर्ट मे सुनवाई होने वाली है, यह सुनवाई इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह लाखों जनजातियों लोगों के जीवन से जुड़ा हुआ मामला है.यदि इस मामले में ठीक से सुनवाई नहीं हो पायी तो सोनभद्र जैसे लोहमर्षक आदिवासी नरसंहार रोज-रोज की बात हो जाएगी. गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने 21 राज्यों के 11.8 लाख वनवासियों और आदिवासियों को जंंगल से बेदखल करने के अपने 13 फरवरी के निर्देश पर 28 फरवरी को रोक लगा दी थी.
हम बात कर रहे हैं वन अधिकार मान्यता कानून 2006 की,यह लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि हमे लगता है कि इस विषय लोगो बहुत ही कम जानकारी है, इस केस के निर्णय से देश मे करोड़ो की संख्या में बसने वाला वनवासी समुदाय प्रभावित होने जा रहा है लेकिन मजाल है कि देश का मुख्य मीडिया इस पर जरा सी भी चर्चा कर ले।
दरअसल पिछली बार सुप्रीम कोर्ट ने वनों में रहने वाले 11 लाख से ज्यादा परिवारों की वनभूमि पर दावेदारी को खारिज कर दिया है इस निर्णय में प्रदेश सरकारों को आदेश दिया गया था कि 27 जुलाई 2019 को मामले की अगली सुनवाई से पहले इन जंगलों को खाली करवा दिया जाए। इस फैसले के बाद भी अगर वे वहां बने रहते हैं, तो उन्हें अनधिकृत कब्जेदार माना जाएगा। इस निर्णय से 16 राज्यों के 11 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवार सीधे प्रभावित हुए हैं।
वो तो आप शुक्र मनाइए कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी अपने इस आदेश पर रोक लगा दी है नही तो देश मे बिल्कुल वही दृश्य देखने मे आता जो 1947 में विभाजन के समय देखने में आया था
इस पूरे मामले की पृष्ठभूमि पर आप गौर करेंगे तो यह जानकर आप हैरान रह जाएंगे कि कैसे वनवासियों के कल्याण के लिए बनाया गया कानून ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है।
दरअसल 2006 में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार द शिड्यूल्ड ट्राइब्स एंड अदर ट्रेडिशनल फॉरेस्ट ड्वेलर्स (रिकगनिशन ऑफ फॉरेस्ट राइट्स) एक्ट लेकर आई। साधारण भाषा में इसे ही फॉरेस्ट राइट्स या FRA कहा जाता है। यह कानून वनवासियों को जंगल की भूमि पर अधिकार देने के लिए बनाया गया, इसके तहत 31 दिसंबर 2005 से पहले जितने भी लोग जंगल की ज़मीन पर कम से कम तीन पीढ़ियों से रह रहे थे, उन्हें ज़मीन के पट्टे मिलने थे।
अब हम सभी यह बात समझते है कि किसी भी व्यक्ति के लिये जो चाहे शहर में ही रह रहा हो, यह साबित करना बिल्कुल आसान नही है कि उसका परिवार तीन पीढ़ियों से वही निवास कर रहा है। लेकिन यहाँ तो हम जंगलों की बात कर रहे हैं जंगल में रहने वालों की तो मूल समस्या ही यह है कि वे पीढ़ियों से उस जमीन पर रहते आ रहे हैं लेकिन उनके पास किसी तरह का दस्तावेज नहीं है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक 95 फीसदी वनवासियों के पास कोई सुबूत नही है कि उनका परिवार तीन पीढ़ियों से वन में रहता आया है।
2006 के बाद से पिछले साल नवंबर तक 42 लाख से ज्यादा लोगों ने यह दावेदारी की थी। उसी समय, जब इन दावों की समीक्षा की गई, तो 19 लाख लोगों की दावेदारी सीधे तौर पर खारिज कर दी गई। लगभग 19 लाख लोगों की दावेदारी को वैध माना गया और बाकी का मामला लंबित रहा। जिनकी दावेदारी खारिज कर दी गई, उनमें से ज्यादातर ने अदालत की शरण ली और वहां भी उनकी दावेदारी खारिज हो गई है। बीते साल में 29 राज्यों में से 11 ने तो एक भी व्यक्ति को जमीन का अधिकार नहीं दिया है।
सभी राज्यों की बात रखेंगे तो बात लंबी हो जाएगी इसलिए मध्यप्रदेश का ही उदाहरण आपके सामने रखता हूं।
मध्यप्रदेश राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत यानी 1.5316 करोड़ “आदिवासी” हैं। यह देश में सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी वाला राज्य है। मध्यप्रदेश में नवंबर 2017 तक 422403 आदिवासियों ने वन भूमि पर अधिकार के लिए व्यक्तिगत दावे दाखिल किये। इनमें से 291393 दावे यानी 47.7 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए।
अब आदिवासी के अलावा ऐसे बहुत से लोग है जो वनक्षेत्र के आसपास की जमीन पर खेती किसानी करते है लेकिन सरकारी की नजर में वह जमीन वन क्षेत्र में ही आती है ऐसे परंपरागत वन निवासियों के द्वारा किये गए दावों के हालत बहुत दर्दनाक हैं. मध्यप्रदेश में ऐसे 154130 दावे किए गए हैं, जिनमें से 150970 यानी 97.9 प्रतिशत दावे खारिज कर दिए गए। मध्यप्रदेश के 42 जिलों में इस श्रेणी के सभी 100 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए यानी सरकार मानती है कि इन जिलों के गांवों में कोई भी गैर-आदिवासी परिवार निवास करके वन भूमि पर खेती नहीं कर रहा था।
राइट्स एंड रिसॉर्सेज इनिशिएटिव नामक संस्था का अध्ययन बताता है कि वनाधिकार कानून के तहत कम से कम 15 करोड़ लोगों को देश की कम से कम 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि पर अधिकार मिलना है। लेकिन आरआरआई के मुताबिक बीते एक दशक में सिर्फ 1.2 फीसदी क्षेत्र को ही दर्ज किया जा सका है।
हम जानते है कि आदिवासी और जंगल का रिश्ता खून के रिश्ते से भी ज्यादा गहरा है। अंग्रेजों के जमाने से ही वन संपदाओं पर उपनिवेशिक शासकों ने पूरा कब्जा जमा लिया था। यह सिलसिला वन अधिकार कानून के आने के पूर्व तक कायम रहा। अंग्रेज़ी शासनकाल की समाप्ति के बाद सत्तासीन हुई लेकिन आज़ाद भारत की सरकार ने भी प्राकृतिक संपदा की इस लूट को बरकरार रखा और आर्थिक राजनैतिक ढांचे में किसी प्रकार का कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं किया। जंगल व अन्य प्राकृतिक संपदा पर आश्रित समुदायों के स्वतंत्र एवं पूर्ण अधिकार के लिए जब 2006 में यह वनाधिकार कानून बना तो देश भर के आदिवासी समुदाय में एक उम्मीद जगी थी। लेकिन इसके गलत इम्प्लीमेशन से आदिवासी ही अपनी जमीन से हाथ धो बैठा है।
केंद्र में बैठी मोदीं सरकार इस मामले में इतनी नकारा सिद्ध हुई है कि पिछली सुनवाई में उसने अपना वकील तक खड़ा नही किया है इस निर्णय के विरुद्ध देश का आदिवासी समाज कड़ा विरोध दर्ज करा रहा है लेकिन मीडिया उसे दिखाने में बिल्कुल भी रुचि नहीं ले रहा है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में होने वाली सुनवाई बहुत महत्वपूर्ण है।
FRAActHindiलेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।