अंशु मालवीय
कुंभ मेले में सफाई कर्मियों की बस्ती के पास से गुजरते हुए गुजरते हुए आप की निगाहें फटी हुई चादरों या अखबारों पर पड़ी सूखी रोटियों या पूरियों पर चली जाती है – जी यह सफाई कर्मियों की बस्ती का सबसे परीचित दृश्य है। वे गांव से भूख लेकर आए हैं और यहां से भूख लेकर ही वापस जा रहे हैं। दिहाड़ी बढ़ी नहीं, मिले हुए पैसे से जमादार ने गुंडा टैक्स वसूल लिया, इस बार के बकाया पैसे नहीं मिले।और तो और कम से कम 10 फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जिन्हे पिछले साल के भी पैसे मिले नहीं, राशन कार्ड बने नहीं और अगर बने तो 3 किलो चावल और 2 किलो गेंहू में पूरे परिवार का पेट भरना नामुमकिन ठहरा…. वे वापस जा रहे हैं, सैलानी- तीर्थयात्रियों के पुण्य का बिल चुका कर। उनकी विदाई एक ग्रैंड तमाशे के साथ हो रही है – उनके राष्ट्र का मुखिया चार चुने हुए स्वच्छ ग्राहीयों के पैर पखार रहा है – इन सफाई कर्मियों को अपनी मेहनत से शायद इलेक्शन का बिल भी चुकाना है।
चाहे आत्महत्या करते किसान हो या पुलवामा के शहीद या उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद के अर्धकुंभ के सफाई मजदूर; हर मुद्दे पर सरकार का एक ही रुख है -असली दृश्य को एक बनावटी अलंकार से ढकने की कोशिश। किसान के मुद्दे पर सरकार दोगुनी आय और कर्जमाफी या कांग्रेस की असफलताओं का विराट नैरेटिव तैयार करती है। पुलवामा की दुर्घटना में अपराधिक चूक को वह युद्धोन्माद और राष्ट्रवाद के शोर से ढकना चाहती है। और अब अर्ध कुंभ के सफाई मजदूर… छवि जीवक प्रधानमंत्री अपने को आधुनिक कृष्ण के रूप में प्रस्तुत करते हुए सफाई कर्मियों के पैर पखार रहे हैं। पार्टी की दलित विरोधी छवि से उसे निकालने की दयनीय कोशिश। भक्तगण कह रहे हैं ‘मास्टर स्ट्रोक’…. और सफाई कर्मचारी आंदोलन के नायक बेजवाड़ा विल्सन कहते हैं यह दलित गरिमा का अपमान है।
तथाकथित कुंभ में खींची गई इस ऐतिहासिक फोटो के रेशे पाखंड से बने हुए हैं। आइए इन रेशों को उधाड़कर देखें। मीडिया विजिल के पाठक सफाई कर्मियों के मुद्दों से जरूर वाकिफ होंगे। उन्हीं सब मूलभूत मांगों को लेकर सफाई कर्मी 26 जनवरी 2019 मेला अधिकारी के दफ्तर पर जमा हुये। मेला अधिकारी विजय किरण आनंद ने पूरी प्रशासनिक ठसक से बताया कि हां आपकी मांग मान ली गई है – दिहाडी 15 रुपये बढ़ा दी गई है। साथी सफाई कर्मचारी व्यंग्य से मुस्कुरा दिये। 4200 करोड़ रुपए की गंगा और सफाई कर्मियों तक आते-आते सूख गई।
प्रशासन की बेरुखी ने सफाई कर्मियों का गुस्सा बढ़ा दिया। दिन में 14-14 घंटे खुले आसमान के नीचे ठंड में काम करने के बाद प्रशासन के इस दो टूक जवाब ने उन्हें कुछ एक्शन के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया। तय हुआ 2 फरवरी को सफाई मजदूर मेला अधिकारी के दफ्तर पर प्रदर्शन करेंगे और ज्ञापन सौंपेंगे। इस प्रदर्शन को सफाई कर्मियों ने उत्साह में ‘हड़ताल’ का नाम दिया और हड़ताल के उत्साह में करीब डेढ़ हजार सफाई मजदूर 2 फरवरी की सुबह 6:00 बजे से इकट्ठा हो गए। करीब 10 बजे हमें वार्ता के लिए बुलाया गया और हमारे वार्ता कक्ष में पहुंचते ही मेला अधिकारी ने आक्रामक तेवर में हमको रासुका लगाने की धमकी दे डाली। उनका आरोप था कि हमने सफाई मजदूरों को अनावश्यक रूप से भड़काया है अन्यथा बेहद खुश हैं वे। बहरहाल मेला अधिकारी आखिरकार जबानी ही सही 6 फरवरी तक हमारी मांगों पर निर्णय लेने के लिए समझौते तक पहुंचे। हमने उनसे कहा कि जो आश्वासन आप हमें दे रहे हैं वहीं चलकर सफाई कर्मचारियों को भी दे दीजिए।
मेला अधिकारी विजय किरण आनंद को शायद अपने दल-बल लाव-लश्कर पर इतना गुमान था कि उन्होंने सोचा कि ‘राष्ट्र’, ‘गंगा-मैया’, ‘पुण्य’, ‘सेवा’ जैसे शब्द उछालेंगे और सफाई कर्मी चुप लगा जाएंगे। लेकिन सफाई कर्मियों ने साफ कह दिया- ‘पुण्य से पेट नहीं भरता साहेब।’ आधे घंटे तक पसीना-पसीना होते मेला डीएम साहब लोगों को बहलाने की कोशिश करते रहे।लेकिन लोगों ने खूब खरी-खरी सुनाई – अपनी दिहाड़ी से लेकर काम के हालात – हर बात पर मेला अधिकारी की बात को उन्होंने प्रमाण सहित काटा। मेलाधिकारी खीझ और झल्लाहट से भर कर वहां से चले गए। शायद यही खीझ थी जो उन्होंने हम पर उतारी, जब मुझे और सफाई कर्मचारी साथी दिनेश को 7 फरवरी को पुलिस की क्राइम ब्रांच ने एसएसपी के निर्देश पर उठा लिया और 6 घंटा अलग-अलग थानों में डिटेन करने के बाद छोड़ा। उसमें भी रासुका और सख्त कार्रवाई की धमकी शामिल थी।
अब वापस प्रधानमंत्री के चरण पखारते चित्र की ओर लौटें। 5 सफाई कर्मचारी नई वर्दियों और नई साड़ियों में और उनके चरण पखारते पी एम। यह एक बंद कमरा है। जिसमें एक लैब में नियंत्रित ताप और दाब में एक प्रयोग को अंजाम दिया जाता है। क्योंकि बाहर खुले में, मंच पर या भीड़ में यह प्रयोग करने पर वही खतरा है जिससे मेला अधिकारी साहब रूबरू हो चुके हैं। यानी वहां भी वही हो सकता था, तीखे सवालों की झड़ी से स्वयं पीएम मुजस्सम धो दिए गए होते…..चरण की तो बात ही दूर है। इसलिए यह प्रहसन बड़ी निजता से खेला गया। कौन है यह सफाई कर्मचारी जो सुदामा के रोल में थे…..धीरे-धीरे सामने आ जाएगा। बहरहाल।
प्रधानमंत्री जा चुके हैं… अखबार और टीवी चैनल उनके दलित प्रेम से भीगे-भीगे हैं। लेकिन सफाई कर्मी वही हैं अपनी मांगो और अपने अंधेरे जीवन के साथ। उनकी वंचना को आप वोट की राजनीति के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं – लेकिन झाड़ू की नोक जैसे उनके तीखे सवालों से पीछा नहीं छुड़ा सकते। यह पूरा प्रहसन तब और हास्यास्पद बन जाता है जब पता चलता है कि अपने पूरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने सफाई कर्मियों के लिए एक धेला भी खर्च नहीं किया।
पैर पखारना….उन्हें नीचा दिखाना है और यह दलित बंधुता नहीं ब्राह्मणवाद है मोदी जी!
लेखक वरिष्ठ कवि और इलाहाबाद के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं। लंबे समय से सफाई कर्मचारियों के आंदोलन को संगठित करने में जुटे हैं।