उबैद उल्लाह नासिर
यदि किसी और देश में नोटबंदी जैसे नादानी भरे अदूरदर्शी और क्रूर फैसले के खिलाफ वहाँ के केन्द्रीय बैंक ने ऐसी रिपोर्ट दी होती जैसी भारतीय रिज़र्व बैंक ने दी है तो वहां का प्रधानमंत्री इतनी बड़े आर्थिक तबाही और इतनी मौतों की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए खुद ही इस्तीफा दे देता और यदि खुद इस्तीफा न देता तो संसद में उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आता, संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराई जाती और इतनी मौतों के कारण उस पर गैर इरादतन कत्ल का मुक़दमा चलता. जब तक रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट नहीं आई थी तब तक प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री बीजेपी के आक्रामक प्रवक्ता और पार्टी का हर छोटा बड़ा लीडर और टेलीविज़न के भक्त एंकर इसे मास्टरस्ट्रोक कह के इसके गुणगान कर रहे थे. प्रधानमंत्री ने जापान में एलान किया था की यदि पचास दिनों में नोटबंदी का असर न दिखाई दे तो उन्हें देश के किसी भी चौराहे पर खड़ा कर के जिंदा जला दिया जाय. पिछले साल लाल किला की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए उन्होंने दावा किया था कि नोटबंदी के बाद अब तक तीन हज़ार करोड़ का काला धन वापस आ चुका है, हालांकि तब तक रिज़र्व बैंक ने नोटों की गिनती का काम भी पूरा नहीं किया था. अब प्रधानमंत्री जी बताएं कि जब 99.3% चालू करंसी बैंकों में वापस आ गयी है तो वह तीन लाख करोड़ रुपया कहाँ गया.
नोटबंदी के लाभों को गिनवाते हुए प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि इससे भ्रष्टाचार रुकेगा, काला धन वापस आएगा, आतंकवाद और नाक्सलवाद समाप्त होगा लेकिन कड़वी सचाई यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में भ्रष्टाचार के मामले में देश ने नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया. आतंकवाद और नाक्सलवाद ज्यों का त्यों जारी है. रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट ने एक बार फिर साबित कर दिया कि ब्लैक मनी के नाम पर पूरी बीजेपी, संघ, बाबा रामदेव, अन्ना हजारे जैसे लोगों ने भारत की जनता का बौद्धिक और भावनात्मक शोषण कर के सियासी रोटी सेंकी थी. आर्थिक विशेषज्ञों ने हमेशा कहा कि काला धन कोई कुआं नहीं है कि बाल्टी डालो और पैसा निकाल दो. यह हमारे आर्थिक सिस्टम में किसी न किसी तरह चलता रहता है. इन विशेषज्ञों ने यह भी कहा था कि कुल काले धन का मात्र आठ से दस प्रतिशत ही नकद की शक्ल में है, बाक़ी या तो रियल एस्टेट में लगा है या सोना खरीदा गया है या किसी शक्ल में निवेश किया जा चुका है लेकिन २०१४ के चुनाव से पहले काले धन को लेकर ऐसा माहौल बनाया गया और प्रति व्यक्ति के खाते में पन्द्रह लाख रुपया जमा करने का ऐसा जुमला छोड़ा गया कि जनता ने सचाई समझने की कोशिश तक नहीं की.
नोटबंदी को लेकर मोदी जी और उनके अंध भक्तों ने ऐसा माहौल बना दिया था कि इसकी मुखालफत करने वाला हर व्यक्ति भ्रष्ट और राष्ट्रद्रोही कह दिया जाता था हालांकि तब भी अर्थशास्त्र का ककहरा जानने वाला भी समझता था कि एकदम से कुल अर्थव्यवस्था का 85% पैसा नाजायज़ कर दिए जाने का कितना खराब असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. पूर्व प्रधानमंत्री और विश्व के जाने माने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में अपने छोटे से भाषण में इसे संगठित लूट बताते हुए दावा किया था कि इससे हमारी सकल घरेलू पैदावार (GDP) पर दो प्रतिशत का असर पड़ेगा. GDP में इस दो प्रतिशत घाटे का मतलब होता है लगभग एक लाख तीस हज़ार करोड़ का घाटा. ज़ाहिर सी बात है यह घाटा पूरा होने में कई बरस लगेंगे. एक अनुमान के मुताबिक नोटबंदी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था बीस साल पीछे चली गयी है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमत अपने न्यूनतम स्तर पर होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को इस अहमकाना फैसले का वह झटका नहीं झेलना पडा जो 2012-13 में झेलना पड़ता.
आजकल GDP में जबर्दस्त इजाफे और भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे तेज़ी विकसित हो रही अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है जो बेशक ख़ुशी और गर्व की बात है लेकिन इस इजाफे की असलियत पर दो एंगल से गौर करने की ज़रूरत है. पहली बात मोदी जी के सत्ता सम्भालने के तुरंत बाद GDP गणना का फार्मूला बदला गया जिससे उसमें करीब दो प्रतिशत का इजाफा हुआ. यदि गणना पुराने फॉर्मूले पर होती तो आठ प्रतिशत विकास दर 6% के आसपास होती. दूसरी कडवी सचाई यह है कि इस विकास दर का फायदा जनता को क्या मिल रहा है? बेरोजगारी अपने चरम पर है. इसको ले कर मोदी सरकार के हाथ पैर ऐसे फूले हैं कि उसने बेरोज़गारी के आंकड़े न जारी करने का फैसला कर लिया. पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम दुनिया में सबसे ज्यादा हमें देना पड रहा है, छोटे और मंझोले कारोबार नोटबंदी और GST की मार से बर्बाद हो गए हैं, डॉलर के मुकाबले रुपया न्यूनतम स्तर पहुँच गया और नहीं कहा जा सकता कि यह कहाँ रुकेगा! एक्सपोर्ट घट रहा है जिसके कारण व्यापार घाटा बढ़ता चला जा रहा है. CAG की रिपोर्ट के अनुसार विगत एक साल में पब्लिक सेक्टर की कंपनियों का घाटा तीस हज़ार करोड़ के आसपास था. मामूली PSU ही नहीं कल की नवरत्न कम्पनियां आज प्राइवेट कम्पनियों के मुकाबले दिवालिया हो रही हैं जिसकी सबसे बड़ी मिसाल BSNL के मुकाबले जिओ की सफलता है. रिलायंस पेट्रोलियम के आगे इंडियन आयल जैसे कम्पनियां पानी भर रही हैं!
नोटबंदी के अलावा रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट और भी बहुत सी चिंताजनक बातें कहती है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बैंकों का NPA खतरनाक स्तर पर पहुँच गया है. जिस प्रकार कई लोग बैंकों का खरबों रुपया ले के भाग गए हैं इसका प्रभाव बैंकों के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा है. बैंक अपना यह घाटा किसी हद तक पूरा करने के लिए छोटे खातेदारों की गर्दन दबा रहे हैं. स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने छोटे खातेदारों से इतना पैसा काटा जो उसके छमाही मुनाफे से भी ज़्यादा है. पंजाब नेशनल बैंक को अपनी पुरानी इमारतें बेचनी पड़ रही हैं. कई बैंकों का विलय करके उनका स्टाफ कम करके खर्च कम किया जा रहा है जिससे बेरोजगारों की लाइन और लम्बी हो रही है.
रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में सरकारी बैंकों के NPA में 6.2 लाख करोड़ का इजाफा हुआ है. शेड्यूल कमर्शियल बैंकों का कुल NPA 31 मार्च 2018 तक बढ़ कर 10 लाख 35 हजार 528 करोड़ रुपया हो गया जो 31 मार्च 2015 को 3 लाख 23 हजार 464 रूपये की कण्ट्रोल लायक स्थिति में था. रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2018 तक कुल NPA और re-structured loan कुल क़र्ज़ का 12% से भी अधिक खतरनाक स्तर पर पहुँच गया है. सरकार इस समस्या से निपटने के लिए IRDA जैसा खतरनाक कानून बनाने जा रही थी जिसके अनुसार बैंकों के ग्राहक अपनी मर्ज़ी से अपनी आवश्यकता के अनुसार पैसा नहीं निकाल सकते थे और यदि बैंक दिवालिया हो जाय तो ग्राहक एक लाख से ज्यादा का दावा नहीं कर सकता था. विपक्ष और अपने ही सहयोगियों के विरोध के कारण फिलहाल सरकार ने यह कानून ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
कुल मिला के देखा जाय तो देश की अर्थव्यवस्था खतरनाक मोड़ पर खड़ी है. इसको शब्दों की जादूगरी और आंकड़ों के मुलम्मे से छुपाने की कोशिश की जा रही है लेकिन भुक्त भोगी अवाम सब समझते और जानते हैं.