प्रताप भानु मेहता
भारत में खबरों का उत्पादन करने वाला समूचा ढांचा लंबे समय से संकटग्रस्त है। कुछ साहसी पत्रकार बेशक हैं जो मौत तक का जोखिम उठा लेते हैं, जिनके भीतर सत्यनिष्ठा कुछ हद तक बची हुई है। बाकी मीडिया प्रतिष्ठानों में बड़ी संख्या ऐसी है जो बीते वर्षों के दौरान छिटपुट गड़बडि़यों, कट्टरता, गैर-जिम्मेदारी और सत्ता की चापलूसी का एक ज़हरीला सम्मिश्रण बन चुके हैं। जिस मीडिया को लोकतंत्र का पहरुआ होना था, वह आज लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे में तब्दील हो चुका है।
इस धारणा की पुष्टि के लिए पीछे जाने की ज़रूरत नहीं, कंटेंट खुद इसका गवाह है। इस संदर्भ में कोबरापोस्ट का स्टिंग ऑपरेशन भारतीय मीडिया की सड़ांध को उजागर करता है। यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस उद्घाटन के बाद कोई आत्ममंथन जैसी चीज़ घटेगी। इसके उलट यह परिघटना बची-खुची बेहतर संस्थाओं पर भी अपनी छाया डालेगी जबकि बुरी संस्थाएं पहले की तरह ही जवाबदेही से मुक्त रहेंगी। यह प्रक्रिया नफ़रत और विनाशवादी प्रवृत्तियों को और गहरा करेगी।
ऐसे स्टिंग ऑपरेशनों को लेकर कुछ वाजिब चिंताएं भी जाहिर की जाती रही हैं। मसलन, ऑपरेशन में अंतर्निहित नैतिकता, इसे अंजाम देने वालों की विश्वसनीयता और उनका पिछला काम, उनके प्रच्छन्न उद्देश्य और इस बात का तय न होना कि टेप किए गए संवादों के बाद क्या वाकई कोई अनुबंध हुआ था या कंटेंट पर असर पड़ा। इन तमाम चिंताओं को संज्ञान में लेते हुए भी उस सड़ांध से बच पाना मुश्किल है जो इन तमाम मीडिया प्रतिष्ठानों के टेप किए गए संवादों से निकल रही है।
कुछ निष्कर्ष ऐसे हैं जिन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता। भारतीय मीडिया प्रतिष्ठानों में कंटेंट बिकाऊ है और यह काम परिधि पर नहीं होता बल्कि बिक्री थोकभाव में होती है। इसके लिए सौदे केवल निचले स्तर के मार्केटिंग वाले लोग नहीं करते बल्कि ऐसा लगता है कि भारत के ताकतवर मीडिया मालिकान खुद इन्हें अंजाम देते हैं गोया यह उनके कारोबारी मॉडल का अभिन्न अंग हो। वे क्या छाप और दिखा सकते हैं, बमुश्किल ही उसकी कोई सीमा होती है। कुछ सांस्कृतिक जागरण पर विचार करते हैं तो दूसरे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण फैलाने तक जा सकते हैं। मौजूदा सत्ता के आगे झुकने की बेसब्री इन सब में समान रूप से स्पष्ट है। संपादकीय और मार्केटिंग के बीच की रेखा धुंधली हो चुकी है। यह कहना हालांकि रियायती होगा। हालात और बुरे हैं क्योंकि धुंधली विभाजक रेखा दरअसल संपादकीय और ठेकेदारी के बीच खिंची है। मार्केटिंग तो फिर भी उपभोक्ता के प्रति थोड़ा श्रद्धाभाव रखती है क्योंकि कंटेंट को उपभोक्ता के स्वादानुसार तैयार किया जाता है। ठेकेदारी पूरी तरह आपूर्ति-केंद्रित होती है। यह इस पर निर्भर करता है कि बड़े ठेके कौन दिलवा रहा है। यह उपभोक्ता के प्रति श्रद्धाभाव का नहीं बल्कि उसकी पसंद को गढ़ने और उससे खिलवाड़ करने का मामला है।
कुल मिलाकर जो सामने आता है, वह स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य की मुनादी करता है कि भारतीय मीडिया भारत के नागरिकों को हिकारत से देखता है। इसके मालिकान सोचते हैं कि नागरिक दरअसल मंदबुद्धि और बेवकूफ़ हैं। मीडिया मालिक इस बात का दंभ भरते दिखते हैं कि कैसे उन्होंने अपने व्यापक दुष्प्रचार-तंत्र के ऊपर खबरों का झीना सा मुलम्मा चढ़ा रखा है। चूंकि जनता खबरों के लिए पैसे नहीं चुकाती, लिहाजा जवाबदेही केवल पैसा देने वालों या राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करने वालों के प्रति है। इन टेपों में निरंकुशता की एक अजीब सी परिघटना दिखती है। जिस तरह नेता सोचते हैं कि वे एक परदे की तरह लोकतंत्र का इस्तेमाल कर के उसकी आड़ में हमारे ही नाम पर फैलाए गए दुष्प्रचार में हमें जकड़ लेंगे, उसी तरह मीडिया का एक हिस्सा यह सोचता है कि बाज़ार के नाम पर वह बाज़ार-मूल्यों को भी पलट सकता है। इसमें हम न तो उपभोक्ता और न ही नागरिक के बतौर कोई मायने रखते हैं।
मुमकिन है कि कोबरापोस्ट का यह उद्घाटन ज्यादा जवाबदेही पैदा करने के उद्देश्य से किया गया रहा हो, लेकिन इसमें चौंकने जैसा कुछ नहीं है। अव्वल तो सबसे अहम बात अपनाए गए साधनों और परिणाम की निश्चितता की है। स्टिंग ऑपरेशन कभी-कभार रोमांच पैदा कर सकते हैं लेकिन ये जब से शुरू हुए हैं, इन्होंने मीडिया को और सस्ता व भोथरा बनाने का काम किया है। किसी स्टिंग ऑपरेशन के लिए दो दुर्लभ पूर्वशर्तें होनी चाहिए जो यहां नहीं हैं- स्टिंग करने वालों की निरपेक्ष विश्वसनीयता व जवाबदेही तथा उसे जारी रखने का सामर्थ्य। दूसरे, ऐसा होगा नहीं क्योंकि स्टिंग अगर सही निकला, तो वह मीडिया पर नहीं बल्कि हमारे ऊपर की गई एक भद्दी टिप्पणी होगी। ऐसे में पाठकों और दर्शकों का वह व्यापक तबका वास्तव में कठघरे में खड़ा मिलेगा जिसने ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर के उन्हें कायम रखा जहां मीडिया मालिकान हमारा ही तिस्कार करते रह सकें। चूंकि कुछेक को छोड़ के तकरीबन सभी के मुंह पर कालिख पुती है, तो वास्तव में असर किसी पर नहीं होने वाला। जो एकाध संस्थान इस जाल से बचे रह गए, उन्हें या तो खुशकिस्मत माना जाएगा या फिर यह कि उन्होंने कोई एकतरफा सौदा पटा लिया था।
यहां से एक विरोधाभासी सबक निकलता है। भारी मात्रा में कीचड़ उछालने से ज्यादा जवाबदेही पैदा नहीं होती बल्कि द्वेष और गहराता है। जवाबदेही और प्रभाव के लिए आपको ऐसे प्रतिमान गढ़ने होंगे जिन पर लोगों को भरोसा हो। मीडिया की सड़ांध केवल भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाने से दूर नहीं होगी बल्कि ऐसे संस्थान खड़े करने होंगे जो विश्वास के लिए प्रेरित करते हों। जब अविश्वास हर ओर फैला हो, तब भरोसे की बात करना काफी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में हम एकाध लड़ाइयां तो जीत सकते हैं लेकिन बड़ी जंग हार जाएंगे।
इस उद्घाटन का सबसे बड़ा फायदा राजनीतिक वर्ग को मिला है। भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता जितनी कम होगी, यह उनके लिए उतना ही अनुकूल होगा। ज़रा सोच कर देखिए कि कोई मीडियाकर्मी हितों के टकराव का मसला नज़रें सीधी कर कैसे उठा पाएगा। यह ऑपरेशन हिंदुत्व का राज़फाश करता है, ये वाली लाइन बहुत देर तक नहीं टिकने वाली। मामला यह नहीं था कि मीडिया प्रतिष्ठानों को किसी विचारधारा के प्रति रुझान दिखाने को कहा गया। मामला कुल मिला कर आज की सत्ता के सामने घुटने टेक देने का था और यही मूल बात है जो जनमानस में टिकी रहेगी। यह स्टिंग ऑपरेशन मीडिया मालिकान की नीयत को उजागर करता है, नेताओं की नीयत को नहीं। साथ ही यह राजनीति से ध्यान भटकाने का भी काम करता है। इससे यह नतीजा निकलता है कि समाज दरअसल राजनीति के मुकाबले कहीं ज्यादा भ्रष्ट है। समाज की कोई नैतिक हद नहीं है, केवल यांत्रिक लाभ-लोभ का सारा मामला है। नागरिक समाज के प्रति ऐसा अविश्वास, यह भाव कि शुद्ध लोगों को उन्हीं की गिरफ्त से रिहा किया जाना चाहिए, निरंकुशतावाद का मूल सिद्धांत है।
क्या यह स्टिंग कोई सुधार ला सकेगा? कुछ बड़े संस्थानों ने जिस तरह से इसे खारिज किया है, उससे यह संभावना बनती है कि यह ऑपरेशन कुछ निजी लक्ष्यों की पूर्ति को ध्यान में रखकर किया गया था। एक बड़े मीडिया प्रतिष्ठान ने जिन तीन आधारों पर इसे खारिज किया है, वे परस्पर बेमेल नज़र आते हैं और उसी की दलील को कुंद करते हैं: कि ऑपरेशन फर्जी था, कि समूह काउंटर-स्टिंग कर रहा था (स्टिंग करने वाले का स्टिंग) और वे जिस सामग्री की पेशकश प्रकाशन के लिए कर रहे थे वह अहानिकर थी। शायद कुछ छोटे संस्थान सुधारात्मक उपाय कर सकें, लेकिन ऐसा तभी होगा जब उनका शीर्ष प्रबंधन खुद इस स्टिंग से सुरक्षित होगा। कुछ ऐसे भी होंगे जो इस स्टिंग से बनी छवि की भरपाई करने की कोशिश करें, मसलन संपादकीय स्वायत्ता का प्रदर्शन करने के लिए बेमन से ही सही अपनी अंतर्वस्तु और संपादकीय पक्ष में बदलाव ला दें।
एक बात तय है कि इस ऑपरेशन से लोकतंत्र में कोई सुधार नहीं आएगा। जब तकरीबन हर समाचार स्रोत अविश्वसनीय हो चुका होगा, तो यह लोगों के हाथ में किसी लाइसेंस जैसा होगा कि वे जो कुछ सही मानना चाहते हैं मान सकते हैं। इस तरह होगा ये कि कुछ बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों को पल भर के लिए शर्मिंदा करने का जो रोमांच हमने महसूस किया था, वह कहीं ज्यादा मानवद्वेषी व अनिष्टकारी स्थितियों को पैदा कर देगा। हीगेल ने कहा था कि आधुनिकता के दौर में सुबह की प्रार्थना की जगह अखबार ले लेगा। वही हमारी आत्मा का नियंता होगा। आज हम एक ऐसे लोकतंत्र में तब्दील हो चुके हैं जिसका न तो कोई पैमाना है, न ही कोई नियंता। यह अनहद लोकतंत्र है जहां कुछ भी चलता है।
यह लेख अंग्रेजी में द इंडियन एक्सप्रेस और हिंदी में राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित है