राजनीतिक पार्टियाँ RTI का ‘जाल’ उड़ाने की फ़िराक़ में ! मीडिया को होश नहीं !



मीडिया विजिल का मकसद व्यापक जनहित के ऐसे मामले उजागर करना है, जिस पर मुख्यधारा के मीडिया का रवैया संदिग्ध है। वैकल्पिक मीडिया की जरूरत इसी के लिए है। फिलहाल देश की राजनीतिक पार्टियों पर केंद्रीय सूचना आयोग ने जबरदस्त शिकंजा कस रखा है। लेकिन ऐसे मामलों को मीडिया ने पूरी तरह ब्लैक आउट करके प्रकारांतर से राजनीतिक दलों को अनुचित लाभ पहुंचाया है। वरिष्ठ पत्रकार विष्णु राजगढ़िया बता रहे हैं कि पूरा मामला क्या है- संपादक
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का पारदर्शी और जवाबदेह होना जरूरी है। कोई जनप्रतिनिधि या राजनीतिक दल इस जिम्मेवारी से नहीं बच सकता। केंद्रीय सूचना आयोग ने 18 अगस्त को एक अंतरिम फैसले में इस पर महत्वपूर्ण निर्देश दिया है। सूचना का अधिकार के अंतर्गत एक नागरिक के आवेदन पर आए इस निर्णय का हमारे लोकतंत्र पर गहरा असर होगा।

एक नागरिक विष्णुदेव भंडारी ने भारत सरकार के सांख्यिकी एवं योजना विभाग से मधुबनी (बिहार) में सांसद मद के कामों की सूचना मांगी थी। मधुबनी लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव हैं। सूचना नहीं मिली। प्रथम अपील का भी जवाब नहीं मिला। मामला केंद्रीय सूचना आयोग पहुंचा। केंद्रीय सूचना आयुक्त प्रो. एम. श्रीधर आचार्युलु ने इस पर अंतरिम आदेश में गहरे सवाल उठा दिये हैं। उन्होंने जनसूचना अधिकारी को सूचना देने का आदेश दिया है। प्रथम अपीलीय अधिकारी से भी निष्क्रियता का कारण पूछा है। इसके अलावा कुछ विशेष निर्देश के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं-

  1. सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के जनसूचना अधिकारी अथवा निजी सचिव या सहायक से सांसद मद के तहत अनुशंसित योजनाओं का विवरण मांगा गया है। इसमें योजनाओं के चयन अथवा निरस्त करने के मापदंड की सूचना तथा काम की प्रगति रिपोर्ट भी देने का निर्देश है।

    केंद्रीय सूचना आयोग ने लोकसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक अथवा नेता से पूछा है कि क्यों न भाजपा संसदीय दल को ‘लोक प्राधिकार‘ का दरजा दे दिया जाए। इस पर सात सितंबर तक पार्टी का विचार मांगा गया है।

    3. केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा है कि देश में सरकार चला रही भाजपा ने पारदर्शिता और स्वच्छ शासन का वादा किया है। इसलिए भाजपा के सभी सांसद अपने क्षेत्रीय विकास मद के सभी काम के चयन के मापदंड, चयनित कायों की सूची तथा प्रगति की सूचना वेबसाइट के माध्यम से दें। इसे पार्टी के वेबसाइट अथवा प्रत्येक भाजपा सांसद के व्यक्तिगत वेबसाइट के माध्यम से सार्वजनिक किया जा सकता है। ऐसी सूचनाओं को लगातार अपडेट करने का भी निर्देश दिया गया है।

    4. केंद्रीय सूचना आयोग के इस आदेश में कहा गया है कि सैद्धांतिक तौर पर सभी विधानमंडल/संसदीय दल को ‘लोक प्राधिकार‘ समझा जाना चाहिए। आरटीआई एक्ट में ऐसा प्रावधान है। साथ ही, उन पर देश को सुशासन प्रदान करने का संवैधानिक दायित्व है। सभी विधायकां और सांसदों ने संविधान के अंतर्गत शपथ भी ली है। इसलिए उन्हें अपने सांसद निधि तथा विधायक निधि के कामों की सूचना स्वैच्छिक तौर पर सार्वजनिक करनी चाहिए. सूचना कानून की धारा चार के तहत ऐसा करना चाहिए।

    5. आयोग ने संसद तथा सभी राज्यों की विधानसभा में मौजूद सभी राजनीतिक दलों से भी उन्हें ‘लोक प्राधिकार‘ घोषित करने पर राय मांगी है। उनसे भी सूचनाओं की स्वैच्छिक घोषणा पर पूछा है।

    6. आयोग ने सामाजिक संगठनों तथा नागरिकों की भी राय मांगी है। विषय है- क्या सभी विधानमंडल और संसदीय दलों को सूचना कानून के दायरे में लाया जाए? इस पर 7 सितंबर तक madabhushisridhar@gov.inपर ई-मेल आमंत्रित है।

    केंद्रीय सूचना आयोग के उक्त आदेश पर देश के आरटीआई कार्यकर्ताओं ने प्रसन्नता जाहिर की है। भोजन का अधिकार अभियान से जुड़े श्री बलराम के अनुसार विभिन्न राजनीतिक दलों के पास इस फैसले की प्रति भेजकर उन्हें सकारात्मक सुझाव भेजने का आग्रह करने की तैयारी की जा रही है।

    उल्लेखनीय है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत राजनीतिक दलों की पारदर्शिता का एक अन्य मामला नाजुक मुकाम पर है। केंद्रीय सूचना आयोग ने तीन जून 2013 को देश के छह राष्ट्रीय दलां को सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत ‘लोक प्राधिकार‘ घोषित किया था. लेकिन यह आदेश चार साल बाद भी अब तक लागू नहीं हो पाया है। कांग्रेस, भाजपा, बसपा, एनसीपी, सीपीएम और सीपीआइ को लोक प्राधिकार के तौर पर सूचना देने के मामले की विशेष सुनवाई 16 से 18 अगस्त 2017 से रखी गई थी। लेकिन तकनीकी कारण से उसे स्थगित कर दिया गया।

    देश के प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सूचना कानून के प्रति ऐसा नकारात्मक रवैया हैरान करने वाला है। इस कानून का मकसद सभी संस्थाओं को पारदर्शी और जवाबदेह बनाना है। जीवन के सभी पहलुओं को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले राजनीतिक दल भला इससे अलग कैसे रह सकते हैं? यह कैसे संभव है कि हम प्रशासनिक मशीनरी से ईमानदारी और उत्तरदायित्व की मांग करें, लेकिन राजनीतिक दलों को मनमानी की छूट दें? हमारा प्रतिनिधित्व करने के नाम पर हमारे वोट से इतनी ताकत लेने वाले राजनीतिक दल आखिर नागरिकों के प्रति जवाबदेह क्यों नहीं होना चाहते?

यह एक भ्रम बनाया जा रहा है कि राजनीतिक दल सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के दायरे में नहीं आएंगे। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई संस्था ‘लोक प्राधिकार‘ मानी जाएगी, अथवा प्राइवेट। अगर ‘लोक प्राधिकार‘ है, तो उसे अपने मुख्यालय में जनसूचना अधिकारी रखने होंगे। उससे सीधे सूचना ली जाएगी। अगर वह प्राइवेट है, तो उसे उसे नियंत्रित करने वाले सरकारी कार्यालय के माध्यम से सूचना ली जाएगी। इस कानून में सरकारी और प्राइवेट सभी संस्थाओं की सूचना देने का प्रावधान है। इसमें गोपनीय और व्यक्तिगत सूचना पर रोक भी है। किसी राजनीतिक दल को इसमें अलग से लाने की जरूरत नहीं। वे तो खुद ही पहले दिन से उसमें हैं। यह कानून भी खुद उन्हीं पार्टियों ने बनाया है। अब उसे नहीं मानना उनकी दादागीरी है। चुनाव आयोग और आयकर विभाग में चंदे की सूचना देते ही हैं। वही चीज कोई नागरिक भी मांगे तो क्या दिक्कत है?

सूचना कानून पर वामदलों की भय-ग्रंथि भी समझ से परे है। इसके कारण वाम कार्यकर्ताओं के एक बड़े हिस्से ने आरटीआइ का सदुपयोग नहीं किया। उल्टे, सीपीआई और सीपीएम ने इसके दायरे में आने से बचने का प्रयास किया है। इसके कारण वामदलों ने इस कानून का लाभ उठाने का शानदार अवसर गंवा दिया। कांग्रेस, भाजपा, बसपा और एनसीपी जैसी सत्ता केंद्रित पार्टियों का आरटीआई से परहेज समझ में आता है। लेकिन सीपीएम और सीपीआई जैसी वामपंथी पार्टियों का के पास आम तौर पर छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है।

राजनीतिक दलों द्वारा केंद्रीय सूचना आयोग की उपेक्षा भी चिंताजनक है। चुनाव आयोग की ही तरह सूचना आयोग भी एक स्वायत्त संस्था है। चुनाव आयोग के हर आदेश को सभी पार्टियां तुरंत मानती हैं। गुजरात में राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के दो विधायकों का वोट रद्द करने का चुनाव आयोग का आदेश तत्काल लागू हो गया। इस आदेश का व्यापक प्रभाव पड़ा। लेकिन चुनाव आयोग के आगे थर-थर कांपने वाली पार्टियां सूचना आयोग को ठेंगा दिखा रही हैं। जबकि दोनों की वैधानिक स्थिति समान है। गत दिनों चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने राजनीतिक दलों को खरी खोटी सुनाई। दिल्ली के एक कार्यक्रम में उन्होंने चुनाव जीतने के हथकंडों पर नेताओं की क्लास ली। सारे नेता भीगी बिल्ली बने सुनते रहे।

इस प्रसंग में सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह सुझाव स्वागतयोग्य है कि राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग की ही तरह सूचना आयोग की भी स्वायत्त भूमिका का सम्मान करना चाहिए। शासन-प्रशासन के सभी अंगों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित किये बगैर ‘न्यू इंडिया‘ बनाना असंभव है।

इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्रीय सूचना आयोग के 18 अगस्त के अंतरिम फैसले के आलोक में वामपंथी दल तथा अन्य पार्टियां अपने विचार भेजती हैं या नहीं। देश भर के सांसदों और विधायकों द्वारा अपने फंड की सूचना सार्वजनिक किये जाने पर भी नागरिकों की नजर रहेगी। इस कानून की प्रस्तावना में लोकतंत्र के नागरिकों को सूचनाओं से लैस करते हुए पारदर्शिता सुनिश्चित करने की बात कही गई है। इसका प्रथम दायित्व राजनीतिक दलों पर ही है।

ताज्जुब है कि राजनीतिक दलों द्वारा इस कर्त्तव्य के अनुपालन की निगरानी के अपने दायित्व से विमुख मीडिया ऐसे गंभीर विषयों की चर्चा तक नहीं करता।