साहेब की लीला देखने-दिखाने के लिये तैयार हो रहा है रामलीला मैदान
ये पहली बार होगा कि पीएमओ अपने कठघरे से बाहर निकलेगा और दो दिन दिल्ली के रामलीला मैदान से पीएमओ काम करेगा। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं होगा कि पीएमओ जनता के बीच जा रहा है। या जनता से जुड़ रहा है। दरअसल पीएमओ अपने ही मंत्रियों ,अपने ही सांसदो, अपने ही मुख्यमंत्रियों, अपने ही पार्टी संगठन संभाले नेताओ , अपने ही मेयर, अपने ही अलग- अलग विंग के प्रमुखो से रुबरु होगा।ॉ
यानी साठ महीने की सत्ता के 57 वें महीने बीजेपी खुद का राष्ट्रीय कन्वेशन इस तरह दिल्ली में करेगी जिससे लगे कि सत्ता-सरकार-साहेब-सेवक सभी उस रामलीला मैदान में जुटे हैं जहाँ से अक्सर सत्ता को ही चेताने का काम लोहिया -जेपी के दौर से लेकर अन्ना तक ने किया। लेकिन जब 11-12 जनवरी को सत्ता ही रामलीला मैदान में जुटेगी, तब ये बहस खास होनी चाहिये कि देश का मतलब क्या सिर्फ चुनाव हो चुका है? देश में सबके विकास का अर्थ चुनावी नारा हो चुका है? देश की संस्कृति का अर्थ राम मंदिर में जा सिमटा है? देश की स्वर्णिम सम्यता का मतलब राष्ट्रवाद जगाने में जा सिमटा है? क्योंकि रामलीला मैदान में जिन तीन प्रस्तावों पर चर्चा कर पास किया जायेगा वह राजनीतिक हालात , आर्थिक नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर होगें। और चाहे अनचाहे रामलीला मैदान के इन तीन प्रस्तावों के छाँव तले निगाहो में तीन महीने बाद होने वाले आम चुनाव ही होगें ।
लेकिन जिस तरह की तैयारी रामलीला मैदान में पीएमओ स्थापित करने की हो रही है, वह अपने आप में देश के सामने सवाल पैदा करता है कि देश कभी स्वर्णिम था या कभी स्वर्मिण हो पायेगा ? जवाब सत्ता की मदहोशी तले ही दफ्न है। क्योंकि जिस रामलीला मैदान तक कार से पहुंचना आज भी दुरुह कार्य है, जिस रामलीला मैदान में एक साफ शौचालय तक नहीं है, जिस रामलीला मैदान में पीने का पानी उपलब्ध नही है, जिस रामलीला मैदान में छह गज साफ जमीन नहीं है जहाँ आप बैठ सकें, उस रामलीला मैदान को पीएमओ के लिये जब इस तरह तैयार किया जा सकता है कि हवाई अड्डे या रेलवे स्टेशन से कोई भी बिना तकलीफ पहुंच जाये, दो हजार लोगो के लिये पांच सितारा भोजन बनने लगे, इलाज के लिये अस्पताल खुल जाये, तीन दर्जन डाक्टरो की टीम चौबिसों घंटे तत्पर मिले, कतार में दर्जनो एंबुलेंस खडी दिखायी दें, दीवारो को मात देते जर्मनी के बने टैंटो में सोने की शानदार व्यवस्था कुछ ऐसी हो कि कि पूरे रामलीला मैदान में मिट्टी की जमीन दिखायी ही ना दे! यानी नीचे मखमली कारपेट! उपर जर्मन टेंट! सिल्क के पर्दे! खादी सिल्क की चादर! पांच सितारा को मात करने वाला मसनद! और जयपुरिया रजाई का सुकुन! साफ हवा के लिये हर कमरे में एयर प्यूरीफायर! गर्मी के लिये रुम हीटर! पीएम के लिये खासतौर पर घर की टेंटदिवारी के भीतर ही आंगन की व्यवस्था भी! और पीने के साफ पानी या शौचालयो की कतार के बारे तो पूछना ही बेकार है क्योंकि ये राष्ट्रीय पर्व का हिस्सा 2014 से ही बन चुका है, जब गंगा को स्वच्छा व निर्मल बनाने का प्रण किया गया और स्वच्छता मिशन के लिये गाँधीजी के चश्मे को अपना लिया गया ।
तो सोने की चिड़िया की भारत में कोई कमी है नहीं। सवाल सिर्फ इतना सा है कि जनता जहाँ रहेगी वहा मुफलिसी होगी। रोजी रोटी के लाले पडेगें। न्यूनतम जरुरतों के लिये जद्दोजहद करना पडे़गा । पानी व शौचालय तक के लिये से राजाओं से गुहार लगानी पडेगी । लेकिन उसी जगह पर अगर सत्ता चली जाये तो स्वर्ग का आभास जनता के ही पैसों पर ही हो सकता है। यानी जो नजारा रामलीला मैदान में 11-12 जनवरी को नजर आने वाला है वह सत्ता के नीरो होने के खुले संकेत देगा। क्योंकि रामलीला मैदान में जमा होने वाले 280 सांसदों में से 227 सांसद ऐसे हैं जो जिस क्षेत्र से चुन कर आये हैं वहाँ के 35 फिसदी वोटर गरीबी की रेखा से नीचे हैं। उनमें से 110 सांसद तो ऐसे क्षेत्र से चुन कर आये हैं जिनके जिलों को नेहरु के दौर में बीमार माना गया और ये बीमारी मोदी के दौर में भी बरकरार है। बकायदा नीति आयोग ने जिन 125 जिलों को सबसे पिछडे जिले के तौर पर चिन्हित किया है वहाँ से बीजेपी के 98 सांसद 2014 में चुने गये। और अब वह सभी देश की राजनीति और इकोनॉमी पर पास होने वाले रामलीला मैदान के प्रस्ताव पर ताली बजाने के तैयार हैं। और ताली बजवाने के लिये देश के सबसे बडे़ सेवक के लिये रामलीला मैदान में खास व्यवस्था की जा रही है।
मइससे पहले नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी और वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह को कभी नहीं सुझा कि तीन मूर्ति या एक सफदर जंग रोड या फिर 7 आरसीआर से बाहर निकल कर रामलीला मैदान में पीएमओ लगाया जाये। ये तो मौजूदा दौर में गरीब-मुफलिसों का नाम लेने वाले सेवक की चाहत है जो नाम बदल में इतनी रुचि रखते हैं कि 7 आरसीआर का नाम लोककल्याण मार्ग कर गरीबों के लिए कुछ करने का सुकुन पा लिया। अब वह दौर तो है नहीं कि तीनमूर्ति में रहते नेहरु की रईसी को रामलीला मैदान में खडे़ होकर राममनोहर लोहिया चुनौती दे दें। या फिर इंदिरा गांधी की तानाशाही सत्ता को रामलीला मैदान से खडे होकर जेपी चुनौती देते हुये एलान कर दें कि कुर्सी खाली करो की जनता आती है। अब तो जेपी का नाम ले-लेकर इंदिरा से ज्यादा बडे तानाशाह बनने की होड़ है। और खुद को लोहियावादी कहकर पांच सितारा जिन्दगी जीने का दौर है। पीओमओ का नाम लोककल्याण कर सुकुन पाने का दौर है । कोई सवाल करे तो खुद को कभी आंबेडकर तो कभी सुभाष चन्द्र बोस तो कभी सरदार पटेल और कभी महात्मा गांधी का अनुयायी बताकर देशभक्ति या राष्ट्रवाद की ऐसी चादर ओढ़ने का वक्त है, जहाँ देखने वाला रामलीला मैदान में सत्ता के जमावडे़ को भी सीमा पर संघर्ष करते जवानों की तर्ज पर देखे। और भारत माता की जय के उद्घोष तले देश के स्वर्णिम दौर को महसूस करे।
रायसीना हिल्स की जमीन को तो अग्रेजी हुकुमत ने 1894 में कब्जे में कर वायसराय की कोठी बनायी। फिर वहाँ आजादी के बाद राष्ट्रपति भवन से लेकर नार्थ-साउथ ब्लाक बना। और साउथ ब्लाक में ही प्रधान सेवक का कार्यालय काम करता है। जो आजाद हिन्दुस्तान में आज भी गुलामी का प्रतीक है । तभी गांधी जी ने भी 1947 की 15 अगस्त को मिली आज़ादी को सिर्फ सत्ता हस्तातरंण माना। और खुद कभी भी रायसीना हिल्स के समारोह में शामिल नहीं हुये। लेकिन रामलीला मैदान तो 1930 तक एक तालाब हुआ करता था। आजादी के संर्घष के दौर में ही तालाब, मैदान में बदला जहाँ महात्मा गांधी से लेकर नेहरु और पटेल तक ने सभा की। और तभी से रामलीला मैदान सत्ता के खिलाफ संघर्ष का पैमाना बन गया। लेकिन पहली बार सत्ता ही जब रामलीला मैदान में होगी तो सवाल संघर्ष का नहीं, पांच सितारा जिन्दगी भोगती सत्ता का, सत्ता पाने के लिये संघर्ष की परिभाषा बदलने की होगी !
लेखक मशहूर टी.वी.पत्रकार हैं।
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