तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर, अनुच्छेद 370, कॉमन सिविल कोड, राम मंदिर जैसे विवादास्पद मुद्दे बीजेपी की राजनीति के लिए हमेशा से संजीवनी साबित होते रहे हैं। ये मुद्दे उसके चुनावी मैनिफेस्टो का अनिवार्य हिस्सा रहे हैं। कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद से ही लोगों के ज़ेहन में यह सवाल घूम रहा था कि अब आगे क्या? लाल किले से इस स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जतायी है। चिंता के इस सार्वजनिक इज़हार के तुरंत बाद से देश के अलग-अलग हिस्सों में एक खास वर्ग को टारगेट करते हुए टिप्पणी की जाने लगी है। ऐसा लगता है कि सरकार ने समाज के बीच विमर्श का अगला एजेंडा तय कर दिया है।
पिछले साढे़ पांच साल के शासन में सरकार और उसके समर्थक समूहों की तरफ से यह स्थापित करने की कोशिश की गई है कि जो कोई सरकार की नीतियों के खिलाफ है, वह राष्ट्रदोही है। मौजूदा माहौल में अलग मत रखना बहुत ही जोखिम भरा काम है। अब, जबकि खुद प्रधानमंत्री ने आधिकारिक रूप से जनसंख्या नियंत्रण की तरफ बढ़ने का इशारा कर दिया है, तब समाज का एक हिस्सा आक्रामक होता दिख रहा है। ज़ाहिर है कि आक्रामक रुख़ रखने वाले इस तबके को सच और तथ्यों से कोई मतलब नहीं है।
आजादी से पहले ही भारत में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर विमर्श शुरू हो चुका था। तब अमेरिका के जनसंख्या नियंत्रण अभियान की नेता मार्गरेट सैंगर ने 1936 में भारत आकर इस मुद्दे पर महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और रबींद्रनाथ टैगोर से मुलाकात की थी। फिर आपातकाल के समय भी संजय गांधी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर सख्त दिखे। हमारे समाज में एक आम स्थापित धारणा है कि मुसलमान धार्मिक कारणों से ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। यह कितना तार्किक और तथ्यात्मक है, यह जाने बगैर समाज का बड़ा वर्ग कुछ इसी तरह की धारणा के साथ विमर्श करता है। अब चूंकि एक बार फिर से इस दिशा में आक्रामकता दिखाई पड़ रही है, तो ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आबादी बढ़ने के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण हैं या कुछ और भी है।
गरीबी और अशिक्षा का जनसंख्या से रिश्ता
जनसंख्या नियंत्रण पर काम करने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि ज्यादा बच्चे पैदा करने के पीछे जिन पहलुओं का बड़ा योगदान है, उनमें गरीबी, शिक्षा का अभाव और ग्रामीण-शहरी संस्कृति बहुत महत्वपूर्ण है। हम किसी नतीजे पर पहुंचें, उससे पहले कुछ आंकड़ों पर गौर करना चाहिए जो यह बताते हैं कि गरीबी, अशिक्षा और ग्रामीण-शहरी रिहाइश किस तरह से आबादी बढ़ाने में सहायक हैं।
संयुक्त राष्ट्र की द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉसपेक्ट्स 2019 नामक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में प्रजनन दर 2.1 को रिप्लेसमेंट रेट माना जा रहा है, यानी एक महिला औसतन 2.1 बच्चे पैदा कर रही है। भारत की कुल प्रजनन दर 2.2 है। यह दर सर्वोतम मानक 2.1 से कुछ ही ऊपर है। हम मानकर चल सकते हैं कि बहुत जल्द ही हम इस मानक तक पहुंच सकते हैं।
यह ध्यान रखना चाहिए कि देश की आबादी बढ़ाने में उत्तर भारत के सात राज्यों की भूमिका सबसे ज्यादा है। हालिया आंकड़ा बताता है कि टीएफआर (प्रजनन दर) के मामले में उत्तर प्रदेश (3.0), बिहार (3.2), मध्यप्रदेश (2.7), राजस्थान (2.6), असम (2.3), छत्तीसगढ़ (2.4) और झारखंड (2.5) के आंकड़े न केवल चिंताजनक हैं बल्कि 2011 की जनगणना के अनुसार कुल आबादी का करीब 45 फीसदी हिस्सा इन्हीं राज्यों में रहता है। इन राज्यों की प्रजनन दर देश के औसत से अधिक है। इस मामले में सबसे अच्छी बात यह है कि जो राज्य हर स्तर पर बेहतर काम कर रहे हैं, उनकी प्रजनन दर औसत से कम है।
इनमें दक्षिण के राज्यों में केरल (1.7), तमिलनाडु (1.6), कर्नाटक (1.7), आंध्र प्रदेश (1.6), तेलंगाना (1.7) और महाराष्ट्र (1.7) शामिल हैं। यानी विकास के हर मोर्चे पर अच्छा करने वाले राज्यों की आबादी बढ़ाने में भागीदारी औसत से कम ही है। इनको आने वाले दिनों में अपनी जरूरत को पूरा करने लायक वर्कफोर्स नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मुसलमानों की आबादी अच्छी है, फिर भी इन राज्यों की प्रजनन दर औसत से बेहतर है। उधर, जिस कश्मीर को मुसलमानों की बहुलता के चलते दमन झेलना पड़ रहा है वहां की प्रजनन दर महज 1.7 है जबकि विकास का मॉडल कह कर पेश किए गए राज्य गुजरात में यह दर 2.2 है।
2017 की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 1971 से 1981 के बीच कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 5.2 से घटकर 4.5 और 1991 से 2017 के बीच 3.6 से घटकर 2.2 पर आ गयी। कुल प्रजनन दर से जुड़ा आंकड़ा यह भी बताता है कि यह महिलाओं की शिक्षा के स्तर और ग्रामीण-शहरी परिवेश से तय होता है। अशिक्षित महिलाएं औसतन 2.9 बच्चे पैदा करती हैं, तो शिक्षित महिलाएं औसतन 2.1 बच्चे पैदा करती हैं। अगर महिला दसवीं पास है तो बच्चा पैदा करने की उसकी औसत दर 2.1 से कम है। इसी तरह बारहवीं पास महिलाएं औसतन 1.8 की दर से बच्चा पैदा करती हैं। यही नहीं, ग्रेजुएशन या उससे अधिक शिक्षा हासिल करने वाली महिलाएं औसतन 1.4 बच्चा ही पैदा करती हैं।
ग्रामीण और शहरी परिवेश की बात करें तो 2017 का आंकड़ा बताता है कि ग्रामीण परिवेश की महिलाएं औसतन 2.4 बच्चा पैदा करती हैं, जबकि 1971 में यह आंकड़ा 5.4 था। इसी तरह शहरी महिलाओं में प्रजनन दर 1971 के 4.1 की तुलना में 2017 में 1.7 रह गयी है।
देश में शिक्षा का स्तर जैसे-जैसे बढ़ रहा है वैसे ही आबादी का ग्रोथ रेट भी घटा है। आजादी के बाद 2001-2011 के बीच सबसे धीमी गति से आबादी बढ़ी है। देश की आबादी बढ़ने की रफ्तार 1991-2001 के 21.54 फीसदी की तुलना में 2001-2011 के बीच 3.9 फीसदी घटकर महज 17.64 फीसदी ही रह गयी।
महिलाओं के बच्चा पैदा करने में गरीबी भी बड़ी भूमिका निभाती है। औसत गरीब परिवारों में तीन से अधिक बच्चे होते हैं। उन परिवारों की समझ होती है ज्यादा बच्चे होंगे तो उनके पास कमाने के लिए ज्यादा हाथ होंगे। अधिक प्रजनन दर वाले राज्यों की तुलना में केरल, तमिलनाडु और अन्य दक्षिणी राज्यों में औसत परिवारों की कमाई ज्यादा है। केरल में प्रति व्यक्ति आय 1,18,670 रुपए है तो बिहार की प्रति व्यक्ति आय करीब 30,000 रुपए ही है।
मुसलमानों में घट रही है आबादी वृद्धि की दर
अब बात धार्मिक आधार पर- पिछले 15 साल के आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भारत में मुसलमान बहुत तेजी से जनसंख्या नियंत्रण पर काम कर रहे हैं। इसका असर भी दिखाई पड़ रहा है। इस देश में जैन धर्म मानने वाले परिवारों की आबादी की प्रजनन दर महज 1.2 है, बौद्ध में 1.5, सिखों में 1.58, ईसाइयों में 1.99, हिंदुओं में 2.13 और मुसलमानों में 2.62 है। इस लिहाज से बेशक कहा जा सकता है कि भारत में आबादी बढ़ाने में मुसलमानों की भूमिका सबसे ज्यादा है, लेकिन एक और आंकड़ा है जो यह बताता है कि मुसलमानों की आबादी बढ़ने की रफ्तार सबसे तेजी से घट रही है और इस मोर्चे पर यह दूसरे धार्मिक समुदायों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।
2005-06 से 2015-16 के बीच हिंदुओं की आबादी बढ़ने की रफ्तार जहां 17.8 फीसदी घटकर 2.59 से 2.13 पर आ गयी है, वहीं मुसलमानों में प्रजनन दर 22.9 फीसदी घटकर 3.4 से 2.62 पर आ गयी है। यानी जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार बढ़ रहा है, मुसलमान भी यह समझने लगे हैं कि बच्चों की संख्या सीमित होनी चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र की द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉसपेक्ट्स 2019 रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2019 से 2050 तक 27.30 करोड़ लोग बढ़ जाएंगे। यूएन के अनुमान के अनुसार 2060 के बाद भारत की आबादी बढ़ने की रफ्तार घटने लगेगी। यानी आने वाले वर्षों में भारत की प्रजनन दर औसत मानक से कम होगी और कुल आबादी घटने लगेगी। ऐसे में सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी कि वह जनसंख्या नियंत्रण के केंद्रबिंदु को धार्मिक आयाम से हटाकर शिक्षा, गरीबी उन्मूलन, शहरीकरण और उत्तर भारत के सात राज्यों पर फोकस कर पाएगी। क्या उनके नेता टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों और भाषणों में इस चुनौती को स्वीकार करने को तैयार हैं?
इस बीच ऑस्ट्रेलिया और रूस सहित दुनिया के कई देश अपने यहां आबादी बढ़ाने के लिए लोगों को न सिर्फ प्रेरित कर रहे हैं, बल्कि उनको कई तरह के प्रोत्साहन भत्ते भी उपलब्ध करा रहे हैं। वे अपने यहां रिप्लेस हो रही वर्कफोर्स की जरूरतों को स्थानीय तौर पर पूरा नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में भारत जैसी बड़ी आबादी वाला देश पूरी दुनिया की जरूरत को पूरा करने में सक्षम हो सकता था। इसके उलट बढ़ती आबादी हमारे यहां समस्या तो है, लेकिन हमारी उपलब्ध आबादी भी बहुत प्रोडक्टिव नहीं है। आजादी के 73वें साल में भी हम यह दावा नहीं कर सकते हैं कि आबादी के बड़े हिस्से को क्वालिटी एजुकेशन उपलब्ध करा दी गयी है। हमारी वर्कफोर्स का बहुत बड़ा हिस्सा औसत क्वालिटी का भी नहीं है।
आबादी की बरबादी
पिछले दिनों दिल्ली की एक एजेंसी एस्पायरिंग माइंड्स ने डेढ़ लाख इंजीनियर स्नातकों के बीच एक सर्वेक्षण किया तो पाया कि महज सात फीसदी ही रोजगार पाने के लायक हैं। विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में भारत को चेताया है कि उसे हर साल 81 लाख रोजगार पैदा करने होंगे। दूसरी ओर श्रम बाजार की सूरत यह है कि 2019 की समाप्ति तक आइटी क्षेत्र में तकनीकी विशेषज्ञों की नौकरियों में पांच फीसदी की गिरावट आ जाएगी। 2021 तक 40 फीसदी आइटी स्टाफ एक से ज्यादा भूमिकाओं में होगा, जिसमें ज्यादातर भूमिका कारोबार संबंधी होंगी, प्रौद्योगिकी संबंधी नहीं।
रोजगार के अलग-अलग क्षेत्रों में घट रही नौकरियों और बढ़ते आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के अलावा जो सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी के पीछे है, वह प्रतिभाओं की घोर कमी है। प्रतिभाओं की बात भी छोड़ दें, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे सामान्य सवालों में फेल हो जाने वाले युवाओं से किस किस्म के काम की उम्मीद की जा सकती है, यह गंभीर सवाल है। यही वजह है कि हर साल भारत में स्नातक कर के निकलने वाले पचास लाख छात्रों में से केवल 20 फीसदी को ही रोजगार मिल पाता है। यह आंकड़ा पिछले साल प्रकाशित एसोचैम की रिपोर्ट का है।
इस भयावह स्थिति में एक और आयाम जुड़ गया है जिस पर अभी बात नहीं हो रही। जन स्वास्थ्य की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लान्सेट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें कहा गया था कि 2017 में दुनिया भर में गर्मी बढ़ने से 153 अरब काम के घंटों का नुकसान हुआ है। इसमें अस्सी फीसदी वक्त कृषि क्षेत्र का है। चौंकाने वाली बात यह है कि इसका आधा नुकसान अकेले भारत को उठाना पड़ा है जो यहां की कुल कामगार आबादी के सात फीसदी के बराबर बैठता है। जलवायु परिवर्तन के इस आयाम को व्यापक बेरोजगारी के मंज़र के साथ जोड़ दिया जाए तो डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनांकिकीय लाभांश) पर किए गए तमाम अर्थशास्त्रीय दावों की हवा निकल जाती है।
डेमोग्राफिक डिविडेंड का जुमला गायब?
विडम्बना देखिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान चीख-चीख कर ‘’डेमोग्राफिक डिविडेंड’’ का खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया था। महज पांच साल पहले भाजपा प्रवक्ताओं की जबान पर यह शब्द चढ़ा हुआ था। नरेंद्र मोदी 2013-14 के दौरान अपनी चुनावी रैलियों में गिनाते नहीं थकते थे कि देश की 65 फीसदी आबादी उन युवाओं की है जिनकी उम्र 18 से 35 साल के बीच है। इसे वह देश के लिए आर्थिक उत्पादकता के संबंध में फायदेमंद बताते थे। यह जनांकिकीय स्थिति बेशक आज भी कायम है, बदली नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड 2020 में अपने चरम स्तर पर पहुंच जाएगा जब अधिसंख्य कार्यबल की औसत उम्र 28 वर्ष के कांटे पर आकर ठहर जाएगी।
बीते पांच साल में बदली है तो बस नरेंद्र मोदी की भाषा। अब वे डेमोग्राफिक डिविडेंड की नहीं, जनसंख्या नियंत्रण की बात कर रहे हैं। अपने पहले कार्यकाल में उच्च शिक्षा संस्थानों, IIT, TISS, FTII जैसे रोजगार प्रदाता संस्थानों से लेकर रोजगार के तमाम मोर्चों पर हमला कर के प्रतिभाओं को दरअसल बौना कर दिया गया है। भारत अपनी इस बड़ी आबादी को एसेट में बदल सकता था और ग्लोबल इकनॉमी के दौर में यह देश मैन्युफैक्चरिंग हब बन सकता था।
यह तो नहीं हुआ, उलटे सार्वजनिक विमर्श को बिना कोई परिप्रेक्ष्य दिए केवल स्थापित धारणाओं के सहारे जनसंख्या नियंत्रण की ओर मोड़ दिया गया। इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि यह एजेंडा खुद सत्ता शीर्ष की ओर से लागू किया गया। अब अगले कुछ वर्षों तक हम अपनी नीतियों को धार्मिक व राजनीतिक प्रोडक्टिविटी के हिसाब से तय करने की राह पर चल चुके हैं। आने वाले दिनों में जनसंख्या नियंत्रण हो न हो, लेकिन उसके नाम पर तीखा धार्मिक ध्रुवीकरण बेशक होगा और बची-खुची प्रतिभावान युवा आबादी को भी अनुत्पादक बना दिया जाएगा। आज हमारी असल चिंता यह होनी चाहिए।