सौरभ त्रिवेदी
पहली फरवरी को जेटली जी जब देश के सामने बजट पढ़ रहे थे तो स्वास्थ्य संबंधी घोषणाओं को सुनकर एकबारगी लगा कि वाकई अब देश में सबको बेहतर इलाज मिलेगा। देश में 50 करोड़ लोगों का स्वास्थ्य बीमा होगा ताकि किसी को इलाज में होने वाले खर्च के लिए दर-बदर भटकना न पड़े। बजट में वित्त मंत्री ने घोषणा की कि देश में 1.5 लाख स्वास्थ्य केंद्र खोले जाएँगे ताकि सुविधाओं को लोगों के घरों के नज़दीक पहुँचाया जा सके। सुनने में तो ये सभी वादे किसी सुनहरे सपने से कम नहीं लगते लेकिन देश की मौजूदा स्वास्थ्य सुविधाएँ इस सपने को तोड़ने में ज़्यादा वक्त नहीं लेंगी। नए स्वास्थ्य केंद्र ज़ाहिर तौर पर लाभदायक होंगे लेकिन यदि पहले से चल रहे स्वास्थ्य केंद्रों में ही ज़रूरी सुविधाएँ उपलब्ध ना हों तो नई घोषणाओं का क्या फ़ायदा, क्योंकि रायबरेली की स्वास्थ्य सुविधाओं की जमीनी हकीकत तो यही स्थिति बयां करती है।
रायबरेली के जगतपुर ब्लॉक के बरगदहा गाँव की शिवकली, उम्र 45 वर्ष, बताती हैं कि दो साल पहले जब उनके पति की तबियत खराब हुई तो वे उन्हें पास के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र (जगतपुर) ले गईं। वहाँ उन्हें दो बोतल ग्लूकोज़ चढ़ाया गया। उनके पति की हालत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी। उन्होंने डॉक्टर से कहा कि अगर आपके बस में न हो तो उनके पति को जिला अस्पताल भेज दें, वो पैसों का इंतजाम कर लेंगी। कुछ देर बाद उनके पति ने दम तोड़ दिया। तब से आज तक शिवकली किसी अस्पताल नहीं गईं। वो रोते हुए कहती हैं कि चार बेटियाँ हैं, बताओ इनका ब्याह कैसे होगा।
आज जो स्थिति शिवकली की है, शायद उससे भी खराब हालत रायबरेली या कहें तो पूरे देश की स्वास्थ्य सुविधाओं की है। देश में सरकारी इलाज का आलम यह है कि 1700 मरीजों पर एक डाक्टर है और 61,011 लोगों पर एक अस्पताल और 1833 मरीजों के लिए एक बेड उपलब्ध है। यूँ तो रायबरेली दशकों से सियासत की दिशा और सियासतदानों की ग्रहदशा दोनों ही तय करता रहा है, लेकिन आज़ादी के इतने बरस बाद भी यहाँ का स्वास्थ्य विभाग खुद ही बीमार बना हुआ है।
रायबरेली से इलाहाबाद जाते वक्त ऊँचाहार में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पीएचसी) अरखा पड़ता है। मई 2016 से यहाँ एक डॉक्टर को हफ्ते में तीन दिन के लिए नियुक्त किया गया है। बाकी के तीन दिन डॉक्टर साहब दूसरे स्वास्थ्य केंद्र में अपनी सेवाएँ देते हैं। उनकी जगह तीन दिन यहाँ के फार्मासिस्ट मरीजों को दवा देते हैं। सर्दियों में रोज़ाना 25-30 मरीज़ आते हैं जिनकी ज़िन्दगी फार्मासिस्ट द्वारा दी गई दवाइयों पर निर्भर रहती है। चूँकि इस अस्पताल में स्वीपर भी नहीं है तो झाड़ू भी फार्मासिस्ट ही लगाते हैं।
ये स्थिति किसी एक पीएचसी की नहीं है। ऊँचाहार ब्लाक के ही पीएचसी प्रहलादपुर में भी एक ही डॉक्टर है जो कि हफ्ते में तीन दिन ही बैठते हैं। इस स्वास्थय केंद्र में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। पानी की पाइपलाइन ध्वस्त पड़ी है जिसे बनवाने के लिए अर्ज़ी दी जा चुकी है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं है। यहाँ पर स्थाई कर्मचारियों के नाम पर केवल फार्मासिस्ट और स्वीपर ही हैं।
कुछ ऐसा ही हाल गौरा विकास खण्ड के पीएचसी रसूलपुर का है। यहाँ डॉक्टर हफ्ते में एक-दो दिन ही आते हैं। यहाँ न तो पानी की सुविधा है और न ही शौचालय की। यहाँ के कर्मचारी बताते है कि झाड़ू, बाल्टी जैसी जरूरुरत का सामान भी खुद ही खरीदना पड़ता है जो कि सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाना चाहिए।
रायबरेली जिले में कुल 17 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) हैं और 51 पीएचसी। एक आरटीआई के जवाब में प्रशासन ने बताया कि सभी पीएचसी और सीएचसी में डॉक्टर मौजूद हैं और मरीजों का इलाज कर रहे हैं लेकिन ज़मीन पर सच्चाई कुछ और ही स्थिति बयां कर रही है। नाम न बताने की शर्त पर सीएमओ ऑफिस के एक कर्मचारी ने बताया कि तीन पीएचसी में ताला लगा हुआ है क्योंकि डॉक्टरों और स्टाफ की कमी है।
शहर से करीब 35 किमी दूर डलमऊ ब्लाक का पीएचसी गोविंदपुर माधव ऐसा स्वास्थ्य केंद्र जहाँ सिर्फ दो फार्मासिस्ट ही हैं। बाकी हर जगह एक फार्मासिस्ट होता है लेकिन यहाँ दो हैं क्योंकि, पास के ही पीएचसी जलालपुर धई में भी स्टाफ और डॉक्टर मिला कर सिर्फ एक फार्मासिस्ट है, इसलिए उन्हें भी गोविंदपुर भेज दिया गया है और जलालपुर में ताला लगा दिया गया है। यहाँ पर पिछले 24 अप्रैल से कोई डॉक्टर नहीं है।
35 दवाओं से सभी बीमारियों का इलाज
परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2012 में जारी ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के लिए दिशा-निर्देश’ में बताया गया है कि सभी पीएचसी को 158 ऐलोपैथिक दवाएँ, 100 आयुर्वेदिक दवाएँ और 113 यूनानी दवाएँ मुहैया कराया जाना चाहिए लेकिन एक आरटीआई के जवाब में सीएमओ कार्यालय (रायबरेली) ने बताया कि ‘औषधि वितरण सूची के अनुसार माह जनवरी, 2018 में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को औषधियों एवं अन्य सामाग्री (संख्या-35) का वितरण किया गया है’।
सरकार भले ही 1.5 लाख नए स्वास्थ्य केंद्र खोल कर पूरे भारत को स्वस्थ करने का लोकलुभावन दावा करे, लेकिन हकीकत यह है कि मौजूदा स्वास्थ्य केंद्रों को ही जरूरत की 10% दवाइयाँ उपलब्ध कराना भी मुश्किल हो रहा है।
पीएचसी रसूलपुर के एक कर्मचारी ने बताया कि वैसे तो आमतौर पर 20-25 ड्रग्स मिल जाते है लेकिन पिछले सप्ताह (दिसंबर का अंतिम सप्ताह) जब वे दवाइयाँ लेने गए तो महज 6 ड्रग्स से ही संतोष करना पड़ा।
2012 में जारी निर्देशों के अनुसार तो 481 होम्योपैथिक दवाएँ भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए लेकिन ज़्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों में आयुष के डॉक्टर होने के बावजूद सरकार का ऐलोपैथ दवाओं पर ज़्यादा ज़ोर रहता है।
शहर से करीब 15 किमी दूर पीएचसी बाबूगंज के एक कर्मचारी ने बताया कि बी.पी (रक्तचाप) नापने की मशीन खराब पड़ी है और अस्पताल में सिर्फ एक ही आला (स्टेथेस्कोप) काम करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ पर दो डॉक्टर नियुक्त हैं लेकिन आला सिर्फ एक ही काम करता है। उन्होंने बताया कि वज़न करने की मशीन भी काफी समय से खराब पड़ी है।
भले ही दवाओं और ‘अन्य सामाग्रियों’ को मिला कर 35 सामग्री ही सभी पीएचसी को उपलब्ध कराई गई हो लेकिन शायद उन अन्य सामाग्रियों में बी.पी मशीन, वजन करने की मशीन और आला जैसी मूलभूत आवश्यक्ताएँ शामिल नहीं है।
बिना अल्ट्रासाउंड मशीन, नर्स करती है स्कैनिंग
अगर आपको लगता है कि हम 21वीं सदी के भारत में जी रहे हैं तो शायद आप किसी भुलावे में हैं क्योंकि रायबरेली के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) तो शायद इसी बात की गवाही दे रहे हैं।
सीएचसी हरचंदपुर में कार्यरत एक डॉक्टर बताते है कि यहाँ अल्ट्रासाउंड मशीन नहीं है इसलिए नर्स (या दाई या एएनएम) गर्भवती महिला की जाँच अपने हाथों से कर लेती है। अगर किसी केस में दिक्कत होती है तो उसे जिला अस्पताल भेज दिया जाता है। यानी रायबरेली वह जगह है जहाँ सरकार के मुताबिक गर्भवती महिला को अल्ट्रासाउंड कराने की आवश्यकता नहीं होती।
फील्ड रिपोर्ट के आधार पर सात सीएचसी में से किसी भी सीएचसी पर अल्ट्रासाउंड मशीन नहीं है और सिर्फ दो जगह ही एक्स-रे मशीन उपलब्ध है। जिन केंद्रों पर एक्स-रे मशीन है वह भी सालों से रिटायर होने की गुहार लगा रही हैं।
सीएचसी ऊँचाहार में कार्यरत एक डॉक्टर बताते है कि वह यहाँ करीब चार साल से हैं और उसके पहले से एक्स-रे मशीन खराब है लेकिन उसे ठीक कराने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। मगर खास बात ये है कि यहाँ एक्स-रे मशीन ऑपरेटर कार्यरत हैं और सरकार उन्हें किस बात की तनख़्वाह दे रही है ये किसी रहस्य से कम नहीं।
एक तिहाई एएनएम केंद्रों पर एएनएम नहीं
एएनएम यानी ऑक्ज़िलरी नर्स मिडवाइफ। एएनएम, सब-सेंटर में काम करती हैं। एक पीएचसी के अंतरगत अमूमन 6 सब-सेंटर होते हैं। एएनएम आम जन मानस और स्वास्थ्य सुविधाओं के बीच एक कड़ी के रूप में करती हैं। मगर रायबरेली जिले में ये कड़ी कहीं न कहीं टूटती हुई नज़र आ रही है। एक आरटीआई के जवाब से पता चलता है कि रायबरेली में कुल 327 सब-सेंटर में से 108 सेंटर पर एएनएम नहीं हैँ। यानी लगभग एक तिहाई केंद्रों पर कोई काम नहीं होता।
हालात अगर यहीं तक खराब होते तब भी मुनासिब था। पीएचसी अरखा के अंतरगत आने वाले एक एएनएम केंद्र में एएनएम बताती हैं कि शौचालय जाम है और यहाँ सफाई की भी कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए उन्होंने केंद्र पर डिलिवरी करवाना बंद कर दिया।
ऐसे बहुतेरे एएनएम केंद्र है जो कागजों पर तो चल रहे हैं लेकिन जर्जर बिल्डिंग, खराब शौचालय और पानी की व्यवस्था न होने के कारण बंद पड़े है।
बजट का पैसा? पता नहीं !
रायबरेली के पीएचसी के कर्मचारियों से बात करने पर पता चलता है कि किसी को यह नहीं मालूम कि उनके केंद्र पर साल में कितना पैसा आता है और किन जगहों पर खर्च किया जाता है।
पीएचसी प्रहलादपुर के एक कर्मचारी बताते हैं कि ‘हमें बजट से कोई लेना-देना नहीं होता। जितना खर्च होता है, हम उसका बिल बना कर भेज देते हैं और कुछ महीनों में पैसा मिल जाता है’। उन्होंने बताया कि पिछली बार साढ़े बत्तीस हज़ार का बिल बना था, जिसमें से 30 हजार ही क्लेम हुआ। बाकी के ढाई हज़ार के लिए कहा गया कि ‘जो पुरानी बैटरी पड़ी है उसे बेच दो, वो ढाई हजार वसूल हो जाएँगे’।
केंद्र सरकार भले ही नई स्वास्थ्य नीति के आधार पर स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का कुल 5% खर्च कर दे लेकिन हकीकत यही है कि स्वास्थ्य केंद्र पुरानी बैटरी बेच कर ही अपना खर्च पूरा कर रहे हैं।
पीएचसी रसूलपुर के कर्मचारी बताते हें कि छ: महीने पहले यहाँ पुताई हुई थी। पुताई करने वालों ने सिर्फ बाहर की दीवारों पर ही पेंट किया और हमें कहा कि हमें सिर्फ बाहर की दीवारों पर ही पेंट करने का आदेश है।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात जो सभी फार्मासिस्ट बताते हैं कि अस्पताल के लिए दवाइयाँ लेने उन्हें खुद ही जाना पड़ता है वह भी अपने खर्च पर। कभी-कभी पैसा मिल जाता है नहीं तो अपनी ही जेब से भरना पड़ता है।
यानी कि प्राथमिक स्वास्थ्य अब फार्मासिस्ट की जिम्मेदारी भर रह गया है। यह उस जगह का हाल है जहाँ से सियासतदाँ, प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे हैं और मौजूदा सांसद सोनिया गाँधी को दुनिया की सबसे ताकतवर महिला घोषित किया जा चुका है। अगर रायबरेली का यह हाल है तो उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश की स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल होगा इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। सरकारें स्वास्थ्य के लिए कितनी चिंतित हैं इस बात का अंदाजा साल दर साल घटते स्वास्थ्य बजट से भी लगाया जा सकता है। 2013 में देश का स्वास्थ्य बजट जहाँ जीडीपी का 3.97% तो इस साल यानी 2018 में यही बजट घटकर जीडीपी का 1.15% हो गया है। भारत की स्थिति स्वास्थ्य के क्षेत्र में कैसी है यह, 195 देशों में भारत की 154वीं रैंक बखूबी बयां करती है।
लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान से डिप्लोमा कर रहे हैं. यह रिपोर्ट उनके फील्ड रिसर्च का हिस्सा है.