नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में कई राज्यों में हिंसा हुई, कई जगहों पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए. केंद्र सरकार अडिग दिख रही है. गृह मंत्री ने साफ कर दी है अपनी मंशा कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा. प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि इस कानून से किसी भारतीय को डरने की जरूरत नहीं है. बावजूद, इसका विरोध जारी है. दरअसल, विरोध सिर्फ सीएए का नहीं हो रहा, लोग इस विरोध में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को भी जोड़ रहे हैं और इन दोनों के खिलाफ सड़क पर हैं.
बात आगे बढ़ाने से पहले यह चर्चा जरूरी है कि आखिर सीएए और एनआरसी में ऐसा क्या है, जिसका विरोध हो रहा है. लोगों का मानना है कि सीएए में मुसलमानों को जानबूझ कर छोड़ा गया है. केंद्र सरकार ने इस धारणा को खारिज किया. हर बार की तरह उसने दोष कांग्रेस के सिर मढ़ा. कहा कि इस तरह की अफवाह कांग्रेस फैला रही है. सरकार ने अखबारों में विज्ञापन जारी कर सीएए के बारे में बताया. उसने साफ किया कि इस कानून का मकसद किसी के अधिकार छीनना नहीं, बल्कि अधिकार देना है. सरकार के मुताबिक, नागरिकता कानून में हुआ संशोधन 2014 तक भारत में आ चुके शरणार्थियों को नागरिता देने की बात करता है. यह कानून बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर आए गैर-मुसलिम शरणार्थियों को नागरिकता देने को लेकर है. इसका मकसद किसी भी भारतीय मुसलमान को बाहर का रास्ता दिखाने का नहीं है. इस कानून से कोई भी भारतीय मुसलमान प्रभावित नहीं होगा.
दरअसल, जिस बात को लेकर लोग ज्यादा आशंकित हैं वह एनआरसी से जुड़ी हुई है। देश के मुसलमानों को लगता है कि अपनी नागरिकता साबित करने के लिए उन्हें तुरंत सर्टिफिकेट देने की जरूरत पड़ेगी. इस पर केंद्र सरकार का दिया गया विज्ञापन बताता है कि यह बात कोरी अफवाह है. फिलहाल देशभर में लागू करने के लिए कोई एनआरसी जारी नहीं किया गया है. उस विज्ञापन में यह भी कहा गया है कि जब भी भविष्य में एनआरसी जारी किया जाएगा, उस वक्त भी किसी भारतीय को परेशान होने की जरूरत नहीं है. सबसे बड़ी बात यह बताई गई कि किसी के पास अगर अपनी नागरिकता का कोई भी डॉक्यूमेंट नहीं है तो भी उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि नागरिकता के लिए डॉक्यूमेंट न होने की स्थिति में आपके आसपास के लोगों की गवाही भी आपके काम आएगी. एनआरसी का मकसद सिर्फ घुसपैठियों की पहचान करना है.
तो फिर सवाल उठता है कि इतने पारदर्शी तरीके से जब सरकार कानून बना रही है, जिस कानून में सब कुछ स्पष्ट है, आखिर उसका इतना तीखा विरोध क्यों हो रहा है? कहने की जरूरत नहीं कि सरकार अब तक लोगों का भरोसा न जीत पाई, न अपना भरोसा बना पाई. इस सरकार की कथनी और करनी का फर्क साफ दिखता रहा.
2014 के चुनाव में जिस राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर भाजपा ने लोगों के मन में एक उम्मीद जगाई, वह उम्मीद धराशायी हो गई. भाजपा ने कहा था कि सरकार बनते ही विदेशों में जमा कालाधन वापस लाया जाएगा, उससे विकास का रास्ता खुलेगा. पर नतीजा क्या रहा? लोगों ने देखा कि ललित मोदी विदेश भागने में कामयाब रहा. उसके विदेश जाने में सुषमा स्वराज की भूमिका की भी चर्चा रही. बाद के दिनों में प्रधानमंत्री के विदेश दौरे में शामिल दिखा हीरा कारोबारी नीरव मोदी पीएनबी घोटाले का मुख्य आरोपी निकला. जब तक कार्रवाई होती वह और उसका चाचा कालाधन समेत विदेश भाग निकला. 2014 की चुनावी सभाओं में भाजपा ने लोगों को सब्जबाग दिखाए थे कि कालाधन विदेश से आते ही 15 लाख रुपए लोगों के खाते में डाल दिए जाएंगे. बाद में इस सब्जबाग को अमित शाह ने चुनावी जुमला बताया.
कांग्रेस शासन के दौरान देश में भ्रष्टाचार चरम पर था, इसमें कोई दो राय नहीं. अगर सुशासन होता तो भला जनता विकल्प क्यों तलाशती? भाजपा ने खूब ढिंढोरा पीटा कांग्रेसी नेताओं के भ्रष्टाचार का. देश को कांग्रेसमुक्त कर देने की बात कही. पर लोगों ने देखा कि देश को कांग्रेसमुक्त करते करते भाजपा खुद ही कांग्रेसयुक्त होने लगी. जो नेता कांग्रेस पार्टी में रहते हुए खूब भ्रष्टाचारी थे, भाजपा में आते ही उनका शुद्धीकरण कैसे हो गया?
बात नोटबंदी की करें, तो पाएंगे कि सरकार इस मोर्चे पर भी बुरी तरह नाकाम रही. 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री ने जनता से सबकुछ सामान्य होने में 50 दिन लगने की बात कही थी. बाद के दिनों में लोगों को समझ में आया कि यह नोटबंदी आधी-अधूरी तैयारी के साथ लागू की गई थी. नोटबंदी की घोषणा के वक्त तक नए नोट छापने के ऑर्डर नहीं दिए जा सके थे, बैंकों को भी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं किया गया था. और तो और कुछ खबरें बताती हैं कि नोटबंदी का फैसला लेने के लिए आयोजित दिल्ली की मीटिंग का कोरम भी पूरा नहीं हुआ था और सरकार ने नोटबंदी पर अपनी मुहर लगा दी. अब तक यह सामने नहीं आ सका कि स्क्रैप हुए नोटों का अंजाम क्या हुआ या कितना कालाधन सामने आया.
आर्थिक मोर्चे पर इस सरकार की योजनाएं औंधे मुंह गिरी हैं. देश की जीडीपी 4.5 पर पहुंच गई. इस बीच अडानी और अंबानी जैसों की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई. दूसरी तरफ, बेरोजगारी के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं. आर्थिक मंदी की चपेट में देश आ चुका है. व्यापारियों की हालत जीएसटी ने बिगाड़ रखी है. विपक्ष में रहते हुए भाजपा जिस जीएसटी का घोर विरोध करती रही, सत्ता में आने के बाद वही जीएसटी इसकी महत्वाकांक्षी योजना हो गई. इसे लागू करने की हड़बड़ी भी दिखी कि सरकार को बार-बार जीएसटी के स्लैब में जोड़-घटाव करते रहना पड़ रहा है. खबरों के मुताबिक, जल्द ही पांच फीसद के स्लैब में सरकार परिवर्तन कर इसे खत्म करने की सोच रही है.
इस मंदी को लेकर लिखे अपने एक लेख में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि कि हिन्दू राष्ट्रवाद न सिर्फ सामाजिक तनाव बढ़ाता है, बल्कि ये भारत को आर्थिक विकास के रास्ते से भी डिगा देता है. नरेंद्र मोदी सरकार की सामाजिक-राजनीतिक एजेंडे पर टिप्पणी करते हुए पूर्व आरबीआई गवर्नर ने कहा, “राष्ट्रीय या धार्मिक नायकों की विशाल प्रतिमाएं बनाने के बजाय भारत को ज्यादा से ज्यादा स्कूल और विश्वविद्यालय बनाने चाहिए, जहां पर यहां के बच्चों का मानसिक विकास होगा, वे ज्यादा सहिष्णु और एक दूसरे के प्रति सम्मान जताने वाले बनेंगे. इससे ये बच्चे भविष्य की कॉम्पीटिशन भरी दुनिया में अपनी जगह बनाने में कामयाब होंगे.”
इस सरकार की नीयत में एक खोट यह दिखता है कि वह देश की युवा पीढ़ी के सोचने-समझने की शक्ति कमजोर करके उन्हें सिर्फ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का पाठ पढ़ाना चाहती है. वर्ष 2019-20 में स्कूल शिक्षा विभाग के लिए 56536 करोड़ रुपये की राशि मंजूर की गई थी. अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्चपदस्थ सूत्रों के हवाले से जो खबर छन कर आ रही है, वह बेहद उदास करने वाली है. खबर है कि वित्त मंत्रालय स्कूली शिक्षा के मद में मंजूर राशि से 3000 करोड़ रुपये की कटौती कर सकता है. बताया गया है कि गिरते राजस्व की समस्या से जूझ रही नरेंद्र मोदी सरकार ‘धन की कमी’ के कारण स्कूल शिक्षा बजट 2019-20 के लिए आवंटित बजट से 3000 करोड़ रुपये की कटौती कर सकती है.
सरकार की हड़बड़ी और लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण है असम में बनाया जा रहा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी). वहां की आबादी के 19 लाख लोग फिलहाल बिना किसी देश के हैं. इस रजिस्टर की पहली सूची बता रही थी कि भारत में 40 लाख घुसपैठिये रह रहे थे. इस रजिस्टर के मुताबिक साल भर बाद घुसपैठियों की संख्या 19 लाख रह गई. इन्हें यह विकल्प दिया गया है कि वे अलग-अलग विदेशी पंचाटों में जाएं और अपनी नागरिकता के सबूत पेश करें. इस रजिस्टर में वैसे लोगों के नाम भी रहे जिन्होंने अपना जीवन फौज की सेवा में गुजार दिया, कुछ ऐसे भी लोग थे जो कई पुश्तों से भारत में रह रहे हैं. इन लोगों को 120 दिन के भीतर विदेशी पंचाटों में अपील करनी होगी.
कहा जा सकता है कि इन 19 लाख लोगों के लिए सरकार ने अभी न्याय का रास्ता खोल रखा है. लेकिन यह रास्ता कितना मुश्किलों भरा है यह एक छोटे से हिसाब से सामने आ सकता है. कुल 521 पंचाट बनाए जा रहे हैं जिनकी हैसियत अर्द्धन्यायालयों जैसी रहेगी. 19 लाख लोगों की सुनवाई के लिए एक पंचाट के पास तकरीबन 3600 मामले आएंगे. एक केस सुनने में एक महीना भी लगता है, तो 19 लाख मामलों को निबटाने में 521 पंचाटों को तीस साल लग जाएंगे. तब तक ये 19 लाख लोग ऐसे होंगे जिनके पास अपना कोई देश नहीं होगा. जिन्हें हम भारतीय घुसपैठिये के तौर पर पहचानेंगे. अगर ऐसा ही रजिस्टर देश भर में इसी तरीके से बनाए जाने हैं, तो लोगों में डर का बैठना वाजिब है. इस एनआरसी का विरोध जायज है.
अगर इस सरकार का इरादा सांप्रदायिक नहीं है तो नागरिकता कानून में संशोधन की क्या जरूरत थी. सरकार की दलील है कि वह पड़ोसी देशों में धार्मिक आधार पर उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता का अधिकार दे रही है. सवाल यह उठता है कि कानून में संशोधन किए बिना उत्पीड़ितों को नागरिकता नहीं दी जा सकती थी? इस सवाल का सीधा और स्पष्ट जवाब है कि मौजूदा कानूनों के तहत ही ऐसे अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता लगातार मिल रही थी. राज्यसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए हाल ही में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बताया था कि 2016 से 2018 के बीच कुल 1988 लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई. इनमें 1595 पाकिस्तान से आए प्रवासी थे और 391 अफ़गानिस्तान से. उन्होंने बताया कि 2019 में भी 712 पाकिस्तानी और 40 अफगान लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई.
तो अगर सरकार किसी इरादे से संचालित नहीं थी तो उसने इतना बड़ा कदम क्यों उठाया? इस सवाल का जवाब गृह मंत्री अमित शाह की उस गलतबयानी में मिलता है जिसमें उन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन को जायज और अनिवार्य बताया है. संसद में गृह मंत्री ने बताया ‘विभाजन के समय पाकिस्तान में 23 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू थे, जो घटकर तीन प्रतिशत से नीचे चले आए’. दरअसल गृह मंत्री का यह बयान तथ्यों पर आधारित नहीं है, मुमकिन है कि यह आंकड़ा उन्हें वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी से मिला हो. गृह मंत्री को ऐसा कोई बयान देने से पहले यह पता कर लेना चाहिए था कि 1947 में कोई जनगणना हुई थी क्या? 1941 में जो जनगणना हुई थी उसके मुताबिक पाकिस्तान वाले हिस्से में 22 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे. लेकिन 1947 में दोनों देशों की आबादी इस कदर छितराई और इधर-उधर हुई कि 41 की जनगणना बेमानी हो गई. विकिपीडिया बताता है कि 1951 की जनगणना में पाकिस्तान की आबादी में हिंदू आबादी का अनुपात 12.3 प्रतिशत का है. लेकिन इसका बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान – यानी मौजूदा बांग्लादेश में है. बांग्लादेश में 28 प्रतिशत से ज्यादा गैरमुसलिम हैं तो पश्चिमी पाकिस्तान में सिर्फ 2.6 प्रतिशत. लेकिन हमारे गृह मंत्री बस इतना बताते हैं कि 1947 में पाकिस्तान में हिंदू 23 प्रतिशत थे जो अब घट कर 3 प्रतिशत से कम रह गए.
दरअसल, यह तथ्यहीन बयान गैर-जरूरी ढंग से किए गए नागरिकता कानून के संशोधन को जायज ठहराता है. इस सरकार का असल मकसद द्विराष्ट्र के अपने पुराने एजेंडे को लागू कर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इसी मकसद की सीढ़ी हैं नागरिकता कानून में किया गया संशोधन और एनआरसी, जो भारत के उदारवादी और बहुसांस्कृतिक चेहरे को धूमिल कर भारत की पहचान पाकिस्तान जैसा बनाते हैं.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो जनसत्ता, नवभारत टाइम्स आदि में अहम संपादकीय पदों पर रह चुके हैं