न्‍याय की परिकल्‍पना और लोकतंत्र की कसौटी पर पहलू खान का मुकदमा


Courtesy PTI File


अभी हाल ही में राजस्थान की एक एडीजे न्यायलय ने पहलू खान केस से सम्बन्धित सभी आरोपियों को बरी कर दिया।  आरोपियों को संदेह का लाभ मिला है। 2017 में पहलू खान की गो-तस्करी के शक में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी थी। सीबीसीआइडी ने मामले को देखते हुए नामजद हुए मुख्य छह लोगों को आरोपी नहीं माना था और तमाम साक्ष्यों, जिसमें वीडियो फुटेज भी शामिल है, के आधार पर कुछ अन्य लोगों को आरोपी बनाया था। गौरतलब है कि इनमें कुछ नाबालिग भी थे जिनके लिए न्याय की प्रक्रिया भिन्न होती है। चार्जशीट दाखिल की गयी, लगातार सुनवाई भी हुई और कई गवाहों के बयान भी कराये गये। कई सुसंगत और प्रत्यक्ष साक्ष्य का होना इस केस का एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा है, जिसमे तस्वीरों के साथ वीडियो रिकॉर्डिंग तक मौजूद है। 

निर्णय देते समय कोर्ट ने कहा कि वीडियो रिकॉर्ड करने वाले की पुष्टि नहीं हो पायी है। कारण है पुलिस  द्वारा ऐसा करने में अक्षम रहना। कोर्ट ने यहां तक कहा कि जो तस्वीरें साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की गयी हैं वह अपराध को साबित नहीं करती हैं इसलिए साक्ष्य के तौर पर नहीं ली जा सकती हैं। साक्ष्यों के ‘अभाव’ में आरोपी बरी कर दिए गए। यह ‘अभाव’ कहां से और क्यों उत्पन्न हुआ? यह एक गहरा सवाल है।

इस सन्दर्भ में कुछ बातें महत्त्वपूर्ण हैं। लोकतंत्र की सीमाएं और राज्य की व्यवस्था से लेकर राज्य के घटकों तक का गहन विश्लेषण आवश्यक मालूम पड़ता है। साथ ही साथ बहुसंख्यवाद पर आधारित लोकतंत्र यानि भीड़-तंत्र का लोकतान्त्रिक संस्था तथा न्याय प्रक्रिया पर प्रभाव समझना ज़रूरी है। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी समझना ज़रूरी है कि न्याय क्या है और इसे प्राप्त करने के क्या माध्यम हो सकते हैं, विशेषकर मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में।

लोकतंत्र की परिकल्पना हज़ारों वर्ष पुरानी है। वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक जीवन में इससे बेहतर राज्य-व्यवस्था अब तक नहीं सुझायी गयी है। यह अवश्य कहा गया कि लोकतंत्र का विकल्प एक ‘बेहतर लोकतंत्र’ ही हो सकता है। प्लेटो ने लोकतंत्र की कुछ आधारभूत कमियों को भांप कर कहा था कि लोकतंत्र बहुसंख्य की निरंकुशता का शिकार हो सकता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन टी. वेंडर्स का मानना है कि बहुसंख्यक की धौंस तानाशाही जैसी ही है। कुछ विचारकों के अनुसार यह ‘निर्विरोध सुविधा’ (uncontested good) है। क्या वर्तमान समय की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था इन अवलोकनों से परे है?

राजनीतिक विकास की प्रक्रिया में राज्य की परिकल्पना और व्यवस्था में धीरे-धीरे आमूलचूल परिवर्तन आता रहा है। मध्ययुग में जनता के सामान्य अधिकारों के उदय के साथ राज्य की असीमित शक्तियों को काबू में करने के लिए विचारकों ने सुझाया कि न्यायपालिका, कानून बनाने तथा उसे लागू करने वाली संस्था से अलग होनी चाहिए। मॉन्टेस्क्यू के अनुसार ऐसा इसलिए आवश्यक था क्योंकि ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ सुनिश्चित की जा सके।

सत्ता के केन्द्रीकरण और इससे जनित निरंकुशता पर लगाम शक्ति के पृथक्करण से लग सकती है। यह परिकल्पना संभवतः यह ध्यान में रखकर की गयी थी कि राज्य के विभिन्न घटकों में बैठे लोग न सिर्फ न्यायोचित और निष्पक्ष होंगे बल्कि राज्य के घटक आपस में समुचित सहयोग भी करेंगे। विचारक लास्की इससे इतर एक और बात कहते हैं। इनका मानना था कि न्यायपालिका का दायित्त्व सिर्फ कानून की व्याख्या तक सीमित नहीं होना चाहिए। सवाल है कि अंतिम लाइन कहां खींचनी है? यह कहा जा सकता है कि कार्यपालिका में पदासीन अधिकारी के विवेक पर बहुत कुछ निर्भर करता है।

वर्तमान न्याय प्रक्रिया में, जो कि मूलतः इंग्लैंड और अमेरिका से ली गयी है, राज्य के अन्य घटकों का बहुत बड़ा योगदान है। इसका एक बड़ा उदाहरण है अपराध पश्चात साक्ष्य इकट्ठा करना और न्यायलय में सामने प्रस्तुत करना। यह काम क़ानून व्यवस्था तंत्र का है। पहलू खान (और इस जैसे अन्य मामले) के केस में यह बातें महत्त्वपूर्ण हैं। सवाल कई हैं। मसलन, क्या सभी आवश्यक साक्ष्य न्यायालय के समक्ष रखे गये? क्या पारदर्शिता के साथ जांच की गयी? फॉरेंसिक जांच क्यों नहीं की गयी? क्या मृत्युकालिक कथन (Dying Declaration) को ध्यान में रखा गया? यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो निश्चित ही न्यायालय को राज्य के अन्य घटकों का पूर्ण ‘सहयोग’ प्राप्त होता हुआ नहीं दिखता है।

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि न्याय की परिकल्पना में व्यक्ति-विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है। क़ानून की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी होना इस बात का साक्षात् प्रमाण है। ऐसी स्थिति में पूरी व्यवस्था एक मशीन जैसी दिख सकती है जिसमे ‘इनपुट’ के रूप में साक्ष्य इत्यादि प्रस्तुत किया जाता है और ‘आउटपुट’ के रूप में ‘न्याय’ बाहर आता है। स्पष्ट है कि संस्था (न्यायालय) विधि के अनुसार बनायी गयी प्रक्रिया का पूर्ण पालन करती है। पूरी प्रक्रिया में न्याय की प्रकृति काफी हद तक साक्ष्य इकट्ठा करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था पर निर्भर करती है। तो क्या यही ‘आउटपुट’ न्याय है? उत्तर हां और न दोनों प्रकार से दिये जा सकते हैं। कुछ अन्य देशो में हालांकि व्यवस्था थोड़ी अलग है। फ्रांस में inquisitorial system प्रचलित है। इस व्यवस्था में कोर्ट जांच पड़ताल में सक्रिय भूमिका निभाती है। भारत में ‘भीड़’ द्वारा अपराध में ऐसी व्यवस्था प्रयोग में लायी जा सकती है।

न्याय कई मायनों में आचार-नीति या नीति शास्त्र से सम्बंधित है। यह कई मायनों में हालांकि व्यक्ति-विशेष की मेटा-एथिक्स पर निर्भर करता है। कुछ समय से रूढ़िवादी व्यवस्थाओं की ‘कानून के द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ अब बदलकर ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ बनने की ओर अग्रसर है। माननीय उच्चतम न्यायालय के इस सम्बन्ध में कई फ़ैसले नज़ीर के तौर पर पेश किये जा सकते हैं।

तकनीकी आधार पर दिये गये फ़ैसले, मसलन, कानून की स्थापित प्रक्रिया के द्वारा दिये गये फैसले, यदि साक्ष्य प्रस्तुत न किये गये हों, या उचित जांच न की गयी हो तो, अभियुक्त के दोषमुक्त होने की प्रबल सम्भावना रहती है। समझना आवश्यक होगा कि दंड की व्यवस्था अपराध रोकने में पूर्ण रूप से सक्षम नहीं रही है- विशेषकर दो स्थितियों में: आतंकवाद और भीड़तंत्र द्वारा अपराध। दंड की व्यवस्था के पीछे आधार क्या है? अनुमान तो यही है कि यदि समुचित दंड दिया जाये तो भविष्य में ऐसे अपराध नहीं होंगे, दंड का भय संभावित अपराधी को अपराध करने से रोकेंगे। लेकिन क्या ऐसे होते हुए दिख रहा है? यह भी समझना होगा कि ‘भीड़’ एक भ्रामक शब्द है।

सवाल सिर्फ भारतीय दंड संहिता का नहीं है। महिलाओं, बच्चों, हाशिये पर रह रहे वर्गों के लिए बने विशेष क़ानून क्या अनुमानित परिणाम ला पाये हैं? संभवतः नहीं। कारण है व्यवस्था में कहीं न कहीं कोई दोष। एक उत्तर विधि विचारक अंटोनी अल्लोट के पास दिखता है। वे पूछते हैं अधिकतर देश सामाजिक परिवर्तन के लिए  हद से अधिक क़ानून बनाने पर क्यों ज़ोर देते हैं? इस सवाल में निहित बात यह दिखती है कि क़ानून की अपनी सीमाएं हैं। दूसरी बात है, कार्यपालिका का न्यायिक व्यवस्था को समुचित सहयोग देना। अंतिम बात, असल मुद्दा संवेदनशीलता का है। यह भी जुड़ी हुई बात है कि संवेदनशीलता बड़ी आत्मपरक तथा व्यक्ति-निष्ठ होती है।

तकनीकी रूप से देखा जाए तो न्यायालय के फ़ैसले को स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि असहमति है तो अपील का प्रावधान है। अपील की भी अपनी सीमाएं होती हैं। विवाद के पक्ष-विपक्ष तथा उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति कई मायनों में न्याय की प्रकृति को प्रभावित कर सकती है।

न्याय क्या है? दंड ही न्याय है? क्या न्याय करने से व्यक्ति जीवित हो उठेगा? क्या यह एक ऐसी चेतना है जिसमे बदले की भावना निहित है? इन सवालों से जूझना लगभग असंभव सा दिखता है। इतना अवश्य है कि आदर्श न्याय की स्थिति प्रजातंत्र को मज़बूत ज़रूर करती है। लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का विश्वास बनाए रखती है। समाज को सकारात्मक रूप से आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

बहुसंख्यवाद पर आधारित मानसिकताएं ‘न्याय’ को ‘व्यक्ति-निष्ठ’ रूप से देख सकती हैं। भीड़ अपराध के बाद जश्न यूं ही मनाते नहीं दिखती। इसके ठोस कारक और कारण दोनों हैं। भीड़-जनित अपराध किसी एक-दो व्यक्तियों या समूह का नहीं होता। कई बार तो सामूहिक मौन सहमति भी दिखती है। यह मौन अपराध बोध का भी हो सकता है और शून्य चेतना का भी।

राही मासूम रज़ा ‘टोपी शुक्ला’ में लिखते हैं, ‘आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है तो, तब भी बिना आत्मा के उसके बदन को लाश ही कहते हैं। भाषा कितनी ग़रीब होती है। शब्दों का कैसा ज़बरदस्त अकाल है…बलवाई के हाथों परंपरा मरती है, सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है… कबीर की राम की बहुरिया मरती है। जायसी की पद्मावती मरती है। कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर की राधा मरती है, अनीस के हुसैन मरते हैं… कोई लाशों के इस अम्बार को नहीं देखता। हम लाशें गिनते हैं। सात आदमी मरे। चौदह दुकानें लुटीं। दस घरों में आग लगा दी गयी। जैसे कि घर, दुकान और आदमी केवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में मंडराने को छोड़ दिया गया हो।’

फैयाज़ अहमद वजीह के कुछ लफ्ज़ ज़रूरी मालूम पड़ते हैं।

ये मौत नहीं साहब
सियासी मक्तल है
जिन रहनुमाओं पे फ़िदा है दुनिया
उन्ही की दानिस्ता सियासत है
लेकिन ये कौन कहे?
किसमें है इतनी हिम्मत?
वो तो कहिये कि है नफ़ासत मेरे हुक्काम में
यूं मारते हैं चाबुक
जैसे क़ातिल कोई नहीं
और घर-घर मातम है