हमारा समाज कहानियों से मिलकर बना है। कहानियां चाहे कितनी ही नई या पुरानी हों, सब कुछ सुनाने वाले पर निर्भर करता है कि वह उसे कैसे सुना रहा है। नई कहानी को परिचित बना रहा है या पुरानी कहानी को कोई नया आयाम दे रहा है। ऐसा सैमुएल जॉनसन कहते थे। कहन के पीछे कहने वाले की मंशा भी काम करती है। इस मंशा को अकसर सुनने वाला भांप नहीं पाता यदि उसे पिछले सिरे का पता न हो। मसलन, गुजरात चुनाव के इर्द-गिर्द एक कहानी मीडिया ने चुपके से सुनाई। कहानी का नाम था ”पत्थरगड़ी”। प्लॉट था गुजरात का। उस वक्त बहुत से लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया। एकाध महीना बीतते-बीतते एकाध मीडिया संस्थानों ने इस विषय पर विस्तार से कहानी सुनाई। कहानी का प्लॉट उन राज्यों में था जहां माओवाद का प्रभाव है- ओडिशा, झारखण्ड और छत्तीसगढ़। महज छह महीने के भीतर पत्थरगड़ी एक परिचित नाम बन गया। अब कहानी फैल रही है तो अलग-अलग आयाम भी ले रही है।
बीते 17 मई 2018 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने एक कहानी प्रकाशित की जिसमें छत्तीसगढ़ से राज्यसभा सांसद रणविजय सिंह जूदेव ने दावा किया कि पत्थरगड़ी का लेना-देना धर्मांतरण से है और इस आंदोलन को ईसाई मिशनरियां चला रही हैं। आप झारखंड और छत्तीसगढ़ के स्थानीय मीडिया को ध्यान से देखिए। रोज पत्थरगड़ी से जुड़ी खबरें चलाई जा रही हैं और उनका माओवाद के साथ संबंध स्थापित किया जा रहा है। मोहन भागवत इस परिघटना से अचानक परेशान दिखाई देते हैं। वे दो दिन की यात्रा पर छत्तीसगढ़ में हैं। संघ के आनुषंगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम ने 19 और 20 जून को रायपुर में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया है। संगोष्ठी में जनजाति समाज की अस्मिता और उनके विकास से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार किया जाएगा। कार्यक्रम की खास बात यह है कि आरएसएस प्रमुख भागवत आदिवासियों से सीधे बातचीत करेंगे।
पत्थरगड़ी की कहानी अब राजनीतिक हो चुकी है। पत्थरगड़ी की नकारात्मक छवि तकरीबन बनाई जा चुकी है। इस कहानी को सबसे पहले मुख्यधारा के मीडिया ने सुनाया। कहानी पर अमल सबसे पहले आरएसएस कर रहा है जिसकी केंद्र में सत्ता है। सुनने वाले को न ओर का पता है न छोर का। इससे पहले कि पत्थरगड़ी को माओवाद का पर्याय बनाकर स्थापित कर दिया जाए, कहानी के पिछले सिरे को पकड़कर दिखाया और सुनाया जाना ज़रूरी है।
पत्थरगड़ी क्या है? इसका अतीत क्या है? इसका आदिवासियों से किस रूप में लेना-देना है? संघ को इसकी इतनी चिंता क्यों है? मीडिया इसे जैसे देख रहा है वैसे क्यों देख रहा है? इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए मीडियाविजिल से अभिषेक श्रीवास्तव ने अजीत यादव के साथ गुजरात की सीमा से लगे राजस्थान के जनजातीय गांवों का सघन दौरा किया। जो सामने आया है, वह एक ऐसा अध्याय है जिसे मीडिया इस देश से छुपा रहा है और शायद कभी नहीं दिखाएगा। इस देश में पत्थरगड़ी की कहानी जब और जहाँ से वास्तव में शुरू हुई थी, हमारी कहानी भी वहीं से शुरू होती है। कई किस्तों में चलने वाली इस कहानी का पहला अध्याय पाठकों के लिए प्रस्तुत है। (संपादक)
अभिषेक श्रीवास्तव / डूंगरपुर से लौटकर
तलैया- यह नाम है दक्षिणी राजस्थान के उस गांव का जहां इस मौसम में कायदे से साफ़ पानी की एक बूंद भी नसीब नहीं। चांपाकल लगे हैं लेकिन उनसे फ्लोराइड का पानी निकलता है। पूरे गांव में गन्ने के रस का एक ठेला घर-घर घूम कर लोगों की प्यास दस रुपये में बुझा रहा है। जिला मुख्यालय डूंगरपुर से यह गांव कोई तीस किलोमीटर दूर अरावली की सूखी पहाडि़यों के बीचोबीच सागवाड़ा की तरफ डोजा ब्लॉक में पड़ता है। बच्चों की छुट्टी है। सरकारी स्कूल बंद है। एक आदमी कहीं नहीं दिख रहा। दो-चार बकरियां सूखे हुए कुएं के पास झाडि़यों में कुछ खोज रही हैं। हमारी मोटरसाइकिल सरकारी स्कूल के गेट पर रुकती है। हमें यहां लाने वाले मोहन रोत और थावरचंद रोत हैं। यहां के आदिवासी कई उपनाम लगाते हैं। रोत उनमें से एक है। ये दोनों पढ़े-लिखे आदिवासी हैं। दोनों वागड़ मजदूर किसान संगठन के साथ जुड़े हैं। डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ जनजातीय बहुल इलाके हैं। इसे वागड़ क्षेत्र कहा जाता है। यहां की बोली को वागड़ी कहते हैं। औसत राजस्थानी से यह थोड़ा अलग होती है। इस गांव में हमारे आने के दो कारण हैं। पहला- थावरचंद तलैया के ही रहने वाले हैं। दूसरा- देश का पहला पत्थरगड़ी तलैया में ही हुआ था।
जब यह बात हमें बताई गई, तो पत्थरगड़ी पर मीडिया में खोजपरक रिपोर्ट करने वाले पत्रकार मित्रों से हमने पहले पत्थर के बारे में पूछा। उनका ज्ञात इतिहास 2017 से पीछे नहीं जाता। उन्हें इस बात का इलहाम तक नहीं कि पत्थरगड़ी की परंपरा दो दशक पुरानी हो चुकी है। डूंगरपुर के तलैया को देश का पहला ”गांव गणराज्य” आज से बीस साल पहले 1998 में घोषित किया गया था। आदिवासी गांवों में आदिवासियों के स्वशासन और ग्राम गणराज्य को लेकर आज जो हल्ला मचा हुआ है, उस लिहाज से यह गांव अपने भीतर कई खज़ाने छुपाए हुए है। मोहन हमें पहला खज़ाना दिखाते हैं- स्कूल परिसर के भीतर गड़ा एक पत्थर। पहले यह गांव का प्रवेश बिंदु था। खुले में था। स्कूल बाद में बना, तो पत्थर को बिना छेड़े परिसर के भीतर ले लिया गया। यही वह शिलालेख है जो संविधान के पेसा कानून के अंतर्गत तलैया को ”गांव गणराज्य” घोषित करता है। केंद्र में पेसा कानून 1996 में बना था जिसके तहत पंचायती राज को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित कर के ग्राम सभा को सारे अधिकार दे दिए गए थे। इस कानून के लिए काफी संघर्ष चला था। कानून बनने के बाद राजस्थान राज्य को अपना पेसा कानून बनाने में तीन साल लग गए और उसके नियम बनाने में और कई साल लगे, लेकिन गांववासियों ने 1998 में ही खुद को गणराज्य घोषित कर डाला।
आदिवासियों के अधिकारों के लिए जिंदगी भर लड़ने वाले स्वर्गीय डॉ. बी.डी. शर्मा ने पेसा कानून को ”बीसवीं सदी का सबसे क्रांतिकारी कानून” और ”ग्रामीण भारत का मैग्ना कार्टा” लिखा है। डॉ. शर्मा का नाम पत्थर पर खुदा हुआ है। तलैया में पत्थरगड़ी उनकी उपस्थिति में हुई थी। अकेले वे ही नहीं, देश भर से तमाम गणमान्य लोग, एक्टिविस्ट और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता 6 दिसंबर 1998 को यहां आए थे। संगमरमर के पत्थर पर सबसे ऊपर खुदा हुआ है- ”भारतीय संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए ग्राम सभा की शक्तियां”। पत्थर पर ग्राम सभा को पेसा कानून में दिए सारे प्रावधान और अधिकार लिखे हैं और सबसे नीचे लिखा है- ”डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा के कर कमलों द्वारा 6.12.1998 को गांव गणराज्य स्थापना”।
आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के लिए 6 दिसंबर 1998 का दिन ऐतिहासिक था। उस दिन ढोल बजाकर इस गांव में सबको इकट्ठा किया गया था। सबके लिए चावल और लपसी का इंतज़ाम था। यहां एक ध्यान देने वाली बात है कि राजस्थान के आदिवासी इलाकों में पत्थरगड़ी शब्द प्रचलन में नहीं है। यहां लोग शिलालेख के नाम से इसे जानते हैं। पत्थरगड़ी शायद झारखण्ड के गांवों से आया हुआ नाम है अन्यथा सबसे पहले जिस राज्य में पेसा कानून के पत्थर गाड़े गए और जिन गांवों को गणराज्य घोषित किया गया, वहां अब भी शिलालेख ही स्वीकृत है। ऐसा नहीं है कि शिला खड़ी कर के उस पर लिखने की तरकीब उसी दिन ईजाद की गई। यह आदिवासियों की बहुत पुरानी परंपरा है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण लेने के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं थी।
स्कूल के भीतर लगे गांव गणराज्य के शिलालेख के ठीक पीछे हमने जब यह जानने के लिए झांका कि कहीं पीछे की ओर भी तो कुछ नहीं लिखा, तो आंखें फटी की फटी रह गईं। उस गांव के पुरातन शिलालेखों का ज़खीरा पीछे पड़ा हुआ था जो इस तरकीब के पुरातन होने की गवाही दे रहा था। मोहन रोत ने बताया कि वहां शिलालेखों का और बड़ा संग्रह था लेकिन लोग अपने-अपने शिलालेख पहचान कर घरों में पूजने के लिए ले गए। किसी शिला पर एक तो किसी पर दो या तीन मानव आकृतियां बनी हुई थीं। किसी के हाथ में तलवार, कहीं बंदूक तो किसी के हाथ में ढाल थी। कोई तीर-धनुष लिए हुए था। एक शिला पर सांप की आकृति बनी थी। एक और शिला थी जिस पर सांप और मनुष्य दोनों की आकृतियां अगल-बगल थीं। मोहन ने बताया कि शायद किसी को सांप ने काट लिया होगा और उसकी मौत हो गई होगी, इसीलिए सांप और उस व्यक्ति दोनों की आकृति शिला पर बना दी गई।
यह एक ऐसा प्राचीन खज़ाना था जो स्कूल परिसर में उपेक्षित सा पड़ा है। वे बताते हैं कि नए ज़माने के युवकों को इसकी खास जानकारी नहीं है। पहले लोग अपने परिजनों के मरने पर शिला बनवाकर उसकी पूजा करते थे। धीरे-धीरे यह प्रथा पुरानी पड़ती जा रही है। कुछ शिलाओं पर कुछ लिखा भी हुआ था। देखने में तो वह देवनागरी के अक्षर लगते थे लेकिन उन्हें पढ़कर कोई अर्थ निकालना संभव नहीं था।
स्कूल के सामने वाली पहाड़ी पर थावरचंद का घर था। इस बीच वे वहां से कुछ रजिस्टर और काग़ज़ात लेकर आ गए। ये तलैया की ग्राम सभा के रिकॉर्ड थे। हाथ से बना एक नज़रिया नक्शा था गांव का, जिसमें गांव के संसाधनों की सूची थी। गाम सभा के तहत एक शांति समिति का निर्माण हुआ था। उसके सदस्यों की सूची भी उन्होंने दिखायी। हाथ से लिखा तलैया गांव गणराज्य का एक घोषणापत्र भी रजिस्टर में था। ग्राम सभा की एक समिति इस रजिस्टर की बाकायदा देखरेख करती है। उसकी बैठकें होती हैं। प्रस्ताव लिए जाते हैं। प्रस्तावों को ऊपर के अधिकारियों तक भेजा जाता है। इस तरह ग्राम सभा अपना काम करती है।
यह काफी दिलचस्प जान पड़ता था, लेकिन एक सवाल था कि जब यहां गांव गणराज्य बीस साल पहले ही घोषित कर दिया गया तो बीते बीस साल में क्या-क्या हुआ? एक सवाल यह भी था कि आखिर पहली पत्थरगड़ी के लिए तलैया को ही क्यों चुना गया? उस दौरान यहां की ग्राम सभा संचालित करने वालों में अगर कोई पुराना व्यक्ति मिल जाता तो पुराने काग़ज़ात और कार्यवाहियों को देखा जा सकता। आखिर संवैधानिक अधिकार के तहत पत्थर गाड़ कर, उस पर संवैधानिक अधिकार लिखकर महज खानापूर्ति की गई है या वास्तव में आदिवासियों के जीवनस्तर में कोई सुधार आया है?
यह मामला थोड़ा जटिल था। एक पुराने सरपंच हैं देवीलाल, जिनके पास ग्राम सभा के पुराने रजिस्टर हो सकते हैं। उनसे फोन पर बात हुई। वे कहीं बाहर थे। मुलाकात संभव नहीं थी। फिर नाम आया सोमा भगत का। सोमा भगत यानी सोमाजी रोत- इस इलाके के सबसे बुजुर्ग जीवित शख्स जो 6 दिसंबर 1998 को तलैया में शिलालेख गाड़े जाने के गवाह और भागीदार रहे। स्कूल से उनका घर थोड़ी दूरी पर एक पहाड़ी के ऊपर था। सोमा भगत से मिलना एक ढलते हुए युग से रूबरू होने जैसा अनुभव था।
अगली क़िस्त में सुनिए सोमा भगत की कहानी उन्हीं की जुबानी…
क्रमशः