विष्णु राजगढ़िया
केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने दिव्यांग समाज का अपमान किया है। ऐसा करना “दिव्यांग अधिकार अधिनियम 2016“ के तहत दंडनीय अपराध है। कोई दिव्यांग मामला दर्ज करा दे, तो पांच साल तक सजा और जुर्माना संभव है।
ऐसे मसलों पर केंद्रीय मंत्री की तरह मीडिया भी संवेदनाशून्य है। इसलिए यह महज आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित मामला दिख रहा है। जबकि मीडिया पर ऐसे कानूनी प्रावधानों से नागरिकों को अवगत कराने का दायित्व है। इससे मुंह मोड़ना सत्ता का कृपापात्र बने रहने का स्वार्थ मात्र है।
मामला वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष के महागंठबंधन की संभावना से जुड़ा है। इस पर व्यंग्य करते हुए केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने समाचार एजेंसी एएनआइ से कहा- “सौ लंगड़े मिलकर एक पहलवान नहीं बन सकते।“
केंद्रीय मंत्री का यह बयान समाज के कथित रूप से कमजोर, वंचित या भिन्न योग्यता वाले लोगों के प्रति घृणा और सामंती सोच का नतीजा है। ऐसे नेता दलित या पिछड़े समुदाय का कथित मसीहा होकर भी प्रभुवर्गीय मानसिकता के हैं। किसी राजनीतिक गंठबंधन के संदर्भ में अनावश्यक टिप्पणी करना समाज में दिव्यांग समाज के प्रति नकारात्मकता बढ़ाने का अपराध है।
ऐसे मामलों में मीडिया की मुख्यधारा भले ही खामोश रहे, सोशल मीडिया में इन चीजों पर सही विचार आने में देर नहीं लगती।
फेसबुक में युवा शोधकर्ता आशीष मिश्रा ने लिखा- “रामविलास पासवान के इस वक्तव्य में किसी को दिक्कत नजर क्यों नहीं आयी! उनसे जवाबतलब क्यों नहीं किया गया, कि जब आपकी सरकार विकलांगों को सम्मान और स्वाभिमान की जिंदगी दिलाने के लिए जनता का इतना पैसा बहा रही है, तब आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं? आपको लग रहा होगा कि यह चोट कांग्रेस पर है ? थोड़ा ठहरिए और ध्यान से पढ़िये, यह चोट विकलांगों पर है। विकलांगों के प्रति हिंसा हमारी भाषा और समाज के खून में है, इसलिए हमारा ध्यान ही नहीं जाता कि हम कुछ हिंसक कह रहे हैं। कोई सामान्य व्यक्ति बोल रहा हो तो एकबारगी नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन इतने बड़े मंत्री को यह छूट नहीं दी जानी चाहिए।“
जाहिर है कि जब मुख्यधारा मीडिया ने अपना असल काम बंद कर दिया हो, तो विकल्प के तौर पर ऐसे हजारों नागरिक पत्रकार पैदा हो चुके हैं, जो सत्ता की आंख में आंख डालकर बात कर सकें।
आइए, देखें कि ऐसे बयान के कारण केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान पर कानून की किन धाराओं के तहत मामला चल सकता है।
हमारी संसद द्वारा पारित “दिव्यांग अधिकार अधिनियम 2016“ को उद्देश्य बताया गया है- “दिव्यांगों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के कन्वेंशन को लागू करना।“
“द राइट्स आॅफ परसन्स विथ डिजेबिलिटिज एक्ट 2016“ नामक इस कानून को 27 दिसंबर 2016 को अधिसूचित किया गया है। प्रारंभ में ही कहा गया है कि यह कानून दिव्यांग जन के सम्मान की रक्षा करने, भेदभाव खत्म करने, समाज में उनका समावेश और भागीदारी सुनिश्चित करने तथा उन्हें मानव समाज की विविधता के तौर पर सहज स्वीकार करने के लिए बनाया गया है।
एक सौ “लंगडों“ को एक पहलवान से कमतर बताना क्या ऊपर बताए गए उद्देश्य के अनुरूप है?
अधिनियम की धारा 3(1) के अनुसार सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि दिव्यांग जनों को समानता और सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार मिले तथा उनकी संपूर्णता भी अन्य लोगों जैसी समझी जाए।
अधिनियम की धारा 6(1) के अनुसार दिव्यांगजनों को उत्पीड़न, क्रूरता, अमानवता अथवा हेय समझे जाने से बचाने के लिए सरकार समुचित कदम उठाएगी।
अधिनियम की धारा 7(1) के अनुसार दिव्यांगजनों के प्रति किसी भी प्रकार के अपशब्दों के उपयाग, हिंसा, शोषण इत्यादि को रोकने के लिए सरकार समुचित कदम उठाएगी। साथ ही, किसी भी प्रकार के अपशब्द, हिंसा, शोषण आदि का संज्ञान लेकर ऐसे मामलों के खिलाफ कानूनी कदम उठाएगी।
अधिनियम की धारा 39(1) में दिव्यांगों का समाज में समावेश करने तथा उनकी विविधता का सम्मान करने संबंधी जागरूकता फैलाने का दायित्व सरकार को सौंपा गया है।
अधिनियम की धारा 92 में स्पष्ट प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति अगर जान-बूझकर दिव्यांगजन का अपमान करता है तो उसे कम-से-कम छह माह से लेकर पांच साल तक की जेल की सजा दी जा सकती है। साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
स्पष्ट है कि रामविलास पासवान ने “दिव्यांग अधिकार अधिनियम 2016“ की उक्त धाराओं का उल्लंघन किया है। कोई दिव्यांग इससे अपमानित महसूस करते हुए उनके खिलाफ मामला दर्ज करा दे, तो?
अब संक्षेप में इसके अंतरराष्ट्रीय संदर्भ की चर्चा कर लें। रामविलास जी का यह शर्मनाक बयान दुनिया की नजरों में आ चुका है। शायद उन्होंने “दिव्यांगों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के कन्वेंशन 2007“ का घोषणापत्र नहीं पढ़ा। इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में 13 दिसंबर 2006 को पारित किया गया था। इस पर 30 मार्च 2007 को हस्ताक्षर की प्रक्रिया शुरू हुई।
दुनिया के जिन 172 देशों ने इसे स्वीकार किया, उनमें हमारा भारत देश भी शामिल है। हमारी संसद ने 2016 का कानून इसी घोषणापत्र के आलोक में बनाया है।
उक्त घोषणापत्र की धारा आठ का उल्लेख जरूरी है। इसमें दिव्यांगजन के प्रति पूर्वाग्रह तथा स्टीरियो टाइप छवि निर्माण के खिलाफ संघर्ष की बात कही गई है।
यह पूर्वाग्रह क्या है? यही न, कि “सौ लंगड़े मिलकर एक पहलवान नहीं बन सकते।“
और किसी की स्टीरियो टाइप छवि बनाना क्या होता है? यही न, कि अगर किसी व्यक्ति को पांव में कोई परेशानी हो, तो उसे “लंगड़ा“ जैसे अपमानजनक नाम से बुलाया जाए और यह समझकर चला जाए कि वह किसी योग्य नहीं।
जब केंद्र सरकार का कोई मंत्री खुद ही ऐसी अपमानजनक शब्दावली का उपयोग कर रहा हो, तो भला संयुक्त राष्ट्रसंघ के उस घोषणापत्र को और भारतीय संसद के कानून को कौन लागू कराएगा?
इस प्रकरण को राजनीतिक छिछलेपन के स्तर से निकालकर गंभीर दिशा में ले जाने का काम मीडिया का है। ऐसे मौकों पर देश के मौजूदा कानूनों पर जागरूकता फैलाना भी मीडिया का ही दायित्व है।
2014 में जब मोदी जी प्रधानमंत्री बने थे, तब कई किस्से सुनाए जा रहे थे। बिग ब्रदर इज वाचिंग यू की तर्ज पर बताया गया कि एक मंत्री अपने घर से कार में निकले, लेकिन आधे रास्ते में ही वापस लौटकर अपनी पैंट बदलनी पड़ी। पीएमओ से उन्हें फोन आ गया था कि जिंस पहनकर कार्यालय नहीं जा सकते। ऐसे किस्सों का सच-झूठ नहीं मालूम। लेकिन रामविलास जी का बयान प्रधानमंत्री द्वारा संज्ञान में लिए जाने योग्य है। किसी दिव्यांग द्वारा मामला दर्ज कराये जाने से पहले स्वयं सरकार इस पर कार्रवाई कर ले, तो बेहतर।
और हाँ, इस मामले में ‘दिव्यांग अधिकार अधिनियम 2016’ के तहत मुकदमे की बात को मजाक न समझें। “अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार रोकथाम) कानून 1989” के तहत कैसे मुक़दमे होते हैं, इसका पता लगा लें। किसी को जातिसूचक शब्द कहना ही अपराध है। पुलिस फ़ौरन पकड़कर जेल में डाल देगी। यहाँ तक कि कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस सीएस कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सहित सात न्यायाधीशों के खिलाफ इसी कानून के तहत मामला दर्ज करने का आदेश दिया है। इसलिए बेहतर होगा कि पासवान मामले में खुद केंद्र सरकार ही तत्काल कदम उठा ले।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)