घुमंतू नट समाज : केवल पुनर्वास हल नहीं, हमारी लोक परंपराओं के रक्षकों को बचना होगा

अश्वनी कबीर
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


हम अक्सर अपने तरीके से घटनाओं का विश्लेषण करते हैं. किसी भी घटना या विचार के मूल में उस समय की परिस्थितियाँ होती है.हम उस घटना के मूल में गए बिना केवल उसके बाहरी आवरण से अपनी सुविधानुसार एक छदम छवि गढ़ने का प्रयास करते हैं. यदि घटना का विषय वस्तु किसी कमजोर समाज या वर्ग से सम्बंधित है तो उसका विश्लेषण करना ओर आसान हो जाता है. क्योंकि वहां यह गुंजाइश नही रहती की उस समाज के लोग उसका अन्य पक्ष भी सामने लाएंगे.

ऐसा ही दो दिन पहले राजस्थान के झुंझनु ज़िले में नट समाज की बस्ती में हुआ. महेंद्र वाल्मीक अपनी पत्नी रेखा के साथ गोगामेड़ी के मेले में गया और घर पर अपने दो छोटे बच्चों के हाथ चारपाई से बांधकर चला गया.पीछे से लोगों ने इसकी सूचना पुलिस को दी. खबर रोचक और भावुक कर देनी वाली है तो अखबार ने भी उसे खूब अच्छी तरहं से फ़ोटो के साथ छापा.जबकि वे ही बच्चे भुख से दम तोड़ रहे हैं. न किसी को धान मिलता है न कोई अन्य सहारा है. वो बच्चे भीख मांगने को मजबूर हैं क्योंकि सरकार ने उनके करतब दिखाने पर रोक लगा दी है. इसकी कहीं रिपोर्ट भी नही मिलेगी.

इस घटना के बारे में सुनते ही हमारा खून खोल उठना लाजमी है. कुछ लोगों के मन मे तो उसको जेल भेज देने का ख्याल भी आया होगा लेकिन यह उस तस्वीर का एक पक्ष है.

महेंद्र और रेखा नट समाज से सम्बंधित है जो फुश के घोड़े, हाथी ओर ऊंट बनाते है उन्हें बेचने के लिए वो गोगा मेड़ी के मेले में गए.चूंकि नट समाज को हीन दृष्टि से देखा जाता है, कोई उनको छूना भी पसंद नही करता. तो वो उन बच्चों को किसके सहारे छोड़कर जाता? जिस समाज के लोग उनके लोगों को शमशान में जलाने तक नही देते उनके भरोशे तो कतई नही छोड़ सकते थे.

अभी एक सप्ताह पहले राजस्थान के नागौर जिले में ताऊसर गांव में बंजारा समाज की बस्ती को ढहा दिया गया. मध्य- प्रेदेश के भोपाल में घुमंन्तु समाज की बस्ती को जला दिया गया. समाधान के तौर पर सरकारें उनके केवल पुनर्वास या जमीन देने की बात होती है लेकिन क्या ये समस्या केवल जमीन देने से हल हो जाएगी? इन समस्याओं को समग्रता में समझना होगा उसी से ही कोई रास्ता निकल सकता है.

जिस गोचर भूमि से इन समाजों को उजाड़ा गया है, वो केवल भूमि का टुकड़ा मात्र नही है. यह घूमंन्तु समाज के जीवन का आधार है. यहीं पर घूमंन्तु समाजों के डेरे पड़ते. यहीं पर इनके मवेशी भेढ़, बकरी, ऊंट और गाय- बैल चरा करते. इसी भूमि पर इनके खेल तमाशे होते. यही भूमि हमारी इन समाजों के साथ जुगलबन्दी का आधार हुआ करती थी. इनके आर्थिक क्रियाकलापों यही से सम्पन्न होते थे. अर्थात ये भूमि उनके वजूद ओर संस्कृति को तय करती थी

साल भर निरन्तर घूमने वाले ये समाज कृषि गतिविधियों, परिवहन, व्यापार, पर्यावरणीय प्रबंधन, औषधियों, मौखिक इतिहास की परम्परा और कला- संस्कृति के विभिन्न पक्षों को एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान तक लेकर जाते रहे हैं. बदले में इन समाजों को अनाज मिलता था.

यह बंजारे ही है जिन्होंने हिंदुस्तान भर में बावड़ियां, टांके, तालाब, जोहड़ बनाए उनकी महिलाओं ने हमे गोदना(टैटू) करना और कशीदाकारी सिखाई. यही लोग अरब और मुल्तान से व्यापार करते, गधों ओर ऊंटों की सहायता से पूरे भारत में नमक पहुँचाया.कालबेलिया समाज ने विभिन्न बीमारियों के ईलाज से लेकर, जन्मघुट्टी, सांप के जहर के ईलाज के लिए जड़ी बूटी बनाई, सूरमा- सुरमी लेकर आए. गांवों में आटा पिशने की पत्थर की घट्टी पहुँचाई.

कुचबन्दा ने अपने हाथों से और बागरी ने अपने रेवड़( बकरी, भेड़) से मिट्टी का प्रबंधन किया, नट और भोपा ने कला, मनोरंजन के साथ समाज सुधार के जिम्मे को उठाया तो गवारीन ने ग्रामीण समाज की महिलाओं की जरूरतों को पूरा किया. जागा ने पीढ़ियों का रिकॉर्ड रखा तो, कटपुतली भाट ने अपने खेल के जरिये इतिहास का वर्णन किया. ओढ़ समाज मिट्टी को समतल करता तो बावरिया फसलों की रखवाली करता. गाड़िया लूहार ने कृषि के औजार बनाए तो सिंगीवाल जंगल से जड़ी बूटी लेकर आया.

लेकिन जैसे जैसे हमारा सामाजिक आर्थिक ढांचा बदला, जजमानी व्यवस्था समाप्त हुई, मशीनीकरण और तकनीकीकरण सुरु हुआ वो जुगलबन्दी समाप्त हो गई. मनोरंजन के नए साधन आ गए. अब हमारी जरूरतें अन्य जरिए से पूरी होने लगी. इनके पारम्परिक रोजगार पर रोक लगा दी गई इससे इन समाजों का जीवन ठहर गया.

आज ये समाज मुफ़्लिशि का जीवन जी रहें हैं. किसी राज्य में इनको ओ.बी.सी. तो कहीं एस.सी. वर्ग में रखा जाता है. न जमीन का पट्टा है, न धान मिलता है और न ही किसी स्कीम का फायदा. इन लोगों को श्मशान भूमि में दफनाने तक नही दिया जाता.

सरकारें आयोग बनाती हैं, बोर्ड बनाती हैं, ऐसे सदस्य नियुक्त करती हैं जिनको घुमंन्तु समाज से उनके जीवन से कोई वास्ता नही. त्रासदी यह है कि आजादी इतने वर्ष बीतने के बाद भी हमे यह नही पता चल सका कि इन समाजों की जनसंख्या कितनी है?

केवल घुमंन्तु समाजों के उत्थान और उनके कला संरक्षण के नाम पर हिंदुस्तान में कई हज़ार सामाजिक संस्थाएँ, एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं. घुमंन्तु का तो उत्थान नही हुआ लेकिन इनके जरिए उन संस्थाओं का जरूर उत्थान हो गया.

संभावना क्या देते हैं?

इन समाजों के पास सृजित ज्ञान की अथाह पूंजी है जिससे आज की अधिकांश समस्याओं का समाधान सम्भव है लेकिन इनका ज्ञान इनके जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है यदि ये समाज बचेगा तो ही यह ज्ञान बचेगा.

यदि हम उन्हे रोजगार दे पाएँ और वह भी उनसे संबंधित काम के जरिए ही तो इससे उनकी समस्या का भी समाधान हो सकता है, उनका सहज और उपयोगी ज्ञान भी बच सकता है और वो परम्परा भी सहेजी जा सकती है.

नट बच्चे बचपन से ही रस्सी पर चलने लगे जाते हैं, भोपा बच्चे गज़ब के कलाकार हैं. बिंजारी से बेहतरीन कोई गोदना ओर काशीदाकार आज तक नही कर पाया. बंजारे के पानी के प्रबंधन के ज्ञान का उपयोग किया जा सकता है.

आंध्र प्रेदेश और कर्नाटक सरकार की तर्ज पर अन्य राज्यों में भी कालबेलिया को एन्टी वेनॉम बनाने वाली ड्रग फार्मा कंपनी में लगा सकते हैं. सिंगीवाल से जड़ी बूटी के ज्ञान को सीखा जा सकता है. बागरी ओर कुचबन्दा से मिट्टी के प्रबंधन के काम को किया जा सकता है. बहरूपिया और कटपुतली भाट को सामाजिक सदभाव बढ़ाने तथा सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाने में मददगार हो सकते हैं.

इन समाजों की कलाओं, खान -पान, उनका पहनावा और उनकी ख़ास तरहं की जीवन शैली का प्रयोग पर्यटन के साथ- साथ भारत को सॉफ्ट पावर बनाने में रूप में किया जा सकता है.