उग्र राष्ट्रवाद के बादल में कटु आर्थिक सच्चाई कब तक छुप सकेगी



मोदी सरकार ने मीडिया की सहायता और साज़िश से चुनाव से पहले और और चुनाव के बीच में कटु आर्थिक सच्चाइयों को जनता की नज़रों से ओझल रखा, हालांकि उस समय भी सच्चाई छन-छन कर सामने आती रही जिससे सरकार उस समय इनकार करती रही। यहां तक कि सरकारी संस्था NSSO  के नौकरी से संबंधित आंकड़ों को भी झूठ बता दिया था। अब जब चुनाव खत्म हो गए हैं और मोदी जी पहले से भी ज़्यादा ताक़तवर बन कर उभरे हैं, ये कटु आर्थिक सच्चाइयां उनकी सरकार के सामने मुंह बाए खड़ी है,सोने पर सुहागा यह कि जिन डोनाल्‍ड ट्रम्प की चुनावी सफलता के लिए हिंदूवादियों ने केवल मुस्लिम-विरोध के चलते हवन पूजन किया था उसी ट्रम्प ने मोदी सरकार को झटका देते हुए भारत के सियासी तिजारत में सहूलियतों को समाप्त कर दिया है जिससे भारत की लगभगग दो सौ वस्तुओं को अमरीका भेजना मंहगा हो जाएगा। ज़ाहिर है, उनकी सप्लाई रुक जायेगी जिससे भारत में उनका उत्पादन कम होगा। उत्पादन कम होगा तो उन क्षेत्रों में रोज़गार घटेगा और सप्लाई न होने से उनका एक्सपोर्ट रुकेगा जिसका असर विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ेगा। इस तरह ट्रम्प ने भारत को आर्थिक मैदान में दोहरी मार दी है।

समस्या का अंत यही नहीं होता। विश्व बैंक ने भारत को विकासशील देशों की लिस्ट से भी बाहर कर दिया है। कहां भारत विकसित देशो की श्रेणी में शामिल होने के लिए हाथ-पैर मार रहा था और कहां सत्तर की दहाई में उसे विकासशील देश की मिलने वाली हैसियत भी समाप्त हो गयी। अब भारत अफ्रीका के कई देशों की श्रेणी में आ गया जिस श्रेणी में पाकिस्तान भी है।

सरकार ने बड़ी चतुराई के कटु आर्थिक सच्चाइयां जनता से छुपाये रखीं और उन्हें “घर में घुस के मारूंगा” का ऐसा नशा पिला दिया कि चुनाव में न तो उनके सामने बढ़ती बेरोज़गारी कोई मसला थी न किसानों की आत्महत्याएं, न बर्बाद होते छोटे कारोबार, न ही बढ़ता हुआ विदेशी क़र्ज़ और असुरक्षित सीमाएं। आंकड़े बताते हैं की मोदी जी की पांच वर्ष की हुकूमत में हमारे ज़्यादा फौजी शहीद हुए हैं, आतंकवादी हमले ज़्यादा हुए हैं, युद्ध विराम का उल्‍लंघन ज़्यादा हुआ है। यहां तक कि उरी, पठानकोट के हमारे फौजी अड्डे भी सुरक्षित नहीं रहे।

पुलवामा में जो कुछ हुआ वह गहन समीक्षा और जांच का विषय है लेकिन हवाई बंधाई में माहिर संघ परिवार के प्रचार तंत्र का ही कमाल था कि यह सब पीछे चला गया और उग्र राष्ट्रवाद के बादल में यह सारे काण्ड और कटु आर्थिक सच्चाइयां पीछे चली गयीं। बेरोज़गारी के जो आंकड़े चुनाव के दौरान सामने आये थे संघ परिवार और मीडिया ने हवा बांध कर उनको नकार दिया लेकिन अब जब चुनाव खत्म हो गए और इस हवा बंधाई से चुनावी सफलता की लहलहाती फसल काट ली गयी, तो सरकार को भी NSSO के उन आंकड़ों को मानना पड़ा जिसमें कहा गया था की भारत में बेरोज़गारी का स्तर विगत 45  वर्षों में सब से ऊंचा हो गया है।

नए आंकड़ों के अनुसार जुलाई 2018  से जून 2019 तक देश में बेरोज़गारी की दर 6.1 फीसद रही जो 45  वर्षों में सबसे ज़्यादा है। यहां तक कि 2008-13 तक की मंदी में जब अमरीकी अर्थव्यवस्था तक की चूलें हिल गयी थीं, तब भी भारतीय अर्थव्यवस्था डिगी नहीं और न ही बेरोज़गारी की दर इतने खतरनाक स्तर पर पहुंची थी। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में बेरोज़गारी की समस्या से निपटने की कुछ ठोस तजवीज़ें रखी थीं लेकिन राष्ट्रवाद के शोर में जनता ने उन सब की अनदेखी कर दी। सरकारी कंपनी बीएसएनएल के एक कर्मचारी ने मुझे बताया की यह जानते हुए कि मोदी जी के दोबारा सत्ता में आने से बीएसएनएल बंद हो सकती है और हम सब सड़क पर आ जाएंगे, हमें वेतन के अतिरिक्त मिलने वाली सभी सुविधाएं पहले ही बंद की जा चुकी थीं फिर भी इन कर्मचारियों में से अधिकतर ने बीजेपी को वोट दिया था।

मोदी जी अपनी दूसरी पारी में बेरोज़गारी की इस समस्या से कैसे निपटेंगे यह अभी स्‍पष्‍ट नहीं है। पहली बार तो उन्होंने बेरोज़गारों को पकोड़े तलने का मश्विरा दे कर काम चला लिया था। इस बार क्या करेंगे इस पर नज़र बनाये हुए हैं क्योंकि सरकार बजट तो पहले ही पेश कर चुकी है। अब जो भी सामने आएगा वह पूरक बजट में ही होगा। सरकार की नीयत पर शक नहीं करना चाहिए लेकिन वैश्विक आर्थिक हालात, ईरान-अमरीका के बीच समस्या, अमरीका का भारत को ट्रेड के मैदान में झटका, आदि को देखते हुए नहीं लगता कि अगले कुछ वर्षों में कोई बड़ा क़दम सरकार उठा सकेगी। उधर प्रतिदिन बेरोज़गारों की तादाद बढ़ रही है।

मोदी सरकार ने सकल घरेलु उत्पाद (GDP) की गणना का फार्मूला बदल कर उसमे क़रीब 2 फीसद का इज़ाफ़ा दिखा दिया लेकिन फिर भी सच्चाई जल्द ही सामने आ गयी। सरकार की तमाम कलाबाजियों के बावजूद 2018-19  की चौथी तिमाही में आर्थिक विकास दर 5.8 फीसद रही जो पांच वर्षों में सबसे कम है। ऐसे में सरकार के सामने अपने वादों को पूरा करने की बड़ी समस्या खड़ी होगी, दूसरी ओर देश पर विदेशी क़र्ज़ा बढ़ता ही जा रहा है।

विगत चार वर्षों में विदेशी क़र्ज़ में 49 फीसद का इज़ाफ़ा हुआ है और इस समय देश पर 82  लाख करोड़ का विदेशी क़र्ज़ है। समझा जा सकता है कि इसकी अदायगी तो दरकिनार इस पर सूद ही कितना देना होता होगा। जानकारों का कहना है कि विदेशी क़र्ज़ की बड़ी वजह सार्वजनिक क़र्ज़ में 52 फीसद का इज़ाफ़ा है जो विगत चार वर्षों में 48  लाख करोड़ से बढ़ कर 73 लाख करोड़ हो गया है। सरकार ने अपनी स्टेटस रिपोर्ट में कहा है कि सरकार की पूरी देनदारी गिरावट की ओर अग्रसर है और वह राजकोषीय घाटा कम करने के लिए मार्किट से क़र्ज़ की मदद ले रही है।

दरअसल, सरकार की आर्थिक परेशानियों में बहुत बड़ा हाथ गैर-उत्पादक खर्च हैं। मिसाल के तौर पर प्रधानमंत्री के द्विदेशी दौरों पर 66 अरब रुपया खर्च किया गया जबकि सरकार ने अपनी पब्लिसिटी पर 22 खरब रुपया खर्च किया। सकल घरेलू उत्पाद ही पांच वर्षों में सबसे निचले स्तर पर नहीं आया, इन डेढ़ वर्षों में हम चीन से पहली बार पिछड़ गए हैं। रिज़र्व बैंक ने आशा जताई थी की 2019-20 में यह 8.2 फीसद तक जा सकता है जिसके इमकान बहुत कम दिखाई देते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जीडीपी में कृषि का योगदान कम होता जा रहा है। इस साल अगर मानसून ने साथ न दिया तो हालात और भी बिगड़ सकते हैं।

उधर मैन्युफैक्चरिंग और ऑटोमोबाइल सेक्टर में भी आफत आयी हुई है। कार बनाने वाली कम्पनियों ने उत्‍पादन कम कर दिया है क्योंकि खरीदार घटे हैं। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में पिछले वर्ष जनवरी से मार्च की तिमाही में विकास दर 5.9 फीसद थी जो इस साल घट कर साढ़े तीन के आसपास आ गयी है। अमरीकी पॉलिसी में बदलाव के बाद इस सेक्टर पर और संकट निश्चित रूप से आएंगे। इन सब का असर रोजगार के अवसरों पर ही सब से ज़्यादा पड़ेगा। सरकार के लिए आवश्यक होगा कि वह पैदावार बढ़ाने के लिए खपत बढाए और खपत तभी बढ़ेगी जब जनता की जेब में पैसा होगा। यह पैसा कहां से आएगा सरकार के पास फिलहाल इसका कोई ब्लूप्रिंट नहीं है। नई वित्त मंत्री के सामने यह आर्थिक सवाल मुंह बाए खड़े हैं जिनके लिए ठोस क़दम उठाने होंगे। लफ़्फ़ाज़ी कर के फाइलें दबाना और आर्थिक संकट से निपटना दो अलहदा बातें हैं।