‘मुक्काबाज़’ : ब्राह्मणवाद के चेहरे पर एक प्यार भरा मुक्का…!



 

अरविंद शेष

चूंकि पहले से यह प्रचारित था कि ‘मुक्काबाज’ जाति के सवालों से भी जूझती है, इसलिए उम्मीद तो थी ही। दरअसल, जब कहीं कुछ नहीं होता है, तब कुछ दिखने पर उत्साहित हो जाना स्वाभाविक है। ‘वास्तविक घटना पर आधारित’ इस फिल्म में खेल के तंत्र पर काबिज ब्राह्मणों की सत्ता को फिल्मी तरीके से जरूर दिखाया गया है, लेकिन समाज में जात के मसले को दिखाते हुए इस तरह का अनाड़ीपना कि कहने का मन है कि भारतीय समाज में जाति का जो मनोविज्ञान रहा है, उसमें पर्दे पर जाति के सवाल से जूझने और खासतौर पर ब्राह्मणवाद को बेपर्द करने के लिए किसी वैसे व्यक्ति की मदद ली जानी चाहिए, जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ ‘काउंटर जातिवादी’ माना जाता हो! लेकिन सरोकार भी दिखाना है और बाजार भी निभाना है! ऐसे में यह चुनौती थोड़ी मुश्किल हो ही जाती है। वैसे बिना किसी की मदद के सुभाष कपूर ने आखिर ‘गुड्डू रंगीला’ बनाई ही थी, जिसमें शायद किसी ‘काउंटर जातिवादी’ की मदद नहीं ली गई थी, लेकिन जो एक शानदार व्यावसायिक और कामयाब फिल्म है। भारत में सामाजिक मुद्दों को केंद्र बनाना और उसे निबाह ले जाना, इतना आसान नहीं है। वैसे सामाजिक मसले पर फिल्म बनाने वालों को पाकिस्तान में बनी फिल्म ‘बोल’ को बार-बार देखना चाहिए।

बहरहाल, हीरो श्रवण के बारे में भगवान प्रसाद मिश्रा कहता है कि वह राजपूत है… उनके खून के बारे में पहले से तय नहीं कि क्या है… फिर कई छोटी जात के लोग भी सिंह लगा कर खुद को राजपूत बताते हैं! फिल्म में जात की बात देखते हुए हीरो श्रवण के अपने आसपास के लोगों के साथ व्यवहार से आप इन पहचानों में से निकाल लेते हैं कि भगवान मिश्रा ने श्रवण की पहचान के बारे में जो कहा, वह कहां से आता है। जब श्रवण कुमार पहली बगावत करता है कि ‘हम यहां मुक्केबाजी सीखने आते हैं, मालिश करने नहीं’ और अपने मिश्रा गुरु के सामने खड़े हो जाने पर मुंह पर एक जरूरी मुक्का जमा देता है तो वहां राजपूती ठसक ही दिखती है..!

और कभी भूमिहारों की गुलामी करते अपनी पूर्वजों को याद करते हुए आज अफसर बन बैठे ‘यादव जी’ हीरो को तंग करते हैं तो हीरो उन पर अपनी ‘मुक्काबाजी’ का ऐसा धौंस जमाता है कि ‘यादव जी’ पैंट में ही पेशाब कर देते हैं और हीरो उसका सेल्फी वीडियो बनाता है! फिल्म के हिसाब से यादव जी भगवान मिश्रा के बराबर के सामंती व्यवहार वाले हैं। लेकिन खैर… मुक्केबाज को ‘नेशनल’ में नहीं खेलने देने की जिद में भगवान मिश्रा आखिर तक अपनी जिद में अड़ा रहता है और कूटे जाने के बावजूद अपना तंत्र बनाए रखने के लिए समझौते के तहत इस अपमान का भी त्याग कर देता है कि अपनी पिटाई छिपी रह जाए।

सबसे ज्यादा दया तब आती है जब ब्राह्मण, राजपूत के बरक्स बनारस में मुक्केबाजी के एक कोच से मिश्रा जात पूछता है और कोच हजार टन की हिचकी के साथ बताता है- ‘हरिजन!’ अव्वल तो हरिजन शब्द तक का प्रयोग अब बंद है। फिर हरिजन या दलित या अनुसूचित जाति, कोई जाति नहीं है, जाति-समूह है। इसमें हर जगह के मुताबिक कितनी-कितनी जातियां हैं। किसी एक जात के बारे में पता कर लिया जाता तो इतने अधकचरेपन का विज्ञापन नहीं होता। अब कह सकते हैं कि वे सारे ‘हरिजनों’ की ‘पीड़ा’ दिखाना चाहते थे! लेकिन जब एक भगवान मिश्रा ब्राह्मण हो सकता था, संजय कुमार को पीटने वालों की जात भूमिहार हो सकती थी, तो कोच संजय कुमार की भी कोई जाति हो सकती थी, समझने वाले समझ लेते कि वह दलित या बहुजन या अनुसूचित जाति का है। लेकिन यहां फिल्मकार शायद सही है। कोच संजय कुमार खेलों के तंत्र पर काबिज ‘ऊंची’ कही जाने वाली जाति के जाल में पेशेवर तरीके से दखल देता है, थोड़ा-सा सह लो, फिर खुद को काबिल बनाओ, और उनके बराबर खड़े हो जाओ…!

आज के दौर में जब दलित तबका ब्राह्मणवादी राजनीति के बरक्स प्रतिरोध की राजनीति के एक नए मानक रच रहा है, आरक्षण एक बड़ा सवाल है, वैसे में ‘कोटा’ के नाम से ही नफरत करने वाला और अलग बर्तन में पानी देने के अपमान पर प्रतिरोध जताने के बजाय शांत रह जाने वाला कोच संजय कुमार निश्चित रूप से गांधी का ‘हरिजन’ ही हो सकता था, भीमराव का ‘दलित’ नहीं! ‘हरिजन’ दया से मिला सामाजिक पद है, ‘दलित’ संघर्ष और प्रतिरोध के आंदोलन से उपजा मानक, जो अब इस पहचान को भी पीछे छोड़ कर ‘बहुजन’ की ओर बढ़ रहा है। अगर फिल्म की कहानी का एक देशकाल था, तो जिस तरह उस देशकाल को आधुनिक मोबाइल और कम्प्यूटर की तकनीक से लैस किया गया, उसमें इस ‘हरिजन’ से भी जूझ लिया जाता!


बहरहाल, अलग जग में पानी लाने से लेकर ‘हम ब्राह्मण हैं… हम आदेश देते हैं’ जैसे जुमलों के साथ ब्राह्मणों का चेहरा दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन उसके समांतर भगवान मिश्रा के भाई को ‘गरीब ब्राह्मण’ के रूप में पेश करके उसकी भरपाई कर दी गई है। सबसे मजेदार तब लगता है कि जब राजपूत हीरो से ब्राह्मण हीरोइन की अंतरजातीय शादी होती है। यह प्रेम के बाद हुई अरेंज्ड मैरेज यानी पारंपरिक शादी होती है, जिसमें खलनायनक भगवान मिश्रा को छोड़ कर किसी को आपत्ति नहीं होती है, सब कुछ धूमधाम के साथ होता है। किसी कस्बे या जिले में एक बेरहम ब्राह्मण सामंत के साए में खुली जातीय बर्बरताओं के समांतर इस तरह सबकी सहमति और प्रेम भाव के बीच पारंपरिक तरीके से अंतरजातीय शादी… भले ही वह राजपूत लड़के और ब्राह्मण लड़की के बीच हो..!!! इससे ज्यादा बड़ी क्रांति और क्या होती..!

हालांकि फिल्म में देश भर में खेलों के तंत्र पर काबिज लोगों और उसकी राजनीति की अच्छी झलक देखी जा सकती है। मुक्केबाजी के खेल में कई जगह आप सचमुच की प्रतियोगिता की तरह का रोमांच हासिल कर सकते हैं। गीतों के शब्द अच्छे हैं। ‘बहुत हुआ सम्मान…’ में प्रतिरोध-तत्त्व बढ़िया है। (इसकी धुन से किसी कथित कविता या गीत जैसा कुछ ध्यान में आ रहा है, लेकिन चूंकि याद नहीं है, इसलिए कोई टिप्पणी नहीं।) सबसे ज्यादा हिम्मत दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या के प्रसंग को लगभग ज्यों का त्यों दिखाने की गई है। इसके लिए अनुराग कश्यप को बधाई मिलना चाहिए। खासतौर पर ‘भारत माता की जय’ के नारे के साथ आज देश की क्या हालत हो चुकी है, इसका अंदाजा वही लगा सकता है, जिसे बिना किसी कसूर के कोई भीड़ ‘भारत माता की जय’ का नारा लगा कर मार डालती है!

लेकिन चूंकि अनुराग कश्यप खुद ही कहते हैं कि फिल्मकारों से फिल्मों के जरिए संदेश देने के उम्मीद नहीं करनी चाहिए, इसलिए उनकी फिल्म ‘मुक्काबाज’ से भी उनकी बात समझ में आई।

पुनश्चः अनुराग कश्यप को मेरी ओर स्पेशल वाला थैंक्यू और बधाई कि जिस बनारस को खासतौर पर गालियों के लिए भी जाना जाता है, उस बनारस और इलाहाबाद के सामंती परिवेश को फिल्माते हुए कहीं भी मां-बहन की गाली का इस्तेमाल नहीं हुआ और गालियों के बिना फिल्म में कोई कमी नहीं लगी। पिछली बार ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की जब मैंने इस लोकेशन से गालियों के बेवजह और जबरन इस्तेमाल पर सवाल उठाया था तो बहुत सारे लोगों को बुरा लगा था। आखिर अनुराग कश्यप ने भी कर दिखाया..! हालांकि इस संदर्भ में कोई देखना चाहे तो ‘पानसिंह तोमर’ देख सकता है, जो इस सवाल पर एक कामयाब प्रयोग है।

 

 

(अरविंद शेष वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके ब्लॉग चार्वाक से साभार प्रकाशित)