मोदी के उत्‍तराधिकारी का सवाल आते ही रामचंद्रन-जयललिता का मॉडल क्‍यों याद आता है?



जयललिता जयराम (24 फ़रवरी 1948) उर्फ अम्मा ने 1982 में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) की सदस्यता ग्रहण करते हुए एम.जी. रामचंद्रन के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। 1983 में उन्हें पार्टी का प्रोपेगेंडा सचिव नियुक्त किया गया। बाद में अंग्रेजी में उनकी वाक् क्षमता को देखते हुए पार्टी प्रमुख रामचंद्रन ने उन्हें राज्यसभा में भिजवाया और राज्य विधानसभा के उपचुनाव में जितवाकर उन्हें विधानसभा सदस्य बनवाया। 1984 से 1989 तक वे तमिलनाडु से राज्यसभा की सदस्य रहीं…।

घबराइए नहीं, मैं मरहूम जे. जयललिता के बारे में इसके आगे लिखने नहीं जा रहा। विकिपीडिया पर उनकी तमाम जानकारी उपलब्ध है। लोकसभा का चुनाव अभी-अभी सम्पन्न हुआ है, नए मंत्रिमंडल का गठन हुआ है, लेकिन इन तमाम पहलुओं को छोड़ आज अचानक मुझे बरबस अम्मा की याद आ गई है। एक कल्पना है जिसका एक पहलू अम्मा से जुड़ता है, शायद इसलिए अम्मा की याद आई हो।

मेरी कल्पना के दूसरे सिरे पर हैं दिखती हैं स्मृति ज़ुबिन ईरानी। उनका राजनीतिक जीवन 2003 में तब शुरू हुआ जब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सदस्यता ग्रहण की और दिल्ली के चांदनी चौक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा। वे कांग्रेस के उम्मीदवार और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल से हार गईं। फिर 2004 में इन्हें महाराष्ट्र यूथ विंग का उपाध्यक्ष बनाया गया। इन्हें पार्टी ने पांच बार केंद्रीय समिति के कार्यकारी सदस्य के रूप में मनोनीत किया और राष्ट्रीय सचिव के रूप में भी नियुक्त किया। 2010 में उन्हें भाजपा महिला मोर्चा की कमान सौंपी गई। 2011 में वे गुजरात से राज्यसभा की सांसद चुनी गई। इसी वर्ष इनको हिमाचल प्रदेश में महिला मोर्चे की भी कमान सौंप दी गई।

आम चुनाव, 2014 में स्मृति ने कांग्रेस के तत्‍कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास के खिलाफ अमेठी संसदीय सीट से चुनाव लड़ा और उन्हें कड़ी चुनौती दी। भले ही वह ये चुनाव भी हार गईं, लेकिन राज्यसभा का सदस्य होने के नाते उन्हें भारत सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया गया। अभी बीते 2019 के लोकसभा चुनाव ने स्मृति ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अमेठी में पराजित किया। आज वे भारत की महिला एवं बाल विकास और कपड़ा मंत्री हैं।

जयललिता और स्‍मृति ईरानी को एक साथ रखकर देखना कुछ चौंकाने वाले साम्‍य पैदा करता है। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत तथा उसमे मिले त्वरित स्पेस और उड़ान के चलते ये दोनों शख्सियतें आज एक साथ मुझे याद आ रही हैं।

जयललिता को राजनीति में जो स्पेस एम.जी. रामचंद्रन ने दिलाई, उसके पीछे का कारण इतना ही समझ पाता हूं कि दोनों अपने फिल्मी करियर में एक-दूसरे के साथ थे या यूं कहें कि जयललिता, रामचंद्रन की शिष्‍या थीं और दोनों अभिन्‍न दोस्त थे। ये सब देखते हुए स्पेस मिलना लाजिमी था। आज जिस गति से स्‍मृति ईरानी का कद बीजेपी में बढ़ा है, इसे समझने के लिए जयललिता और रामचंद्रन के उदाहरण का यदि आह्वान किया भी जाए तो कुछ सवाल मेरी समझ से परे हैं।

आखिर क्या ख़ासियत है उनमें जो नरेंद्र मोदी को प्रभावित करती है। वे न तो संघ की प्रचारक रही हैं, न ही वे राजनीतिक पृष्‍ठभूमि से आती हैं। बतौर तुलसी (जिस किरदार में वो थीं) वे  प्रधानमंत्री को प्रभावित करती है या बतौर स्मृति? क्या बीजेपी खेमे में भी इस तरह के सवाल उठते होंगे? इसका जवाब चाहे जो हो, लेकिन स्‍मृति ईरानी का अमेठी से चुनाव जीतना बहुत से लोगों को नागवार गुज़रा है। खासकर संघ की पृष्‍ठभूमि से आने वाले लोग इससे खुश नहीं हैं। कहीं कोई शंका ज़रूर होगी, वरना इतनी बड़ी जीत और जश्‍न नदारद?

रामचंद्रन-जयललिता मॉडल की मर्ज पर सवाल बेशक बनता है कि क्‍या स्‍मृति ईरानी प्रधानमंत्री मोदी की उत्‍तराधिकारी हो सकती हैं। यह सवाल कई के मन में है। अगर कहीं वे भविष्‍य में भारत की प्रधानमंत्री बनती हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है, जबकि मायावती, मुलायम सिंह यादव, ममता बनर्जी और ऐसे तमाम बड़े चेहरे उस पद का दावेदार खुद को मानते हों।

यही सब सोचते हुए इस बीच एक बात तय कर पाने में मैं सफल रहा कि बहुत मुमकिन है मोदी जी मैकडॉनल्ड्स में बतौर वेट्रेस और क्लीनर स्मृति ईरानी के काम करने से ही प्रभावित हों। आखिर को यह एक बेहद मुश्किल भरा कार्य है। चाय बेचने के काम से कम नहीं। कब कहां प्रभाव का कोई सिरा जुड़ जाए, कहा नहीं जा सकता।

वजह चाहे जो हो, स्‍मृति ईरानी जितनी तेजी से शिखर की ओर बढ़ रही हैं, उस दिन की कल्‍पना दूर नहीं जब जयललिता की ही तरह जनता उन्हें अम्मा (मां) और पुरातची तलाईवी (क्रांतिकारी नेता) कहकर बुलाने लगे। इस कल्‍पना में वास्‍तविकता का भी कुछ अंश है। जिस तरीके से एनएसएसओ द्वारा जारी बेरोज़गारी के सरकारी आंकड़ों को उन्‍होंने फर्जी करार दिया है, यह सरकार और सियासत में उनकी बढ़ी हुई ताकत का संकेत है। उत्‍तराधिकार ऐसे ही नहीं मिलता है। उसके लिए क्रांतिकारी काम करने पड़ते हैं। अभी तो ये अंगड़ाई है…।