सईद नक़वी
हमें बार-बार यह बात ज़ोर देकर बताई जा रही है कि 2017 का दिल्ली नगर निगम चुनाव बीजेपी ने केवल एक वजह से जीता: मोदी लहर। चलिए मान लेते हैं। इससे पहले भी हालांकि दो नगर निकाय चुनावों में बीजेपी ही जीती थी। पूछा जाना चाहिए कि उस वक्त लहर किसने पैदा की थी?
समाचार ऐंकर अपनी सीटों पर कामोन्माद जैसे आनंद में उतराते हुए उछल-उछल कर चिल्ला रहे थे, ”केजरीवाल राउटेड, केजरीवाल राउटेड” (केजरीवाल की हार)। उनमें एक का मुंह तो ऐसे बाहर निकल आया था जैसे तुरंत फेंचकुर फेंक देगा। उसने अनियंत्रित उत्साह में अपनी तीन उंगलियां आगे की ओर करते हुए कहा, ”केजरीवाल तीसरे नंबर पर है, तीसरे पर।”
नतीजा सामने आया तो केजरीवाल तीसरे पर नहीं, 48 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस 30 सीट लेकर तीसरे स्थान पर थी। बीजेपी ज़ाहिर तौर नपर इन सभी से आगे थी। उसे 270 में से 181 सीटें हासिल हुईं।
केजरीवाल के लिए जिस किस्म के शब्दों का इस्तेमाल किया गया- राउटेड, स्वेप्ट अवे, फिनिश्ड, डेस्ट्रॉयड, क्रश्ड, स्मैश्ड (पराजित, सूपड़ा साफ़, खात्मा, रौंदा गया, चूर-चूर)- उन्हें सुनकर आश्चर्य होता है कि आखिर समानांतर कोश में ऐसा कौन सा शब्द बचा है जिसका इस्तेमाल वास्तव में तीसरे नंबर पर रही कांग्रेस के लिए किया जा सकता है। बड़ी बात यह है कि क्या केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का एमसीडी से वाकई ”सूपड़ा साफ़” हो सकता है, जबकि वे वहां कभी थे ही नहीं। हां, कांग्रेस के साथ ऐसा बेशक हुआ था, लेकिन इस हकीकत से ऐंकरों की सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कांग्रेस की हार पर बात करते हुए ऐंकरों का स्वर असाधारण रूप से विनम्र रहा।
मीडिया में केजरीवाल के प्रति आत्यन्तिक घृणा मेरे लिए एक पहेली जैसी चीज़ बनी हुई है। दशकों तक लिखने और टीवी पर समाचार प्रस्तुत करते रहने के बाद भी मैं ताजिंदगी इस बात को नहीं समझ पाया कि एक पत्रकार अपने भीतर ”घृणा” को कैसे पलने दे सकता है। पत्रकारिता और कूटनीति का बुनियादी उसूल हमेशा से यही रहा है कि अपना संतुलन कायम रखा जाए।
आजकल प्राइम टाइम पर होने वाली चर्चाओं में जिस किस्म की हड़बोंग, सनक और पक्षपात का नज़ारा देखने को मिलता है वह निस्तब्ध कर देने वाला है। ऐंकर खुद से असहमत पैनलिस्टों पर चीखता है और बीजेपी के प्रवक्ताओं को रियायत बख्शता है।
मैं इसका सारा दोष उन पत्रकारों पर डालने से बचना चाहता हूं जो आज मीडिया का चेहरा हैं। वे मीडिया के मालिकाने के एक तय ढांचे के भीतर अपना काम करते हैं। जाहिर है, वे जिसकी खाते हैं उसी की गाते हैं।
कुछ दशक पहले तक हालात इससे बहुत फ़र्क नहीं थे। मसलन, पुराने ज़माने के मालिक रहे रामनाथ गोयनका के भी राजनीतिक हित हुआ करते थे। उन्होंने ही आरएसएस के नानाजी देशमुख के साथ मिलकर उस उभार को जन्म दिया जिसे बाद में जेपी के बिहार आंदोलन के नाम से जाना गया। बाद में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार में भी वे हितधारक की भूमिका में ही रहे। इन तथ्यों को दिमाग में रखते हुए भी एक बात कही जा सकती है कि उनके अखबार की नीतियां उसके ताकतवर संपादक एस. मुलगांवकर ही तय करते थे। खबरों को छांटने की प्रक्रिया में एक विश्वसनीयता होती थी। उन्हें प्रस्तुत करने का तरीका स्वीकार्य था।
कहने का मतलब यह बिलकुल नहीं कि केजरीवाल भारत की सियासत में खुदा की कोई नेमत हैं, लेकिन कॉरपोरेट सत्ता, अज्ञात के भय, सांप्रदायिकता और सैन्यवाद जैसी चीज़ों के विरोध में वे ढुलमुल नहीं रहे हैं। इसका श्रेय तो उन्हें दिया ही जाना चाहिए।
अगर ये चीज़ें मीडिया दर्ज नहीं करता, तो इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए क्योंकि मीडिया आर्थिक उदारीकरण और तीव्र वैश्वीकरण की पैदाइश है। उसका डिजाइन ही विज्ञापन व प्रचार को आगे बढ़ाने के हिसाब से हुआ है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियां हवा देती हैं। रूपर्ट मर्डोक की परिकल्पना वाला मीडिया आज चलन में आ चुका है। इस मर्डोकीकृत मीडिया को उस क्रोनी पूंजीवाद की सेवा में धकेल दिया गया जो दो-दलीय व्यवस्था से चलता है। सत्ता में चाहे जो पार्टी रहे, उसका मालिक कॉरपोरेट ही होता है। निजी जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि मुख्यधारा के वामदल भी इसी कीचड़ में सने हुए हैं। हर वह देश जो चुनावी लोकतंत्र की डींग भरता था- ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस, इटली, अमेरिका, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान- सब की सत्ताएं आकंठ भ्रष्टाचार में डूब गईं।
दो-दलीय व्यवस्था की जकड़न में घुट रहा मतदाता इन देशों में उसे तोड़ कर बाहर आने की कोशिश करने लगा। जिन देशों में आर्थिक मुद्दे प्राथमिक रहे वहां वाम दलों का उभार हुआ, जैसे ग्रीस और स्पेन में सिरिज़ा और पोडेमोस जैसी कम्युनिस्ट पार्टियां। अमेरिका द्वारा 9/11 के बाद छेड़ी गई जंग के परिणामस्वरूप पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका की ओर से हुए ऐतिहासिक पलायन के चलते जिन समाजों में भय पैदा हुआ, वहां इस्लाम-विरोधी और आव्रजन-विरोधी भावनाओं ने सिर उठा लिया। ऐसे भय का सीधा नतीजा हम मेरी ली पेन जैसे नेताओं के उभार में देख पाते हैं।
सोवियत रूस के विघटन के बाद अमेरिका को केंद्र में रखकर जो वैश्विक व्यवस्था कायम हुई थी, वह 2008 की आर्थिक मंदी के चलते काफी कमज़ोर हो गई थी। बावजूद इसके वह अब भी इतनी लोचदार है कि दोनों अतियों से एक साथ लड़ सकती है। ऐसा करने का फॉर्मूला बहुत आसान है- जहां कहीं संभव हो, वहां दक्षिणपंथी सत्ताओं को समर्थन दिया जाए। इसी के चलते दक्षिणपंथी अतिवाद और वामपंथी अतिवाद के बीच प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति की स्थिति में लाभ दक्षिणपंथ को मिल रहा है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि मितव्ययिता विरोधी राजनीति पर नस्लवाद और ‘अन्य’ के भय की राजनीति तरजीह पा जा रही है।
फ्रांस के हालिया चुनाव प्रचार में कम्युनिस्ट ज्यां-लुक मेलंकॉन बाकी प्रत्याशियों से काफी आगे चल रहे थे। आगामी 7 मई को अगर सीधा मुकाबला ली पेन और मेलंकॉन के बीच होना है, तो तय मानिए कि पूरे सत्ता प्रतिष्ठान ने ली पेन पर अपना ज़ोर लगा दिया होगा। उन्हें जीत जाना चाहिए। इमैनुएल मैक्रॉन हालांकि सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा होते हुए भी छुपे रुस्तम हैं: उनकी एन मार्च पार्टी बिलकुल नई है और वे खुद एक बैंकर रह चुके हैं, लिहाजा सत्ता प्रतिष्ठान से अलग उनका कोई वजूद नहीं है।
केजरीवाल की ताकत और कमज़ोरियां इसी एक तथ्य से पैदा होती हैं। वे सही मायने में सत्ताविरोधी हैं और इस नारे के साथ मंच पर डटे रहना बहुत अक्खड़पन की मांग करता है। नतीजा हम सब आज देख ही रहे हैं। दिल्ली विधानसभा के 2015 में हुए चुनाव में उन्होंने 70 में से 67 सीटें जीतकर देश को चौंका दिया था। वह जीत अलग से इसलिए चमक रही थी क्योंकि यह असाधारण विजय मोदी की जीत के कुछ महीनों के भीतर हासिल हुई थी। उन्होंने इस जीत से सत्ता प्रतिष्ठान, मोदी, बीजेपी, कांग्रेस, लेफ्टिनेंट गवर्नर, पुलिस आयुक्त और इन सबसे ऊपर कॉरपोरेट मीडिया की एक साथ घंटी बजा दी थी। जाहिर है, केजरीवाल को बेलगाम छोड़ना एक खतरनाक ख़याल हो सकता था। हर मोड़ पर उनके लिए बाधा खड़ी की जानी थी। उनका सियासी खात्मा किया ही जाना था।
पीठ पीछे बंधे हाथों से दिल्ली के गरीबों को मुफ्त पानी, सस्ती बिजली और मोहल्ला क्लीनिक मुहैया कराना मामूली उपलब्धि नहीं है। पंजाब में उनके डर से कांग्रेस ने अकाली-बीजेपी के साथ परदे के पीछे हाथ मिला लिया, फिर भी वे अकाली-बीजेपी को पीछे छोड़कर दूसरे स्थान पर आ गए।
ये सच है कि उनके पास सभी की खुशामद करने का मैक्रॉन जैसा कौशल नहीं है, लेकिन तमाम दिशाओं में फैलने की क्षमता को आज की राजनीति में सफलता के लिए आवश्यक गुणों के पलड़े पर रखकर जिस तरह तौलना पड़ रहा है, उस पर तरस ही खाया जा सकता है।
(यह लेख thecitizen.in पर 2 मई को प्रकाशित हुआ है और वहीं से साभार लिया गया है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव का है)