गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार में अमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी में मारे गए कांग्रेस के नेता अहसान ज़ाफ़री की पत्नी ज़किया ज़ाफ़री की पुनरीक्षण याचिका पर गुरुवार को आए फैसले के मामले में तकरीबन पूरा मीडिया एक स्वर से झूठ बोल रहा है।
तकरीबन सभी प्रमुख मीडिया संस्थानों ने एक ही ख़बर चलाई है कि नरेंद्र मोदी और 61 अन्य की कथित संलिप्तता पर नए सिरे से 2002 के नरसंहार की जांच कराने की ज़ाफ़री की याचिका को गुजरात उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है।
वेबसाइटों के बीच दि वायर और न्यूज़क्लिक ने बाकी मीडिया से अलग खबर दी है जिसमें कहा गया है कि अपराध पुनरीक्षण याचिका को ‘आंशिक’ मंजूरी दी गई है। अख़बारों में केवल दि टेलिग्राफ और आउटलुक ने सही ख़बर चलाई है कि ज़ाफ़री के पास अब भी आवेदन करने का मौका बचा है।
मोदी को क्लीन चिट दिए जाने के खिलाफ गुजरात उच्च न्यायालय में ज़किया ज़ाफ़री ने 26 दिसंबर 2013 को क्रिमिनल रिवीज़न पिटीशन दायर की थी। गुरुवार को आए फैसले में कोर्ट ने मामले में नरेंद्र मोदी और 61 अन्य की कथित संलिप्तता की जांच नए सिरे से कराने के लिए आवेदन करने की उन्हें छूट दे दी है। पूरा मीडिया इसके ठीक उलट ख़बर चला रहा है कि हाइ कोर्ट ने ज़ाफ़री की याचिका खारिज की है। दि वायर की खबर कहती है कि यह फैसला ज़किया ज़ाफ़री के लिए सतह पर प्रतिकूल दिखता है, लेकिन इसमें आशा की एक किरण है।
जकिया ज़ाफ़री की अपराध पुनरीक्षण याचिका मजिस्ट्रेट बीजी गणात्रा के 26 दिसंबर 2013 के आदेश के खिलाफ दर्ज थी। जब से आरके राघवन की अध्यक्षता वाली एसआइटी ने क्लोज़र रिपोर्ट 8 फरवरी 2012 को दाखिल की थी, तब से जाने माने वकील, कार्यकर्ताओं ने रिपोर्ट की खामियों पर सवाल उठाए थे। तहक़ीक़ात करने के तरीके, नेताओं से बच-बचा कर सवाल करने, तीखे सवाल नहीं करने इत्यादि चीज़ों के बारे में खूब चर्चा हुई थी। अब पहली बार कोर्ट ने माना है कि चूंकि जांच पूरी और निष्पक्ष नहीं हुई है, लिहाजा नए सिरे से जांच मांगने का अधिकार पूरी तरह से ज़ाफ़री के पास है और मजिस्ट्रेट को इस बात पर गौर करना पड़ेगा।
इस मामले में बस एक पेंच यह है कि गुजरात हाइ कोर्ट ने ज़ाफ़री को सुप्रीम कोर्ट तक जाने की छूट नहीं दी है बल्कि निचली अदालत में ही राहत मांगने का रास्ता खोला है। स्वाभाविक तौर पर यह होना चाहिए था कि उन्हें उच्चतम न्यायालय में जाने की छूट दे दी जाती।
इस फैसले पर सामाजिक कार्यकर्ता और मुकदमे में सह-याचिकाकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ कहती है, ”हाइ कोर्ट ने ज़किया आपा की क्रिमिनल रिवीज़न एप्लीकेशन के एक हिस्से को कबूल कर के ऐतिहासिक कानूनी कार्यवाही को ज़िंदा रखा है, हालांकि उन्होंने साजिश के बारे में सिर्फ संजीव भट्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को लेकर कहा है कि साजिश को मैं नहीं मानती हूं मगर जब नए सिरे से जांच की मांग इसी सरकार ने मान ली है तो ज़ाहिर है कि साजिश (conspiracy) और abetment के बारे में भी और तहक़ीक़ात हो सकती है और होगी।”
तीस्ता ने मीडियाविजिल को भेजी अपनी प्रतिक्रिया में कहा, ”हम यह संघर्ष आगे ले चलेंगे सारे जजमेंट पढ़ने के बाद। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट और मजिस्ट्रेट दोनों जगह पर यह लड़ाई आगे बढ़ेगी। एक बात साफ़ है। यह ऐतिहासिक कानूनी कार्यवाही- जो कौमी जनसंहार गुजरात के 300 स्थानों पर कम से कम 6 से 9 महीने चला था और एक साजिश के तहत करवाया गया था- chain of command responsibility को एक कानूनी दर्जा देने का काम करने जा रही है। अफसोस है कि इतना समय लगता है इंसाफ़ की लड़ाई में, मगर संघर्ष जारी रहेगा। ज़किया आपा की दुआएं हमें हिम्मत देती हैं और जीत की उम्मीद।”
मीडिया ने इस फैसले पर जो गलत खबरें चलाई हैं, उनका लिंक नीचे है: