किसान समस्या के अनछुए पहलू को छूती है ‘मंडी’



शॉर्ट फिल्में न्यूजफीड का हिस्सा नहीं बन पाती है। क्योंकि इसका दर्शक दायर भी छोटा है और मसालेदार जायके की कमी से भी जूझती है।हालांकि सोशल मीडिया के बढ़ते चलन से फेसबुक और यूट्यूब ने शॉर्ट मूवी को दर्शकों तक आसानी से पहुंचाना शुरू किया है। फ़िल्म फ़ेस्टिवल और शार्ट फ़िल्म कम्पटीशन से दर्शकों के अंदर उत्सुकता पैदा करने का काम किया है। 
शार्ट फ़िल्म स्केल मे माइनर होता है लेकिन असर में अचूक। हम जिस शार्ट मूवी की बात करेंगे उसके असर का तो नहीं पता लेकिन गर्त में जाता भारतीय कृषि समाज की सच्चाई की और जरूर ध्यान  खींच लेती है।
‘मंडी’ नाम सुनते ही पहला ख्याल किसी बाजार का होता है। हमारे आपके लिए बाजार सामान्य खरीद बिक्री की जगह होता है। वहीं एक कृषक के लिए बाजार यानी मंडी एक पखवाड़े,छः महीने या साल भर के भविष्य निर्धारण का केंद्र है।
‘द हार्वेस्ट सिंग इन द वॉइस ऑफ गॉड’ उस यथार्थ को चरितार्थ करती है जिसको कृषक सदियों से जीता आया है। एक किसान कटनी के बाद लाखों सपने संजोता है। छोटे से छोटे सपने से लेकर बड़ा बड़ा सा सपना। कटनी के बाद सारे सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश करता है। लेकिन जब हार्वेस्ट के देवता खूब सुरीला गाए परन्तु उस गाने का कोई खरीददार न मिले तो अनमोल गीत बदहाली की भेंट चढ़ जाती है। इसी प्रश्न को ‘मंडी’ बार बार दोहराता है। अच्छी फसल के बावजूद किसान उचित मूल्य के मोहताज बना दिए गए हैं। ऐसे में हाथ में किसी साहूकार के ऋण के अलावा कुछ नहीं रहता। फिर हम पढ़ते हैं किसी अखबारी हैडलाइन को और अफसोस जताते हैं ‘उसे ऐसे नहीं मरना चाहिए’ ।’मंडी’  हालांकि आत्महत्या तो नहीं दिखाती लेकिन उसके एक बड़े कारण खराब बाजार के हालात की और दृष्टिपात जरूर करती है।
विदर्भ और मराठवाड़ा किसान आत्महत्या की राजधानी बन गयी है। खराब सिंचाई व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराना सरकार और अर्थशास्त्री के लिए आसान है। महाराष्ट्र में मात्र 18 प्रतिसत सिंचाई की व्यवस्था है।  देश की 60 प्रतिशत आबादी की आमधारणा किसान आत्महत्या के लिए सिंचाई के अभाव को मानती है। अगर सिंचाई ही एक मात्र समस्या है तो पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य भी किसान आत्महत्या के केंद्र क्यों बनते जा रहे हैं?पंजाब में 98 प्रतिशत सिंचाई की सुविधा है। यहाँ एनसीआरबी ने 2016 में कृषि से जुड़ी 271 आत्महत्या का उल्लेख किया है। 2015 के 124 आत्महत्याओं के आँकड़े को पार करते हुए एक साल में 112 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। कमोबेश यही हाल हरियाणा का भी है।
‘मंडी’ दस मिनट में उस समस्या की ओर ध्यान दिलाती है। जिसकी तरफ सालों सालों से किसान आत्महत्या के सिलसिले के बावजूद अर्थशास्त्री से लेकर सरकार तक की नजर नहीं जाती है। ‘खराब बाजार और उचित मूल्य का अभाव।’
‘मंडी’ छोटे छोटे दॄश्य के माध्यम से कृषक समाज के यथार्थ को दर्शाता है। जैसे कि किसान का बेटा अपने पिता से हेलीकॉप्टर की माँग करता है और कहता है हो सके तो काठ का ही हेलीकॉप्टर दिला दो। दृश्य बदलता है किसान मंडी में गिड़गिड़ा रहा है ‘साहेब 50 पैसा बहुत कम है प्रति किलो’ थोड़ा और बढ़ा दो। 50 पैसे से 60 पैसे कर दिया जाता है लेकिन किसान के हाथ कमाई नहीं 225 का अतिरिक्त बोझ आता है। यहाँ निर्देशक ने बड़ी चालाकी से भारतीय किसान और  सरकार का सम्बंध दिखाया है। जिसमें किसान विनती के मुद्रा में और सरकार अनसुना करने की मुद्रा में।
‘मंडी’ इन्हीं सवालों पर ध्यान दिलाती है। 10 मिनट की फ़िल्म में न सिर्फ सवाल दिखाया गया है बल्कि वात्सल्य  से लेकर समाजिक यथार्थ को भी जगह दिया गया। आप 10 मिनट की मूवी से क्या हासिल करेंगे यह तो कह पाना मुश्किल है। लेकिन किसान की अनेक परेशानियों में बाजार की बदहाल सूरत को भी एक परेशानी के रूप में ‘मंडी’ जरूर गिनवा देगी।
वेब के उन्नयन काल में शॉर्ट मूवी भी स्थान बनाने की संघर्ष कर रही है। अनुराग कश्यप और फरहान अख्तर जैसे नामों का शॉर्ट मूवी में आना इस बात संकेत की ओर संकेत करता है कि शॉर्ट मूवी को अगर हम जगह देंगे तो यह अपने शैशव काल से युवा अवस्था की ओर रुख करने की साहस कर सकती है।
फुल सिनेमा की बहस के बीच शॉर्ट मूवी स्थान हासिल नहीं कर पाती है। जबकि शॉर्ट मूवी कई माकूल सवालों को उठाने का प्रयास करती है। इस बात का डर है कि कहीं ‘मंडी’ भी सिनेमा की बहस से गायब न हो जाए।सिनेमा के बड़े बड़े पोस्टर्स, होडिंग्स, प्रोमोशनल इवेंट के बीच कहीं ऐसा न हो किसान की ‘मंडी’ पर सिनेमा का बाजार हावी हो जाए। इसलिए जरूरी है कि 10 मिनट की शार्ट फ़िल्म ‘मंडी’ को देखा जाए और सिनेमा की बहस के बीच माकूल प्रश्नों को उठाने की कोशिश कर रहे फ़िल्म को जगह दिलाया जाए।