संत नहीं नेता हैं लालू, इसलिए सजा भी राजनीतिक है!



जितेन्द्र कुमार 

लालू यादव ने बहुत पहले कहा था ‘’यह सही है कि मैंने आपको स्वर्ग नहीं दिया लेकिन इससे कौन इंकार कर सकता है कि आपको स्वर नहीं दिया है।” और पिछले शुक्रवार को लालू को चारा घोटाले में जिस बात की सजा मिली वह सिर्फ और सिर्फ वही था कि उसने बिहार की बहुसंख्य दबे-कुचले जनता को स्वर दिया था।

लेकिन ठहरिए, इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि लालू पूरी तरह ईमानदार हैं! मेरा सवाल यह है कि क्या जगन्नाथ मिश्र ईमानदार हैं जिन्हें इसी मामले में बरी कर दिया गया? इसलिए इससे जुड़ा सवाल इतना ही मौजूं है कि राजनीतिक शुचिता की बात तो सब करते हैं लेकिन उस पर अमल कितने लोग करते हैं? दूसरा सवाल यह भी है कि जब शुचिता का कोई पालन ही नहीं करता है तो किसी बहुजन या दलित नेतृत्व को कैसे सजा दे दी जाती है और ताकतवर व सवर्ण नेतृत्व कैसे उसी या उसी तरह के मामले में बरी कर दिए जाते हैं!

हकीकत तो यही है कि चारा घोटाला लालू यादव के कार्यकाल से काफी पहले शुरु हो गया था। जब लालू यादव 10 मार्च 1990 को सत्तासीन हुए तो रुटीन प्रशासनिक फेरबदल में उस अधिकारी का भी तबादला कर दिया, जिसके नेतृत्व में यह घोटाला चल रहा था। लालू यादव को पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने चिठ्ठी लिखी और लालू ने उस पदाधिकारी के तबादले पर रोक दिया। बाद में इसका परिणाम इतने बड़े लूट के रूप में सामने आया। वर्ष 1996 में लालू ने इसकी जांच के आदेश दिए। लेकिन लालू यादव को घेरने की तैयारी बहुत दिनों से सवर्ण व सवर्ण मानसिकता के लोग कर रहे थे क्योंकि कई ऐसे कारण थे जिससे वह समुदाय परेशान था।

अब कुछ बातों पर थोड़ा सा रुककर गौर करेंः लालू यादव ने 10 मार्च 1990 को मुख्यमंत्री का पदभार संभाला था। उन्होंने आकाशवाणी से प्रसारित पहले संदेश में राज्य की जनता से कहा था कि हमारी पहली प्राथमिकता सबको शिक्षा और सबको रोजगार देना होगा, दूसरी प्राथमिकता राज्य से बड़ी संख्या में हो रहे पलायन को रोकना होगा और तीसरा, अब तक हो रहे भ्रष्टाचार पर रोक लगाकर रूके हुए विकास काम को फिर से शुरु करना होगा। अगले दिन यानि कि 11 मार्च 1990 का पटना से निकलने वाले अखबारों का मुख पृष्ठ देखें तो आपको ऐसा लगेगा कि लालू यादव ने मुख्यमंत्री के रुप में शपथ नहीं लिया है बल्कि लालू का अवतार हुआ है जिसके पास एक चमत्कारिक शक्ति है! लेकिन कुछ ही महीने बाद 7 अगस्त 1990 को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की घोषणा करते हैं और लालू यादव उस निर्णय का स्वागत करते हैं। कारण यह भी है क्योंकि उनकी पार्टी जनता दल ने मंडल आयोग को लागू करने का चुनावी घोषणा पत्र में वायदा किया था।

फिर 15 अगस्त को वी पी सिंह इसी बात को लाल किला के प्राचीर से दोहराते हैं। मंडल आयोग के फैसले को लागू करने का विरोध प्रदर्शन पूरे देश में व्यापक पैमाने पर शुरू हो जाता है। पटना के एक कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री लालू यादव का मंडल विरोधियों द्वारा जोरदार विरोध किया जाता है, जिसमें लालू  पहली बार खुले शब्दों में मंडल विरोधियों को यह कहकर ललकारते हैं कि जो भी व्यक्ति आरक्षण का विरोध करेगा उसको बुलडोजर से कुचल देगें। मुख्यमंत्री के रुप में लालू यादव का यह रौद्र रूप पहली बार बिहार की जनता के सामने आता है। अगले दो-तीन दिन के भीतर पटना में ही आरक्षण विरोधियों के एक बड़े प्रदर्शन पर पुलिस फायरिंग में बी एन कॉलेज के छात्र शैलेन्द्र राय मारा जाता है। एकाएक लालू यादव की छवि अखबारों और संचार माध्यमों के द्वारा विलेन की बनाए जाने की शुरूआत होती है। कुल मिलाकर लालू के पास मात्र 4 महीने 27 दिन का वक्त होता है जब वह बिहार के मुख्यमंत्री होते हैं! इसके बाद सवर्ण नौकरशाही, सवर्ण मीडिया, सवर्ण अकादमिक, सांमतों और प्रभुत्वशाली वर्गों के लिए वह एक ऐसा दैत्याकार व्यक्ति बन जाता है जिसे किसी भी कीमत पर पद से हटाए जाने की जरूरत है।

हां, दूसरी तरफ लालू यादव अपने काम से भी सत्ता पर पकड़ बना रहा होता है। मंडल की काट के लिए लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा पर निकलते हैं। पटना के गांधी मैदान में सर्वदलीय रैली को लालू यादव बतौर मुख्यमंत्री संबोधित करते हैं। लालू यादव के उस ऐतिहासिक भाषण को याद कीजिए जिसमें वह आडवाणी से रथयात्रा खत्म करने की अपील करते हुए चेतावनी भी देते हैं – “…चाहे सरकार रहे या चली जाए, हम अपने राज्य में दंगा-फसाद को नहीं फैलने देंगे।जहां बावेला खड़ा करने की कोशिश हुई, उससे सख्ती से निपटा जाएगा।… जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की कीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की क़ीमत है…..।” और अंततः आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार किया जाता है। आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू ने जिस सक्रियता से कानून-व्यवस्था को नियत्रंण किया उससे आम लोगों में उनकी छवि एक कुशल प्रशासक की बनी। गांधी मैदान बुकिंग के लिए कलक्टर के कार्यालय में जाकर आप पुराने फाइल को पलटें या फिर 1996 तक के पटना से निकलनेवाले अखबारों का पृष्ठ पलटें तो आपको पता चलेगा कि पटना के गांधी मैदान में कितनी छोटी-छोटी जातियों की रैली हो रही है और जिसमें मुख्य अतिथि लालू यादव हैं। इन रैलियों में उस जाति के नेता बतौर मुख्यमंत्री लालू यादव से तरह-तरह की डिमांड करते हैं और लालू उसे निबटारे का आश्वासन देते हैं।

लालू अपने पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ हर जगह भाषण में यह बात बोलते थे ‘अगर मैं घूस खाऊंगा तो मैं गाय का शोणित पिउंगा’। जनता लालू के भ्रष्टाचार विरोध के नारे को बिल्कुल उसी रूप में ले भी रही थी। मीडिया में यह कहकर प्रचारित किया गया कि लालू कहते हैं ‘भूरा बाल साफ करो’ (भूमिहार, राजपुत, ब्राह्मण और लाला को खत्म करो) हालांकि लालू यादव ने इस बात का लगातार खंडन किया। लेकिन दमित बिहारी समाज में इसका संदेश यह गया कि लालू एक मात्र नेता है जिसमें उस समुदाय को औकात में रखने की क्षमता है। यह भी एक कारण था कि राज्य के सबसे ताकतवर तबकों के असहयोग के बावजूद उनकी पकड़ सत्ता पर हो रही थी। 

लेकिन कई बार ऐसी चूक भी हो रही होती है जो सचेतन उनके मन में भले ही नहीं रहा हो, अवचेतन वो सारी चीजें कर रहे होते हैं। 1991 और 1996 के लोकसभा चुनाव और 1995 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली सफलता ने उनको अपने हितैशियों से दूर कर दिया। उसी बीच लालू के दोनों सालों ने मिलकर निरकुंश एक सत्ता का निर्माण कर लिया, जिसमें मुख्यमंत्री राबड़ी देवी की सहमति थी। सवर्ण मीडिया ने उस समानांतर सत्ता को ‘जंगल राज’ का नाम दिया। लालू भी कुछ-कुछ निरकुंश या राजा सा व्यवहार करने लगे, बाबजूद इसके एकछत्र सवर्ण नौकरशाही, अकादमिक और मीडिया को लालू यादव ने जितनी बड़ी चुनौती दी, वह भारतीय लोकतंत्र में बिरल उदाहरण के रूप में दर्ज है। इसी से जुड़ी लालू की चूक यह भी रही कि उन्होंने इन ताकतों को चुनौती तो दे दी लेकिन उसके समानांतर कोई संस्था नहीं खड़ा कर पाया या विद्यमान सत्ता पर उनका नियंत्रण नहीं था। थोड़ा-बहुत अगर उनका कंट्रोल था तो वह सिर्फ नौकरशाही थी, जिसमें दलितों और पिछड़ों का उनको सहयोग था। नौकरशाही से जुड़ी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि तब तक मंडल की राजनीति तो चल निकली थी लेकिन मंडल से नियुक्त नौकरशाह विभाग में आ नहीं पाए थे और अगर आए भी थे तो उनकी संख्या न्युनतम थी। उन दलित-पिछड़े नौकशाही की बदौलत लालू के कार्यकाल में कुछ ठेकेदार जरूर बने लेकिन वे अधिकांश लालू यादव के स्वजातीय थे। क्योंकि अन्य पिछड़ों और दलितों के पास ठेकेदारी करने के लिए संसाधन ही नहीं थे (बाद में उसी स्वजातीय ठेकेदारों को नजीर बनाकर पेश किया जाने लगा कि लालू ने सिर्फ स्वजातीय लोगों को लाभ पहुंचाया है)।

‘हथुआ महाराज से भी बड़ा राजा’ बनने की प्रक्रिया इतनी भयावह थी कि उनके अनेक सहयोगी सरेआम गुंडई करने लगे। इसी बीच एक मामले में चारा घोटाले का जिक्र आया और लालू यादव ने इस मामले की जांच के आदेश दे दिए। चारा घोटाला को सवर्ण नौकरशाही, अकादमिक और मीडिया द्वारा दुनिया के सबसे बड़े घोटाले के रूप में पेश किया जाने लगा। इसके लिए उन सारी चीजों को लालू के खिलाफ खड़ा कर दिया गया जिसे लालू ने बड़ी मेहनत से तैयार की थी। ‘ग्वाला’ से तैयार शब्द गाय को चारा से जोड़ दिया गया, ‘गाय के शोणित’ का कसम खाने वाले को गौमाता का भोजन चुरानेवाला करार दिया गया। रही-सही कसर सीबीआई ने यू के विश्वास को इसकी जांच सौंपकर पूरी कर दी। यू के विश्वास के दलित पृष्ठभूमि से होने को इस रूप में पेश किया कि ‘पिछड़ों के मसीहा’ ने ऐसी स्थिति बना दी है कि एक दलित को उसके खिलाफ लड़ना पर रहा है। लालू को गिरफ्तार करने के लिए यू के विश्वास जज की सहायता से सलाह-मशविरा लेने लगा, जबकि लालू ने खुद कहा था कि मैं चौबीस धंटे के बाद सरेंडर कर दूंगा। यू के विश्वास का यह कदम पूरी तरह गैरकानूनी, असंवैधानिक और निर्देशित प्रोटोकॉल के खिलाफ था। कायदे से विश्वास के उपर कड़ी कार्यवाई होनी चाहिए थी, लेकिन लालू से चिढ़े संवैधानिक पदों पर बैठे सवर्णों ने इसकी परवाह नहीं की क्योंकि उसे हर कीमत पर लालू यादव से मुक्ति चाहिए थी। यू के विश्वास के इस कृत्य पर तब पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने संसद में काफी तीखी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था- “लालू प्रसाद ने जब ख़ुद ही कहा है कि आत्मसमर्पण कर देंगे, तो 24 घंटे में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूटा जा रहा था कि सेना बुलाई गई? ऐसा वातावरण बनाया गया मानो राष्ट्र का सारा काम बस इसी एक मुद्दे पर ठप पड़ा हुआ हो। लालू कोई देश छोड़कर नहीं जा रहे थे।….किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है।… लेकिन हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद ….. बना दें। भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, मगर भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं है। एक शब्द है हिंदी में जिसे सत्यनिष्ठा कहा जाता है, अगर सत्यनिष्ठा (इंटेग्रिटी) नहीं है, तो सरकार नहीं चलायी जा सकती। …सीबीआई अपनी सीमा से बाहर गयी है, ये भी बात सही है कि उस समय सेना के लोगों ने, अधिकारियों ने उसकी मांग को मानना अस्वीकार कर दिया था।…ऐसी परिस्थिति में ये स्पष्ट था कि सीबीआई के एक व्यक्ति, उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था।….अगर पुलिस के लोग सेना बुलाने का काम करने लगेंगे, तो इस देश का सारा ढांचा ही टूट जायेगा।”

सीबीआई को लालू के खिलाफ हदों से पार जाने का दुस्साहस और अवसर तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा और बाद में आई के गुजराल ने लालू को कमजोर करने के लिये उसे पर्याप्त छूट देकर की। कर्नाटक कैडर के जोगिन्दर सिंह के नेतृत्व में यू के विश्वास वही सबकुछ कर रहे थे जिससे लालू कमजोर हो। चारा घोटाला के नाम पर लालू की चमक मलीन होने लगा था। देश भर का मीडिया चटखारे लेकर रपटें छापने लगा कि बिहार में कैसे स्कूटरों पर सांढ़ ढोए जाते थे। और कैसे एक चरवाहा गाय का चारा खा गया (इसमें भी लालू के उस कहावत को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया जिसमें लालू कहते थे कि मैं बचपन में भैंस चराता था -चरवाहा था)।

लालू अब सजायाफ्ता हैं और चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। लेकिन राजनीति में शुचिता की आवश्यकता पर और लालू के भ्रष्टाचार पर ऐसे-ऐसे लोगों के वक्तव्य आ रहे हैं, जिनकी छत्रछाया में हजारों-लाखों करोड़ रुपए के संगठित कॉरपोरेट लूट को अंजाम दिया जा रहा है। लेकिन, इनके खिलाफ सबूत नहीं है और न ही उसके खिलाफ देश को जांच की जरूरत है। लालू के खिलाफ सबूत खोजे गए हैं, क्योंकि राजनीति का तकाजा था कि सबूत हर हाल में जुटाना है।

ऐसे समय में, वर्ष 2014 में देश के भावी प्रधानमंत्री पूरे देश में 453 चुनावी सभा करता है। अगर एक चुनावी सभा पर औसतन खर्च सिर्फ दो करोड़ रूपए मान लिया जाय तो यह 900 सौ करोड़ रुपए से अधिक खर्च कर देता है। जबकि उनकी पार्टी बीजेपी चुनाव आयोग में खर्च के ब्यौरे में सिर्फ 714 करोड़ रुपए का उल्लेख करती है! नरेन्द्र मोदी जब से मुख्यमंत्री बने, हमेशा अपने ‘औद्योगिक मित्र’ के चार्टेड प्लेन का ही इस्तेमाल किया (शुचिता का यही तकाजा है जिस देवगौड़ा ने लालू को चारा घोटाला में नस्तनाबूद कर देने का बीड़ा जोगिन्दर सिंह को सौंपा था, वह जब प्रधानमंत्री नियुक्त होकर पहली बार दिल्ली पधारे थे तो वह चार्टेड प्लेन उनके मित्र विजय माल्या का था)। प्रधानसेवक बनने के बाद अपने निकटस्थ उद्योगपतियों को कितना लाभ पहुंचाया गया है इसका जिक्र इतनी सख्ती के बावजूद कभी-कभार मीडिया में बाहर आ ही जाता है। कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी बैंकों को दिवालिया तक बनाने की कोशिश शुरू हो गई है। लेकिन 89 लाख रूपए के हेराफेरी के मामले में लालू यादव को जेल में डाल दिया गया है जबकि उसी मामले में जगन्नाथ मिश्रा को बरी कर दिया गया है। न्यायपालिका की जातीय संरचना ने भी उनकी मुसीबतों को काफी बढाया है।

लालू यादव महज एक व्यक्ति नहीं बल्कि अवधारणा बन गया है। उत्तर भारत की राजनीति में जितना सामाजिक परिवर्तन लालू यादव ने किया है, अगर इसका कोई उदाहरण खोजा जाएगा तो उनके करीब सिर्फ मायावती आएगीं। और इसलिए इन्हीं दोनों से सबसे ज्यादा घबराहट ब्राह्मणवादी ताकतों को होती है। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर वी पी सिंह कहते थे, “दरवाजे पर नेमप्लेट किसके लगे हैं इसपर मत जाइए, अगर मजलूमों की जिंदगी में सकारात्मक परिवर्तन आता है तो असली परिवर्तन वही है।” सममुच लालू यादव ने वही काम किया है। हो सकता है कि आज लालू यादव सत्ता के गर्त में चले गए हों और जेल में डाल दिए गए हों, लेकिन वह सिर्फ लालू यादव का ही योगदान है कि बीजेपी जैसी ब्राह्मणवादी पार्टी को नीतीश कुमार, उपेन्द्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी या रामविलास पासवानों से गठबंधन करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। लेकिन अकादमिकों और विद्वतजन नैतिक रूप से इतने बेईमान हैं कि उन्हें विश्व इतिहास की छोटी से छोटी या फिर लेनिन, बिस्मार्क या नेल्सन मंडेला के किसी एक निर्णय का विस्तार से घटनाक्रम याद रहता है लेकिन लालू यादव द्वारा किए गए क्रांतिकारी परिवर्तन उन्हें ‘जंगलराज’ की याद दिला देता है! 

लालू के खिलाफ फैसला लोकतांत्रिक व्यवस्था से विश्वास हटाता है। अगर लालू यादव मौजूदा केंद्र सरकार के खिलाफ इतना मुखर नहीं होते तो हो सकता था कि लालू को भी जेल जाने की नौबत नहीं आती। लालू यादव जब भी सत्ता में रहे, दंगाई व जातिवादी ताकतों को औकात में रखा। इसलिए उन्हें चारा मामले में दोषी करार दिया गया। इसके पहले भी तमाम फैसले आए हैं जो चकित करते हैं। यह ठीक है कि लालू जननेता हैं लेकिन ऐसे फैसले से वह तबका भी विचलित होता है जिसके पक्ष में लालू आवाज उठाते रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर लालू को चारा घोटाला में न फंसाया गया होता तो हो सकता है लालू की छवि किसी भी महानायक से बड़ी होती क्योंकि उनके दूसरे कार्यकाल के शुरुआत में ही चारा घोटाला ने उसे अपने शिकंजे में ले लिया था और अब उनकी पूरी कोशिश उस फंदे से बाहर निकलने की थी, न कि राजसत्ता पर बैठकर कल्याणकारी काम करने की थी।

लालू यादवों जैसे नेताओं की मुश्किल यह है कि राजनीति करने के लिये पैसा चाहिए और चूंकि पिछड़ी या दलित-आदिवासी जातियों से आनेवाले नेताओं के पास जनता का समर्थन तो होता है परन्तु उनके पास पैसे नहीं होते हैं। कॉरपोरेट घराने उन्हें पैसे देने के लिए तैयार नहीं होता क्योंकि ‘डील’ करते समय वो ढ़ेर सारी शर्तें रखता है जो कॉरपोरेट के मनमाफिक नहीं होता और ‘सौदा हो नहीं पाता है! लेकिन तब तक सत्ता का खून उनके मुंख में लग गया होता है। और चूंकि सत्ता उन पिछड़े-दलितों को किसी भी कीमत पर चाहिए इसलिए बाद में ‘समझौते’ का मजमून लेकर वे तैयार बैठे रहते हैंः कभी बात बन जाती है तो ज्यादातर नहीं बन पाती है। इसलिए आप इस बिडंबना को पाएगें कि जब कोई भी पिछड़ा (दलित-अपवादस्वरूप मायवती) नेतृत्व पहली बार सत्ता में आता है तो जितनी कल्याणकारी योजनाएं वे अपने पहले कार्यकाल में शुरू कर लेता है, अगले कार्यकाल में वही नेतृत्व उसे खतम करने की तैयारी कर रहा होता है!


newslaundry.com से साभार