बहसतलब: #MeToo या मैं मै और तू तू!



पंकज मिश्र


 

#Me too आज का dominant narrative (हावी क़िस्सा) है | Dominant narrative से इतर बात भी सुनना किसी भी मीडिया को गवारा नही होता है सोशल मीडिया पर तो खास तौर पर, तिस पर मुद्दा यदि स्त्री हो तो क्या ही कहा जाये | फिर स्त्री और यौनिकता तो समझिये deadly combo (घातक सम्मिश्रण )है | क्या यह आपको समझदारी लगती है? ऐसे मुद्दों पर इस कदर उत्तेजित और संवेदनशील हो जाना आखिर क्या दर्शाता है। हम सभ्य समाज है या भीड़ हैं या विविध समूहों का ढीला ढाला समुच्चय जो कुछ खास मुद्दों पर भीड़ बन जाता है! कुछ मुद्दों पर धर्म में, जाति में बंट जाता है और कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने एकांतिक खोह में जा कर छिप जाता है!

बलात्कार, निश्चित तौर पर यौन हिंसा का गंभीतरतम और विकृत रूप है।  यौन हिंसा भी, हिंसा का ही एक रूप है।  इसे इज्जत से जोड़ना मर्दवाद है।  बलात्कार का मतलब इज्जत लूट जाना नही होता आदि-आदि यदि सामान्य समय में लिखा जाए तो इस पर खूब हुँकारी मिलेगी।  लाइक्स और वाह मिलेगी परंतु आज यह लिखना बर्रे के छत्ते को छेड़ना है।

कोई ठहर कर यह सोचने के लिए तैयार नही है कि स्तन, नितंब और योनि भी शरीर के दूसरे अंगों की भांति ही हैं। हाथ टूट जाना, मुक्कों से चेहरे का लहूलुहान हो जाना यदि इज्जत जाना नही है,  किसी अतिरिक्त सम्वेदना का हकदार नही है  तो स्त्री या पुरुष के यौन अंग इतना विशेष महत्व क्यों पाते हैं? इतना कि, यौन उत्पीड़न मनोदशा पर एक अमिट छाप छोड़ देता है। स्त्री या पुरुष के मनोबल को तोड़ देता है। पुरुष का कम मगर स्त्री का ज्यादा।
ऐसा क्यों होता है कि एक बच्ची को यौन दुर्व्यवहार की समझ पहले आती है, या नही भी आती तो हम समझा देते हैं। क्या हम खुद का आचरण या कंडीशनिंग उस बाल मन पर नही थोपते? और हमारा ही रोपा यह संस्कार बीज उसके भीतर बड़ा होता जाता है, जिस कारण वह यौन दुर्व्यवहार को इज्जत से जोड़ देखने लगती है और यौन हिंसा के प्रति अतिरिक्त संवेदित हो जाती है। इसी कारण यह उसके मनोविज्ञान पर स्थायी असर डालती है।

तो क्या हम उस मां को दोषी मान लें जिसने बचपन से ही उसे ऐसी शिक्षा दी जिससे कोई लड़का या लड़की, ऐसी हिंसा को विशेष दर्जा देने लगे। माँ भी बेचारी क्या करे, सोसायटी का dominant narrative ही यह है। dominant से अकेले लड़ा भी नही जा सकता। लड़का भी इसी माहौल में बड़ा होता है और किसी लड़कीं की इज्जत लूटने या शर्मसार करने के लिए उसे यह सबसे उपयुक्त औजार लगता है। यह पीढी दर पीढ़ी अंतरित होने वाला मनोविज्ञान ही इस मर्दवादी और स्त्री के कमोडिफिकेशन (उपभोग की वस्तु बनाना)की समाजी मनोरचना की निर्मिति में मुख्य भूमिका निभाता है।

तो सवाल है कि इस dominant narrative को कैसे बदला जाए, जिसमे यौन हिंसा / उत्पीड़न आदि इज्जत लूटने या मनोबल टूटने से अलग किया जा सके। जिसमे,  बलात्कृता और सामान्य महिला एक ही पेडस्टल पर हों।  यदि ऐसा होगा तो यौन हिंसा भी हिंसा के ही एक रूप में रिड्यूस हो जाएगी और स्त्री के वजूद उसके यौनांगों, उसकी देह की हद-बंदियों से मुक्त हो साकार होंगी।  पुरुष के लिए भी स्त्री को नेस्तनाबूद करने का यह अहम हथियार भोंथरा हो जाएगा।

फिलहाल तो जैसा माहौल है, उसमे आपको इसी dominant narrative के सुर में सुर मिलाना है। यह इसलिए कि, अव्वल तो फिलहाल अभी ईमानदार और सच्चे उदाहरण सामने हैं। यह रहेंगे भी इसकी कोई गारंटी नही! चंद झूठे आरोप me too के पूरे गुब्बारे को फुस्स कर देंगे क्योंकि तुरंत मर्दवाद ऐक्टिव हो जाएगा। मीडिया में विमर्श का सुर बदलने लगेगा और बात लीगल पेचोखम में उलझा दी जाएगी। आप टुकुर-टुकुर ताकते, अपने सामने मूल समस्याओं के लिए भी उस दुश्वार और दीर्घकालिक लड़ाई लड़ने से घबरा कर बैठ जाएंगे। दुनिया हस्बेमामूल चलती रहेगी।

दूसरा कि अभी dominant narrative से इतर कोई बात सुनी नही जाएगी। इतर से आशय विरोधी नही होता, लेकिन ट्रीटमेंट उसे उसी तरह मिलेगा जैसे कि कोई विरोधी बात हो रही है। यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। यह इस तथ्य को भी पुष्ट करती है कि कैसे व्यक्ति की सोच पर भीड़ का मनोविज्ञान भारी पड़ता है। यह इस बात का लिटमस टेस्ट भी है कि हम कितने डेमोक्रेटिक हैं। अलग राय और विचारों के प्रति कितने सहिष्ण हैं।

Me too मूवमेंट में सबसे खतरनाक प्रवृति जो हमें दिख रही है वह है इसका उद्देश्य। उद्देश्य जो naming और shaming (नाम लेकर शर्मिंदा करना) मात्र प्रतीत होता है। चंद एक की नेमिंग एंड शेमिंग से क्या होगा? क्या इसके दुरुपयोग होने की ज्यादा सम्भावना नही है? एक तर्क है कि यह पावरफुल पुरुषों को भयभीत करेगा, तो क्या यह सामान्य पुरुषों को उससे भी ज्यादा नही करेगा! तो क्या यह मूवमेंट पुरुषों को भयभीत करने के लिए? क्या भयग्रस्त पुरुष समाज एक कुंठित और विकृत समाज नही होगा? एक लचर तर्क यह है कि ऐसे विकृत मानसिकता वाले पुरुषों को भयभीत होना ही चाहिए मानो इसे लिमिट होना या करना उनके हाथ में हो!

या असल में यह होगा कि वर्कप्लेस पर यह शातिरों के बजाय शरीफ सामान्य पुरुषों को भयाक्रान्त करेगा? क्या ऐसा नही होगा कि पुरुषप्रधान समाज की सोच इस रूप में परिवर्तित हो कि तथा कथित “तेज़”  लड़कियों को काम पर ही न रखो ताकि  कल को कम्पनी में कोई पंगा न हो? कम्पनी को बिजनेस करना है न कि सोसायटी को नैतिक बनाना है या नैतिकता की ठेकेदारी करनी है। यह ‘ख़ामोश समझ’ कितनी प्रभावी होती है हम सब जानते हैं।

‘नेमिंग एंड शेमिंग’ अपने मूल चरित्र में व्यक्ति केंद्रित संघर्ष है। यह तमाम पैनल डिस्कशन, अख़बारों की सुर्खियाँ और सोशल मीडिया विमर्श में साफ झलक रहा है। जो उत्पीड़ित महिलाएं अपना उदाहरण रख रही हैं वे व्यक्ति विशेष की मुआफी से संतुष्ट हो जा रही हैं या हो जाएँगी, ऐसा लगता है। यह पूरा मूवमेंट इस भाववादी सोच से प्रेरित है कि व्यक्ति बुरा है, उसकी सोच बुरी है, ऐसे व्यक्तियों को सार्वजनिक रूप से शर्मसार करना ही चाहिए।

यह ‘हम बदलेंगे-जग बदलेगा,’ ‘हम सुधरेंगे-जग सुधरेगा’ जैसे मंत्र का सामहिक उच्चार है, जो हमारा अतीव धार्मिक समाज सदियों से करता ही आया है। जिस समस्या का बीज समाज में है, जिसका रिफ्लेक्शन व्यक्ति में होता है, तो व्यक्ति को केंद्र में रख कर क्या समस्या का उपचार सम्भव है? या यह बीमारी खत्म करने के बजाय उसे बढ़ाएगा?

आज के समय का यक्ष प्रश्न यह है कि कैसे #metoo movement के dominant narrative का फोकस व्यक्ति से हटाकर समाज की तरफ किया जाए। इस प्रश्न पर विमर्श के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है बशर्ते हम dominant narrative से कुछ भिन्न विचारों का भी स्वागत करना सीख लें।

भीड़ विमर्श नही कर सकती | भीड़ की मर्यादा सीता की अग्निपरीक्षा लेती है और अकेले में शूर्पणखा की नाक काटती है।


(गोरखपुर निवासी पंकज मिश्र स्वतंत्र चिंतक और टिप्पणीकार हैं। फ़ेसबुक पर उनका  ‘यक्ष-संवाद’ काफ़ी लोकप्रिया है।)