90 वोट पर आँसू बहाना निरर्थक !विष्णु राजगढ़िया हर चीज की तरह संसदीय राजनीति के भी अपने नियम होते हैं। उन्हें नहीं जानने वाले का असफल होना स्वाभाविक है। मणिपुर विधानसभा चुनाव में इरोम शर्मिला चानू को महज 90 वोट मिलना भी इसी सच का प्रतीक है। इस पर आंसू बहाना, जनता या लोकतंत्र को खरी-खोटी सुनाना निरर्थक है। इस पराजय को मणिपुर में इरोम शर्मिला की लोकप्रियता कम होने का संकेत मानना भी गलत होगा। इस हार से देश और दुनिया में जनसंघर्षों के इतिहास में मणिपुर की इस आयरन लेडी के महान योगदान के स्थान पर भी रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। इरोम के संघर्ष का इतिहास अद्भुत और काफी प्रेरणादायी है। एकदम अकल्पनीय। लगातार सोलह साल तक एक संवेदनशून्य सिस्टम के खिलाफ अनशन करना और अपने जीवन का स्वर्णिम काल न्यौछावर कर देना साधारण बात नहीं। वर्ष 2002 के दो नवंबर के दिन मणिपुर के मालोम बस स्टैंड के समीप दस निरपराध युवकों को सशस्त्र बल ने गोलियों से भून डाला था। तब इस युवा कवियित्री ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अनिनियम (आफस्पा) को खत्म करने की मांग पर अनशन शुरू किया। उस वक्त किसने सोचा होगा कि एक लोकतांत्रिक देश में सोलह साल तक इस सत्याग्रह की आवाज अनसुनी कर दी जाएगी। लेकिन भारत की जनविरोधी, आत्मकेंद्रित राज्य-व्यवस्था ने इरोम के इस सत्याग्रह की बेशर्मी से उपेक्षा करते हुए तरह-तरह से कुचलने के प्रयास किये।
अंततः इरोम ने वर्ष 2016 में अपना संघर्ष अनिर्णित समाप्त कर दिया। किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर इरोम के ऐसे संघर्ष की दूसरी मिल नहीं मिलती। इसे दुनिया भर में सबसे लंबे समय तक चली भूख हड़ताल के तौर पर देखा गया। इरोम ने 2016 में ‘पीपुल्स रिइंसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस‘ नामक पार्टी बनाकर मणिपुर के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाने का फैसला किया। उनका लक्ष्य था विधानसभा में जाकर उस जनविरोधी कानून को खत्म करने का प्रयास करना, जिस कानून द्वारा महज शक के आधार पर किसी को गोली मारी जा सकती है।
इरोम के संघर्ष को सलाम। एक नई पार्टी बनाकर मणिपुर की यथास्थितिवादी राजनीति को चुनौती देने का उनका जज्बा भी काबिलेतारीफ है। लेकिन संसदीय राजनीति के नियमों को ताक पर रखकर महज भावनात्मक आधार पर चुनाव लड़ने का उनका तरीका बेहद अस्वाभाविक और अपरिपक्व था। यही कारण है कि उन्हें महज 90 वोट मिले। इस पर उन्हें या दूसरों को कोई अफसोस करने का हक नहीं। इस तथाकथित अनादर के लिए मणिपुर की जनता को कोसने का हक तो किसी को नहीं। कहते हैं, ‘जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली।’ यह देखना जरूरी है कि इरोम की पार्टी ने किस तरह चुनाव लड़ा।
पहली बात तो यह कि मणिपुर की कुल 60 सीटों में से इरोम की नई पार्टी ने महज पांच सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए। इतनी कम सीटों पर चुनाव लड़ने से राज्य स्तर पर कोई राजनीतिक माहौल बनना मुश्किल था और यही हुआ। ऐसा लगता है कि इरोम और उनकी पार्टी ने देश और दुनिया भर में उनके संघर्ष की व्यापक चर्चा का असर मणिपुर के चुनाव में होने का ख्याली पुलाव पका लिया था। खबर है कि मतदान के महज ऐ सप्ताह पहले तक भी उनकी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू नहीं हो सकता था। स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं और बूथस्तरीय संगठनों का पूर्णतया अभाव भी एक बड़ा कारण रहा। धन एवं संसाधनों का भी घोर अभाव था। जबकि मतदाताओं के पास पहुंचने के लिए कार्यकर्ताओं एवं संसाधनों की अनिवार्य भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
उनकी पार्टी का कोई ऐसा प्रचलित चुनाव चिन्ह भी नहीं था जो कमल या पंजे की तरह लोगों की आदत में शुमार हो चुका हो। सबसे बड़ी बात तो यह कि इरोम ने स्वयं एक ऐसी सीट से नामांकन किया जहां उनका कोई जनाधार नहीं था जबकि उन्हें मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम ईबोबी सिंह को टक्कर देनी था। मणिपुर की थउबल सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार ईबोबी सिंह का लंबे समय से कब्जा है। यहां उनकी मजबूत हैसियत का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें अठारह हजार से भी ज्यादा वोट मिले। उन्होंने भाजपा प्रत्याशी को दस हजार से भी ज्यादा मतों के अंतर से हराया।
यह भी खबर है कि संगठन के अभाव में शर्मिला को अपने की निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार में काफी परेशानी हुई तथा कई बार अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ा। अगर इरोम इस चुनाव में अपनी जीत के लिए गंभीर होतीं तो उन्हें निश्चय ही ऐसे मजबूत प्रत्याशी के बजाय किसी ऐसी सीट का चयन करना चाहिए था, जहां इतना दिग्गज उम्मीदवार न हो। ऐसे निर्वाचन क्षेत्र का चयन कोई तभी करता है, जब उसे चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि प्रतीकात्मक तौर पर लड़ना हो। लिहाजा, शर्मिला को मिले महज 90 वोट के लिए जनता को कोसना निरर्थक है। बल्कि जनादेश का अपमान भी।
दिलचस्प तो यह कि कई चूके हुए क्रांतिकारियों को इरोम के 90 वोट में खुद अपनी नाकामियों की शरणस्थली दिख रही है। ऐसी बकवास जनता के पीछे हम क्यों अपना सुख-चैन गवां दें, कुछ ऐसे ही स्वर सुनाई दे रहे हैं। शर्मिला इरोम द्वारा चुनावी राजनीति से दूर होने की बात भी भावनात्मक फैसला है। अभी तो पार्टी शुरू हुई है साथी इरोम शर्मिला चानू। यथास्थिति की राजनीति के दिन जल्द ही लद जाएंगे। आज से पूरे राज्य में संगठन निर्माण पर ध्यान दें तो कल आपका ही होगा। इस देश के मतदाताओं ने सच्चे संघर्ष के साथ संसदीय राजनीति के नियमों को समझने वाली किसी भी ताकत को कभी निराश नहीं किया है। विभिन्न वामपंथी और समाजवादी शक्तियों के साथ ही अब आम आदमी पार्टी को मिल रही व्यापक चुनावी सफलता बताती है कि वक्त आपके साथ भी न्याय करेगा। और हां, एक बार फिर सुन लें विलाप में डूबे मित्रों, इन 90 वोटों के तराजू पर इरोम शर्मिला के सघर्ष को तौला नहीं जा सकता। उस संघर्ष का देश और दुनिया के इतिहास में स्थान अमिट है, अमिट ही रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.राँची में रहते हैं।)
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हर चीज की तरह संसदीय राजनीति के भी अपने नियम होते हैं। उन्हें नहीं जानने वाले का असफल होना स्वाभाविक है। मणिपुर विधानसभा चुनाव में इरोम शर्मिला चानू को महज 90 वोट मिलना भी इसी सच का प्रतीक है। इस पर आंसू बहाना, जनता या लोकतंत्र को खरी-खोटी सुनाना निरर्थक है। इस पराजय को मणिपुर में इरोम शर्मिला की लोकप्रियता कम होने का संकेत मानना भी गलत होगा। इस हार से देश और दुनिया में जनसंघर्षों के इतिहास में मणिपुर की इस आयरन लेडी के महान योगदान के स्थान पर भी रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा।


















