अभिषेक श्रीवास्तव
ये कहानी एक ऐसे लेखक की है जिसे पूरी तरह जानने का दावा तो कोई नहीं कर सकता, फिर भी जानने का दावा सब करते हैं। कुछ लोग इस लेखक के बाएं हैं, तो कुछ दाएं। लेखक कहां है? वह अपने गांव-घर में है, नदी किनारे बैठा हुआ। अपनी, अपने घर की और एक नदी की मौत की उलटी गिनती गिनता हुआ। यह कहानी हिंदी समाज के लोकवृत्त में ‘प्रगतिशीलता’ और ‘प्रतिगामिता’ नाम की दो मानक और विभाजक कोटियों के पार एक छटपटाते हुए मनुष्य की है जो आत्महीनता और स्वत्व के बीच विचारधाराओं और उनके वाहकों के अर्थ खोजने के क्रम में अपनी और अपने परिवार की जान गंवा देने की देहरी पर आ खड़ा हुआ है। इस कहानी में ”दिल्ली की दीवार” से लेकर ”पीली छतरी वाली लड़की” और ”टेपचू” तक के तमाम किरदार जिंदा होते नजर आते हैं। ये किरदार लेखक को घेरे हुए हैं। लेखक जब बोलता है, तो एक नदी बहती है। लगता है कि अपनी सारी कहानियों को मिलाकर वह एक महाउपन्यास-सा गढ़ रहा है। गोया सोन, गंगा में मिल रही हो। गोकि न तो यह उपन्यास है, न कविता और न ही कोई और गल्प। यह अपनों और अन्यों से बहरा दिए गए एक नैतिक आग्रह की छूटी हुई पुकार है जिसमें हमारा वक्त बोलता है। हमारे वक्त के सारे नायक-खलनायक इसके भीतर बसते हैं।
बकौल उदय प्रकाश, यह कहानी उनकी या उनके परिवार की नहीं है। यह विशुद्ध ”मानवता” का मसला है। यह ईकोलॉजी का मसला है। यहां नदी है। नदी की धार है। पेड़ हैं। जंगल हैं। ज़मीन है। और इन सब को एक साथ निगलने को बेताब माफिया की लंबी जीभ है। माफिया कहीं और नहीं। किसी और ग्रह का नहीं। यहीं का है। घर में हैं। घर के भीतर वास करता है। बस, पता अब चला है। माफिया जान गया है कि उसके भगवा वस्त्रों के भीतर का रीछ लेखक को दिख चुका है। माफिया को अब लेखक की जिंदगी से कम कुछ नहीं चाहिए।
सारंगगढ़ कुनबे का ”आउटकास्ट”
कहानी शुरू होती है शहडोल के सारंगगढ़ एस्टेट में उदय प्रकाश के जन्म से 1952 में, जो करीब 40 वर्ग मील में फैला क्षेत्र था- लगभग एक राज्य जितना। जन्म के साल भर बाद ज़मींदारी उन्मूलन कानून लागू हो गया। लगान वसूलने का काम कलक्टर के पास चला गया। फिर 1962 में सीलिंग कानून आ गया जिसमें नियम बना कि एक ज़मींदार परिवार 52 एकड़ से ज्यादा ज़मीन नहीं रख सकता। पूरे गांव में जितने लोग थे, सबके नाम पर कुछ न कुछ ज़मीन कर दी गई। सब अपनी-अपनी ज़मीन कुछ समय बाद लेकर चले गए। जो बचा, वह परिवार के नाम पर था। उदय प्रकाश की दो छोटी बहनें थीं। उनके नाम भी ज़मीन करवाई गई। जहां घर था, जहां पर ये सारा बवाल आज हो रहा है, उसकी ज़मीन उदय प्रकाश के पिताजी ने अपनी बहन यानी उनकी सगी बुआ कृष्णा कुमारी सिंह के नाम करवायी।
परिवार काफी बड़ा था। उदय प्रकाश की छह बुआ थीं। पिता तीन भाई थे। दो बडी बुआओं की शादी गिद्धौर हुई। बड़ी बुआ के दो बेटे हुए। दूसरी बुआ के बेटे थे मशहूर आइएएस कुमार सुरेश सिंह, जिन्होंने पहली बार बिरसा मुंडा को खोजा। वे डालटनगंज तैनात थे। वहां आदिवासियों के बीच उन्होंने संताली सीखी और आदिवासियों के 1500 गीतों को लिपिबद्ध किया। ‘उलगुलान’ शब्द उन्हीं का दिया हुआ है। अकाल पर उन्होंने इतना अहम काम किया कि इंदिरा गांधी उनसे मिलने आ गईं। ”पीली छतरी वाली लड़की” में किन्नूदा नाम का किरदार कुमार सुरेश सिंह का ही है। उनके छोटे भाई थे अवधेश सिंह। वो पटना युनिवर्सिटी के टॉपर रहे। उन्होंने परिवार से बग़ावत कर दी। वे उदय प्रकाश के घर सीतापुर आ गए। वहां से वे गांव के एक नाई टिर्रा के साथ अमरकंटक घूमने निकल लिए। पांच दिन बाद वे लौटे तो पता चला कि टिर्रा उनके कपडे पहने हुए था। पूछने पर पता चला कि अवधेश सिर मुंडाए नदी किनारे बैठे थे। वे पंडित ओंकारनाथ के शिष्य हैं और बाउल के अद्भुत गायक हैं। आज उनकी उम्र 78 साल है। उदय प्रकाश उन्हें शंकरदा कहते हैं। उन्हीं से मिलने उदय प्रकाश कुछ दिन पहले देवघर गए थे।
बाकी की दो बुआ हंडिया तहसील के नौलखा में ब्याही गईं। दोनों बुआओं की शादी दो सगे भाइयों के साथ हुई। नौलखा के बड़े फूफा राजा थे। उदय मृणाल सेन की ‘खंडहर’ का हवाला देते हुए बताते हैं कि नौलखा के बड़े वाले फूफा की कहानी सामंतवाद के पतन की एक हास्यास्पद और कारुणिक दास्तान है। इन्हीं के बेटे हुए कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह, कट्टर क्षत्रिय समाजी, संस्कृत के विद्वान और महंत अवैद्यनाथ के सहयोगी। वो दौर था जब विजयलक्ष्मी पंडित फूलपुर से चुनाव में खड़ी होती थीं। वो वहां आती थीं तो ये लोग उन्हें भगा देते थे। इस किस्म के वे कट्टर थे। अब कुल मिलाकर परिवार के थे, तो शत्रुता का कोई मतलब नहीं था। कुंवर नरेंद्र सिंह की मौत तब हुई जब योगी आदित्यनाथ गिरफ्तार हुए थे और वे उनकी ज़मानत लेकर आए थे। उदय प्रकाश उन्हीं की बरखी में गए थे, जब उन्हें लेकर हिंदी समाज में सारा बवाल कटा था।
(बहुत अच्छा-खासा कुनबा है आपका… मैं कहता हूं। उदयजी मुस्कुराते हैं… ”हां, लेकिन उड़ जाएगा हंस अकेला! जब आप कास्ट से बग़ावत करते हैं… बग़ावत भी क्या, जब बहुत दिन बाहर रहते हैं, तो लोग सोचने लगते हैं कि सब उनका है”)
सबसे छोटी बुआ की शादी सरायकेला में हुई। बड़ा सामंत घराना था, लेकिन ढाई साल में वे विधवा हो गईं और मायके सीतापुर आ गईं। जिस ज़मीन पर अभी सारा बवाल चल रहा है, वह ज़मीन उदय प्रकाश के पिताजी ने इन्हीं बुआ के नाम की थी। यह बात 1969-70 की है। वहीं उदय के बड़े भाई रहते हैं। वे उदय से छह साल बड़े हैं। उन्होंने बुआ के दिमाग में बैठा दिया कि उदय प्रकाश करोड़पति हैं। उस वक्त 1970 में उदय सागर में रहते थे, ट्यूशन पढ़ाते थे लेकिन तभी उनके बड़े भाई ने करोड़पति होने का प्रचार कर डाला। बुआ के दिमाग में बैठ गया कि उदय को कुछ नहीं चाहिए। लिहाजा बड़े भाई को उन्होंने पावर ऑफ अटॉर्नी दे दिया। इस बीच उदय प्रकाश करीब 28 साल गांव नहीं गए। घर से कुछ नहीं लिया। जो बनाया, अपनी मेहनत से। उदय प्रकाश को पता था कि पावर ऑफ अटॉर्नी बड़े भाई के पास है, लेकिन बडे भाई पर उन्हें भरोसा था। 1987-88 में बहनों ने कहा कि अब बंटवारा हो जाना चाहिए। बंटवारा हुआ। सारी बंजर ज़मीन भाई ने इन्हें दे दी और खेती की ज़मीन अपने पास रख ली। कोई कागज़ी लिखा-पढ़ी नहीं हुई। इन्होंने मान लिया कि दे दिया तो दे दिया। भाई पर क्या शक़ करना।
(वे कहते हैं- ”आइ एम ए फूल… आइ आलवेज़ ट्रस्टेड ऑन वर्ड्स… जैसे विचारधारा पर…”, और हंस देते हैं)
इस बीच अपनी वाली ज़मीन पर उदय प्रकाश ने प्लॉटिंग करवाई। किसी पंडितजी ने एक पेट्रोल पंप के लिए अपनी ज़मीन बेची थी और इसका बहुत हल्ला था कि उन्होंने काफी महंगी ज़मीन बेची है। उसी से प्रेरित होकर इन्होंने छह एकड़ दस डिसमिल पर प्लॉट कटवा दिया। खसरा नंबर 10… और दिलचस्प ये कि उसकी कोई रजिस्ट्री इनके नाम नहीं थी। सब भरोसे का मामला था। इसमें कुल 93000 का खर्च आया। पंडितजी ने 19 रुपया 23 पैसा वर्ग फुट बेचा था। इन्होंने 50-55 रुपये के रेट पर बेचा। उसी वक्त उदय रोहिणी छोड़कर वैशाली वाले घर आए थे। उसका 11 लाख कर्जा उनके ऊपर था। इसलिए इन्होंने पांच-छह प्लॉट बेच दिए। तब इनके बड़े भाई को लगा कि ये तो गड़बड़ हो गया। अपनी बहन को इन्होंने अपनी स्थिति बताई। सहमति से इस पैसे की पेशकश इन्होंने अपनी बहन और बड़े भाई को भी की। उदय के दिमाग में इस ज़मीन को लेकर लंबी योजना थी कि सारे भाई-बहनों के जिम्मे कुछ साल बाद कुछ पैसा आ जाएगा लेकिन बड़े भाई के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। उन्होंने पैसे लेने से इनकार कर दिया। सारे बवाल की शुरुआत यहीं से हुई।
(बीच में रुककर वे कहते हैं- ”मेरा मर्डर हो सकता है वहां जा कर…”)
उन्होंने मुझे जो दिया, मैंने मानकर ले लिया। बाद में उन्होंने सब छीन लिया क्योंकि सारे काग़ज़ात तो उन्हीं के पास थे। इसके बाद मैं थोड़ा सतर्क हुआ। पावर ऑफ अटॉनी लेकर मेरे बड़े भाई सोन नदी के रेत माफिया बन चुके थे। तब तक मैं घर बनवा चुका था। यह पांच-सात साल पहले की ही बात है। उस ज़मीन का खसरा नंबर है 14 और करीब 18 एकड़ ज़मीन है। पिछले पचास साल से यह ज़मीन बडे भाई के पास थी। बड़े भाई के पास अपनी ज़मीन कोई 104 एकड़ है। बुआ की मौत 2005 में हो चुकी थी लेकिन अब भी बड़े भाई पावर ऑफ अटॉर्नी का सुख ले रहे थे और रेत खोद रहे थे। चार साल पहले तक बड़े भाई कांग्रेसी थे, अब संघ और सरकार का उनके सिर पर हाथ है। लेखक के सामने आसन्न खतरे को समझने के लिए इतना ही तथ्य काफी है।
(मैं जाता ही नहीं था वहां। मैं वास्तव में ‘निर्वासित’ था। मेरा भरोसा टूट चुका था। वे रेत से कमा रहे थे। उनके पास करोड़ों हैं लेकिन हुलिया दरिद्र वाला बना रहेगा। यहां कुछ नहीं है लेकिन आप देखिएगा कि सोफा है… सब है… और वो भी चोरी होने के बाद…”, और सब ठहाका लगा देते हैं।)
पहले रेत का ठेका बहुत छोटे स्तर पर हुआ करता था। कीमत भी इतनी नहीं थी। बड़े भाई आदिवासियों के नाम से ठेके ले लेते थे। इनके साथ के लोग करोडपति हो गए। जंगल की लकड़ी काट के चोरी से बेचना, रेत बेचना… सब उसी का विस्तार है। असल मामला आरएसएस, माफिया और सवर्णों के सीधे हमले का है। कॉरपोरेट माफिया सरकार चला रहा है। हमारे ऊपर माफिया का शासन है। राजनीति का यह बिलकुल अलग दौर है।
”मैं आउटकास्ट हूं।”
बिरहमनी नर्मदा बनाम विजातीय सोन और जोहिला का प्रेम
उदय प्रकाश कहते हैं:
”जब आप वजूद के कगार पर होते हैं तो आप लड़ते हैं। जब मैं ऐसे संकट में घिरता हूं तो कभी ग़ालिब, कभी मुक्तिबोध… कभी शमशेर को पढ़ता हूं कि ”सरकारें पलट जाती हैं जब हम दर्द से करवट बदलते हैं…।”
और ग़ालिब का एक शेर कहते हुए उनकी आंखों में चमक आ जाती है:
बाग़ पा के ये ख़फ़कानी डराता है मुझे / साय-ए-शाख़े-गु़ल अफ़ई नज़र आता है मुझे
जौहर-ए-तेग बसर चश्मा-ए-दीगर मालूम / मैं हूं वो सब्ज़ा की ज़हराब उगाता है मुझे
वे दुहराते हैं:
मैं हूं वो सब्ज़ा की ज़हराब उगाता है मुझे!
उदय प्रकाश ने दो दिन पहले रवीश कुमार को फ़ोन किया था। उन्होंने न फोन उठाया न पलट कर कॉल करने की ज़हमत उठायी। मैं उनसे पूछता हूं कि और कौन है जो इस मामले में उनकी मदद कर सकता है। वे कहते हैं कि राजनीति से कोई उम्मीद नहीं क्योंकि वहां उसी माफिया का राज है। बचे बुद्धिजीवी, तो सारे सेलिब्रिटी और बुद्धिजीवी गिद्ध हैं… मुर्दाखोर हैं। घटना घट जाने के बाद ये आते हैं। वल्चर हैं… नव-ब्राह्मण हैं… ब्राह्मण जैसे गरुण पुराण पढ़कर खाते हैं न…!
”कभी-कभार मेरी तरह कोई मूर्ख भी होता है… वह विश्वास करना चाहता है, कि शायद… शायद…।” दूसरे शायद पर उम्मीदें दम तोड़ती नज़र आती हैं। लेकिन नहीं, इतनी जल्दी कोई नतीजा निकालना ठीक नहीं। वे एक कहानी सुनाते हैं। कहानी उसी सोन नदी की है जिसे बचाया जाना है।
सोन पुरुष है। नद है। भारत में पांच नद हैं। सिंधु, रावी, ब्रह्मपुत्र, ब्यास और सोन। ये पुरुष नदियां हैं। जब सात स्त्री नदियां मिलती हैं तो एक पुरुष नदी बनती है। उत्तर-पूर्व को सात बहनों का देश इसीलिए कहते हैं। मध्य भारत में तीन सबसे बड़ी नदिया हैं- सोन, नर्मदा और जोहिला। सोन और नर्मदा उदय प्रकाश के गांव से कुछ दूरी पर बहती हैं। नर्मदा ब्राह्मण हैं, कुलशीला हैं, उन्हें अपनी जाति पर बड़ा घमंड है। सोन दूसरी जाति की हैं। उधर सोन को क्षत्रिय भी मानते हैं। जोहिला, जिसका पौराणिक नाम ज्योतिषप्रदा है, उसे नाई मानते हैं। सोन और नर्मदा का उद्गम एक जगह से है। दोनों की शादी तय करा दी गई। अमरकंटक में माई का मडि़या है। वहां अब भी एक मंडप बना मिलेगा। मेघदूतम् में अमरकंटक को आम्रकूट कहा गया है। इसका मतलब है आमों का जंगल। तो कहानी ये है कि सोन और नर्मदा की शादी हो रही थी थी, माई की मडि़या सजी थी। मंत्रोच्चार हो रहे थे। सात फेरे लगने थे। पांचवां फेरा लगा, तब तक किसी सहेली ने आकर नर्मदा को बताया कि सोन का किसी नाई के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है। यह सुनते ही कुलशीला नर्मदा ने शादी की गांठ तोड़ दी। वह अकेली नदी है जो उलटा भागी है। उत्तर से होकर दक्षिण-पश्चिम में भरूच में समुद्र में मिल गई है, जहां सरदार सरोवर बांध बना है। वरना ये माना जाता है कि भारत की हर नदी का लक्ष्य गंगा में मिलना होता है पवित्र हो जाने के लिए। सोन इतना शर्मिंदा हुआ है कि अमरकंटक से गिरा है तो ज़मीन में गड़ गया है। सचमुच देखने में ऐसा ही लगता है। फिर वो आगे गोरैया नाम की जगह पर सोन दोबारा निकलता है। जो नाई नदी है, जोहिला, वो अस्सी मील घूमने के बाद कटनी से आगे सोन में मिल जाती है। फिर दोनों नदियां डेहरी ऑन सोन से होते हुए पटना में जाकर गंगा में मिल जाती हैं।
कहने का मतलब यह है कि जिन्होंने अपने बीच सघन प्रेम के चलते जाति प्रथा को तोड़ा, वे गंगा में जाकर मिल गए और पवित्र हो गए। दूसरी ओर नर्मदा, जिसे बिरहमनी श्रेष्ठता का भ्रम था, वह समुद्र में गिरी, गंगा में नहीं मिल सकी। समुद्र किसका है? वरुण का। वरुण लम्पट है। कहने का मतलब कि जो अच्छे लोग होते हैं उनकी स्त्रियां पूजा करती हैं और बैठती हैं लम्पट की गोद में (ऑस्कर वाइल्ड के किसी कथन को याद करते हुए)।
इस कहानी का मर्म समझिए। एक लेखक यहां अपनी कहानी नहीं कह रहा। यह कहानी एक नदी की है, उसकी रेत की है। नदी के जेंडर के बहाने यह कहानी जाति की जकड़न से मुक्ति और ब्राह्मणवादी वर्णक्रम के दंभ की है। वे कहते हैं:
”यह कहानी कहीं बाहर नहीं है, भीतर है। सब कुछ भीतर है।”
एक लेखक की जान खतरे में है। एक नदी की जान खतरे में है। लेखक कहता है कि मैं रहूं न रहूं, यह जंग हम ही जीतेंगे। नदी की हत्या करने वालों की हार होगी।
और अंत में…
जिस 18.6 एकड़ की ज़मीन पर विवाद है, जो उदय प्रकाश की है लेकिन उनकी नहीं है, उसका 11 एकड़ लेखक ने पैसे चुकाकर खरीद लिया है। किससे खरीदा और किसके लिए? छोटी बुआ, जिनकी मौत 2005 में हो गई थी, उनका एक बेटा है राहुल। राहुल को कैंसर है। वे एम्स में भर्ती हैं। उनकी मदद परिवार में कोई नहीं कर रहा। चूंकि 2005 में बुआ की मौत के बाद उदय के बड़े भाई को दिया पावर ऑफ अटॉर्नी एक्सपायर हो गया, तो उन्होंने राहुल से उस जमीन का 11 एकड़ खरीद लिया ताकि लगे हाथ राहुल को इलाज के लिए कुछ पैसे मिल जाएं।
”मैं वह पहला आदमी हूं जो अपनी मातृभूमि को अपने पैसे से खरीद रहा है।”
क्या इसके बाद भी कुछ कहने को बाकी रह जाता है? चीना बाबा से माफी सहित केदारनाथ सिंह के शब्द उधार लूं, तो ऐसा कहते वक्त लेखक की ”आवाज में बरगद के पत्तों के दूध का बल था।” जवाब में मेरे शब्दकोश में पर्याप्त शब्द नहीं थे। केदार जी से बेहतर ”उदय प्रकाश के लिए” और कौन लिख सकता था (मंच और मचान):
… उधर फैलती जा रही थी हवा में
युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गंध
और “नहीं…नहीं…”
कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज
और अगली ठक् के नीचे दब जाती थी
जाने कितनी चहचह
कितने पर
कितनी गाथाएँ
कितने जातक
दब जाते थे हर ठक् के नीचे
चलता रहा वह विकट संगीत
जाने कितनी देर तक
-कि अचानक
जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई
और लोगों ने देखा कि चीख न पुकार
बस झूमता झामता एक शाहाना अंदाज में
अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद
सिर्फ ‘घर’ – वह शब्द
देर तक उसी तरह
टँगा रहा हवा में
तब से कितना समय बीता
मैंने कितने शहर नापे
कितने घर बदले
और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना समय
इस सच तक पहुँचने में
कि उस तरह देखो
तो हुक्म कोई नहीं
पर घर जहाँ भी है
उसी तरह टँगा है।