मेरा भारत महान: सीईओ का सालाना वेतन = मज़दूर के 941 साल


असमानता इस कदर है कि दुनिया में सुख-शांति एक असंभव कल्पना बन गई है




प्रकाश के रे

मशहूर कवि गोरख पाण्डेय का एक लेख है- ‘सुख के बारे में’.इसकी शुरुआत वे तुलसीदास की एक चौपाई से है -पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं. यानी सुख स्वाधीनता में है. और स्वाधीनता के लिए जरूरी है कि आदमी किसी भी तरह मोहताज न हो. मोहताजी का सबसे बड़ा रिश्ता जेब से होता है लेकिन इंसानी समाज में सबसे बड़ा फ़र्क कोई है, तो वह जेब का ही है. सुख की तलाश में इंसान जेब भरने में जुटा रहता है और लगातार दुखी होता है. वजह है असमानता. कहीं जेबें भारी होकर फट रही हैं तो कहीं फटी जेबें ही पहचान हैं. इनके बीच युद्ध इतिहास की सबसे बड़ी सच्चाई है.

यह असमानता इस कदर है कि दुनिया में सुख-शांति एक असंभव कल्पना बन गई है। शांति ही क्यों, किसी भी तरह की नैतिकता की भी उम्मीद करना बेमानी है। तानाशाहियों की बात छोड़िए, लोकतंत्रों की भी यही सच्चाई है। बात चाहे सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका की हो या सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की।

वाशिंग्टन के इकोनॉमिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने इस साल जारी एक रिपोर्ट में बताया है कि 2015 में सबसे ज़्यादा कमाई करनेवाले एक फ़ीसदी परिवारों ने बाक़ी 99 फीसदी परिवारों से 26.3 गुनी ज़्यादा आमदनी की. कमाने के मामले में आगे रहे एक फ़ीसदी परिवारों में शामिल होने के लिए एक परिवार को 421,926 डॉलर (कर समेत) कमाना था. बाक़ी 99 फ़ीसदी परिवारों की औसत आमदनी 50,107 डॉलर रही थी. यह औसत है. इससे असमानता का अनुमान लगाया जा सकता है. साल 1965 और 2016 के बीच कंपनियों के सीईओ और साधारण कामगार की आय का अंतर 20 गुना से बढ़कर 271 गुना हो चुका है. साल 2014 की ऑक्सफ़ैम रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका की कुल निजी संपत्ति का 38 फ़ीसदी सिर्फ़ एक फ़ीसदी के पास है और निचली 90 फ़ीसदी आबादी को कुल क़र्ज़ का 73.2 फ़ीसदी हिस्सा चुकाना है. बाद के सालों में यह बढ़ा ही है. आमदनी और क़र्ज़ का हिसाब लगायें, तो यही पता चलता है कि यह क़र्ज़ कभी चुकता हो ही नहीं सकता. पिछले साल की ऑक्सफ़ैम रिपोर्ट बताती है कि आधी दुनिया से ज़्यादा संपत्ति सिर्फ़ आठ लोगों के पास है. ब्रिटिश हाऊस ऑफ़ कॉमंस के दस्तावेज़ों का अनुमान है कि 2030 तक दुनिया के एक फ़ीसदी सबसे धनी लोगों के हाथ में धरती का दो-तिहाई धन होगा. 

अब कुछ बुनियादी ख़र्च का हिसाब देखा जाये. कॉलेज बोर्ड के अनुसार, अमेरिका में अंडर ग्रैजुएट छात्र का सालाना ख़र्च (2017-18) कम्यूनिटी कॉलेज में 17,580 डॉलर, पब्लिक कॉलेज में (राज्य के छात्रों के लिए) 25,290 डॉलर, पब्लिक कॉलेज में (अन्य राज्यों के छात्रों के लिए) 40,940 डॉलर तथा निजी (नॉन-प्रॉफ़िट) कॉलेज में 50,900 डॉलर है. 

मिलिमैन इंडेक्स रिपोर्ट के अनुसार, चार सदस्यों वाले बीमित परिवार को 2018 में औसतन 28 हज़ार डॉलर ख़र्च करना पड़ सकता है. अमेरिका में युवाओं को बीमा प्रिमियम में कुछ छूट है. इनका ख़र्च 2016 में विभिन्न राज्यों में 4,320 से 10,224 डॉलर के बीच रहा था. इस आँकड़े के साथ उसी साल की गोबैंकिंग रेट्स की एक रिपोर्ट भी उल्लेखनीय है कि 18 से 24 साल आयु के 72 फ़ीसदी युवाओं के बचत ख़ाते में हज़ार डॉलर से कम हैं. इस वर्ग में 31 फ़ीसदी के पास कोई बचत ही नहीं है. सिर्फ़ आठ फ़ीसदी ऐसे हैं जिनके पास 10 हज़ार डॉलर से ज़्यादा है. उसी रिपोर्ट में बताया गया था कि 69 फ़ीसदी अमेरीकियों के पास एक हज़ार डॉलर से कम बचत है और 34 फ़ीसदी के पास बचत के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं है. अन्य धनी देशों की तुलना में अमेरिका में दवाई और अस्पताल भी बहुत महँगे हैं. यह भी दिलचस्प है कि वे अन्य देशों के मुक़ाबले डॉक्टर के पास कम जाते हैं, फिर भी स्वास्थ्य के मद में उनका भारी ख़र्च होता है. इस हिसाब से उन तीन करोड़ से ज़्यादा अमेरीकियों की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जिनके पास बीमा नहीं है. विश्व बैंक का एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि आज स्वास्थ्य एवं शिक्षा में अमेरिका दुनिया में 27वें पायदान पर है, जबकि 1990 में उसका स्थान छठा था. 

अब आते हैं भारत. अमेरिका की तरह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और सुख-चैन के बारे में तमाम दर्शनों और मान्यताओं का जनक. ऑक्सफ़ैम के अनुसार, 2017 में भारत के खरबपतियों की संपत्ति में 4891 अरब रुपये की बढ़ोतरी हुई, जो कि देश के तमाम राज्यों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के बजट के 85 फ़ीसदी ख़र्च के लिए बहुत है. उस साल जो धन पैदा हुआ, उसका 73 फ़ीसदी सबसे धनी एक फ़ीसदी लोगों के पास गया, जबकि देश की ग़रीब आधी आबादी (67 करोड़ लोग) के धन में सिर्फ़ एक फ़ीसदी बढ़त हुई. एक फ़ीसदी धनी आबादी के धन में 20,913 अरब रुपये की बढ़त हुई, जो 2017-18 के केंद्रीय बजट के बराबर है. देश की 73 फ़ीसदी संपत्ति सबसे धनी 10 फ़ीसदी लोगों के हाथ में है.

आर्थिक विषमता का अंदाज़ा लगाने के लिए ऑक्सफ़ैम के दो तथ्य बहुत हैं- (1) भारत के किसी बड़ी कपड़ा कंपनी का शीर्षस्थ अधिकारी जितना एक साल में कमाता है, उतना कमाने के लिए तय न्यूनतम मज़दूरी पर काम करनेवाले ग्रामीण भारत के एक मज़दूर को 941 साल लगेंगे. इस मज़दूर की जितनी कमाई 50 साल में होगी, उतनी कमाई कपड़ा कंपनी का सीइओ सिर्फ़ 17.5 दिन में कमा लेगा. ध्यान रहे, यह हिसाब सिर्फ़ वेतन का है. साल 2006 और 2015 के बीच साधारण कामगारों की कमाई में औसतन हर साल दो फ़ीसदी की बढ़त हुई, जबकि अरबपतियों की कमाई में इससे छह गुनी अधिक रफ़्तार से बढ़ी. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया के सबसे धनी एक फ़ीसदी लोग हर साल 200 अरब डॉलर की कर चोरी करते हैं तथा विकासशील देशों में कॉरपोरेशन और धनी लोग अन्य तरीक़ों से 170 बिलियन डॉलर का चूना लगा देते हैं. 

स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े कुछ सूचनाओं को देखते हैं. इंपैक्ट गुरु के प्रमुख पीयूष जैन ने विशेषज्ञों के हवाले से एक लेख में बताया है कि भारत के स्वास्थ्य ख़र्च का 80 फ़ीसदी हिस्सा निजी क्षेत्र में होता है. फ़िलहाल सरकार अपने सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का सिर्फ़ 1.15 फ़ीसदी ख़र्च करती है, जिसे 2025 तक 2.5 फ़ीसदी करने का असंभव लक्ष्य रखा गया है. मिलिमैन रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में सिर्फ़ 44 फ़ीसदी आबादी बीमित थी. आयुष्मान भारत योजना से होनेवाले फ़ायदे का हिसाब अगले साल होगा कि इसमें कितना जुमला है और कितना सही है. यदि निजी क्षेत्र के ख़र्च को भी जोड़ लें, तो जीडीपी में स्वास्थ्य सेवा पर ख़र्च का आँकड़ा 4.7 फ़ीसदी होता है. सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं और समुचित बीमा के अभाव में चिकित्सा पर ख़र्च का 62 फ़ीसदी ख़र्च बीमार को वहन करना पड़ता है. ध्यान रहे, यह औसत है. नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक, हर दस में से सात भारतीय अपना उपचार निजी अस्पताल में कराता है. ब्रूकिंग्स इंडिया के एक रपट के अनुसार, 2004 और 2014 के बीच उपचार पर भारी ख़र्च की वज़ह से देश की सात फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे चली गयी थी. बीते सालों में इसमें कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है. महँगी दवा, फ़ीस और जाँच के बारे में शायद ही कोई भारतीय होगा, जो नहीं जानता होगा. 

साल 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में बताया गया था कि 2016-17 में सरकार ने शिक्षा पर जीडीपी का 2.6 फ़ीसदी ख़र्च किया था. इस ख़र्च में शिक्षा के साथ खेल, कला और संस्कृति भी शामिल है. एचएसबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, कई अभिभावक बच्चों को विश्वविद्यालय भेजने का ख़र्च जुटाने के लिए ज़्यादा आमदनी के लिए अलग से कुछ काम कर रहे हैं. बहुत लोगों को इस बात का अफ़सोस है कि उन्होंने समय रहते इस मद के लिए बचत नहीं की या योजना नहीं बनायी. इनका कहना है कि उच्च शिक्षा पर उनका औसतन ख़र्च क़रीब 3.62 लाख है, जबकि पूरा ख़र्च पौने आठ लाख रुपये से ज़्यादा है. इसका 75 फ़ीसदी हिस्सा पढ़ाई के शुल्क में जाता है. बाक़ी पैसा वे या तो दूसरा काम कर या क़र्ज़ लेकर चुकाते हैं. इस रिपोर्ट के सर्वे में शामिल हुए 64 फ़ीसदी अभिभावकों ने बताया कि बच्चे की उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने कोई क़र्ज़ ज़रूर लिया है.

ऐसा ही एक अध्ययन इसी साल भारतीय प्रबंधन संस्थान, बंगलुरु में भी प्रस्तुत किया गया था, जो नेशनल सैंपल सर्वे के आँकड़ों पर आधारित था. इसके मुताबिक, 70 फ़ीसदी से ज़्यादा अभिभावक अपने वेतन का 30-40 फ़ीसदी हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर ख़र्च करते हैं और इस कारण उन्हें भोजन, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि मदों में कटौती करनी पड़ती है. एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार, एक सामान्य स्कूल में तीन से पाँच साल की उम्र के बच्चों का ख़र्च 35 से 75 हज़ार है, तो बड़े बच्चों का ख़र्च 65 हज़ार से सवा लाख रुपये सालाना है. 

कुछ महीने पहले जारी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की तरफ़ से एक अध्ययन में बताया गया है कि बीते 15 सालों में विभिन्न क्षेत्रों में वेतन-भत्तों में तीन फ़ीसदी की सालाना बढ़त (मुद्रास्फीति को समायोजित करने के बाद) हो रही है, फिर भी कामगारों की बहुत बड़ी संख्या को सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशों में इंगित न्यूनतम वेतन से बहुत कम मिल रहा है. देश के कामकाजी पुरुषों का 82 फ़ीसदी और महिलाओं का 92 फ़ीसदी हिस्सा 10 हज़ार से कम के वेतन पर काम कर रहा है. यदि आप 50 हज़ार रुपया महीना वेतन पा रहे हैं, तो आप आमदनी के हिसाब से देश के शीर्ष एक फ़ीसदी लोगों में शामिल हैं. हाल के दौर में शिक्षित युवाओं में बेरोज़गारी की दर 16 फ़ीसदी पहुँच चुकी है. इसमें यह भी पाया गया कि जीडीपी के आँकड़ों में दस फ़ीसदी की बढ़त से रोज़गार में सिर्फ़ एक फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो रही है.     

अब इस हाले-बेकसी में बिना पैसे के तो मामूली सुकून भी हासिल नहीं किया जा सकता है, सुख और ख़ुशियाँ तो बहुत दूर की कौड़ी हैं. हो सकता है कि करोड़पतियों और अरबपतियों की संपत्ति में कुछ करोड़ या अरब और जुड़ जाने से उनके रहन-सहन और ऐश-आराम पर बहुत ख़ास असर नहीं होता होगा, पर एक आम आदमी के लिए तो कुछ हज़ार भी बहुत फ़र्क पैदा कर सकते हैं. किसी ग़रीब की तो किस्मत ही चमक जायेगी. चूँकि हममें से ज़्यादातर लोग निम्न आयवर्ग से हैं या फिर ग़रीबी के मुहाने पर हैं, ऐसे में तुरंता राहत बिना पैसे के नहीं मिल सकती है. इस तरह से पैसे कमाने के लिए हमारी कोशिश असल में सुख कमाने की ही कोशिश है. इस भयानक अनैतिक समय में हम यह आग्रह भी नहीं रख सकते कि पैसा कमाने का नैतिक रास्ता क्या है. ज़मीर फ़िल्म में साहिर लुधियानवी का लिखा और किशोर कुमार का गाया वह गीत तो हम सबने सुना है…

जहाँ सच न चले वहां झूठ सही 

जहाँ हक़ ना मिले वहां लूट सही 

यहाँ चोर हैं सब, कोई साध नहीं 

दुख ढूंढ ले सुख, अपराध नहीं 

प्यारे तू ग़म ना कर 

ज़िन्दगी हंसने गाने के लिए है.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।