सात साल लंबे विचार-विमर्श के बाद ऐन अंतिम फैसले के वक्त क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) से अपने को अलग करके भारत ने अपना नुकसान किया है या फायदा, इसका अंदाजा कुछ समय गुजरने के बाद ही लगाया जा सकेगा। भारत में किसान इसके खिलाफ आंदोलन कर रहे थे और पूरे देश में इसके खिलाफ चिंता का भाव देखा जा रहा था। इस बेचैनी की मुख्य वजह यह थी कि आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौता तमाम किंतु-परंतु के बावजूद दक्षिण भारत की खेती-किसानी के लिए बहुत भारी पड़ा है।
सबसे बड़ी बात यह कि नोटबंदी और अटपटे जीएसटी के चलते मोदी सरकार की छवि आर्थिक मामलों में बिना सोचे-विचारे एकतरफा फैसले लेने वाली संस्था की बन गई है। सबको डर था कि प्रधानमंत्री बैंकाक में गा-बजाकर कुछ ऐसा कर आएंगे, जिसे झेलने में सबकी कमर टूट जाएगी। वह आशंका आरसेप से अलग होने की घोषणा से दूर हो गई है, लेकिन भारत को इससे कोई फायदा तब होता जब इस ट्रेड ब्लॉक के बनने का फैसला आगे टल जाता। अफसोस कि हुआ उलटा। चीन बाकी 14 देशों में अपनी राय चलाने में कामयाब रहा और आरसेप पर दस्तखत हो गए। नतीजा यह रहा कि बगल में दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक गुट बन गया और भारत इससे अलग-थलग अपनी ढपली पर अपना राग बजाता नजर आने लगा।
सैद्धांतिक रूप से अपनी शर्तें मान लिए जाने की स्थिति में आगे चलकर हम इसमें शामिल भी हो सकते हैं। लेकिन अव्वल तो शर्तें माना जाना ही मुश्किल है, दूसरे बाद में शामिल हो भी गए तो इसके जो फायदे शुरू में मिल सकते थे, वे नहीं मिल पाएंगे। मसलन, ऑटो बिजनेस ठप होने से ब्रेक, स्टीयरिंग और क्लच प्लेट बनाने वाले जो ढेरों छोटी-छोटी कंपनियां गुड़गांव में आज ठप पड़ी हुई हैं, उन्हें जापान या दक्षिण कोरिया की ऑटो कंपनियों से जुड़कर जो वैकल्पिक बाजार मिल सकता था, उसमें अगले एक साल के अंदर कोई थाई या इंडोनेशियाई कंपनी घुस चुकी होगी।
भारत के खेतिहरों को इस समझौते से जो नुकसान हो सकता था वह आसियान देशों से सस्ते पाम आयल और मसालों की आवक से पहले ही हो चुका है। चीन का कोई भी खेतिहर या डेरी प्रॉडक्ट ऐसा नहीं है जो भारत के इस मिजाज के सामानों से सस्ता और बेहतर हो। वहां का ज्यादातर डेरी मार्केट पहले से ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सामानों से पटा पड़ा है। अपनी चीन यात्रा में जो भी बटर, चीज या ब्रेड स्प्रेड मैंने इस्तेमाल किया, संयोगवश सभी पर मेड इन न्यूजीलैंड की मोहर लगी थी। ये चीजें भारत के डेरी मार्केट में भी कुछ मार मचा सकती हैं, लेकिन अमूल और मदर डेरी की तुलना में इन अल्ट्रा-हाइजीनिक चीजों की कीमतें डेढ़-दो गुनी से नीचे तो किसी हाल में नहीं लाई जा सकतीं। लिहाजा खतरा सिर्फ फाइव स्टार या उससे ऊपर वाले होटलों के दायरे में होता, जहां भारत के प्रॉडक्ट पहले ही चलन से बाहर हैं।
अब जरा आरसेप की स्थापना से चीन को होने वाले फायदों पर नजर डालें तो उनकी किस्मत से रश्क होता है। जिस विएतनाम और फिलीपीन्स के पक्ष में अमेरिकी जंगी जहाज लगातार दक्षिणी चीन सागर में गश्त लगा रहे थे, वे इस विशाल ट्रेड ब्लॉक का हिस्सा बनकर संतुष्ट हो गए हैं। जापान से बीच-बीच में बन जाने वाली युद्ध जैसी स्थितियां भी अमेरिका के लिए बिल्लियों के झगड़े में बंदर वाला माहौल बना रही थीं। वह किस्सा लंबे समय के लिए तमाम हो चुका है।
भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका का एशिया-पैसिफिक क्वाड्रिलैटरल भी मंदी के माहौल में बिजनेस संभालने के नाम पर साल-दो साल आराम करने के लिए लिटा दिया गया है। समझौता होते ही चीन का मनोबल इतना बढ़ गया कि उसने अमेरिका से एकतरफा तौर पर अपने सारे व्यापारिक प्रतिबंध वापस लेने को कहा। यह भी कि कोई व्यापारिक वार्ता इसके बाद ही संभव हो पाएगी। भारत के आरसेप में रहते यह समझौता सार्क की तरह आधा जीवित आधा मृत अवस्था में पड़ा रहता। इससे अलग रहने की भारत की घोषणा के साथ ही चीन का बिगड़ा खेल बन गया।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं