पुलवामा में जैश-ए-मुहम्मद के दहला देने वाले फिदायीन हमले के बाद उम्मीद की जा रही थी कि पाकिस्तान की सरजमीं से संचालित हो रहे आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी तीखी प्रतिक्रिया होगी। माना जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में पाकिस्तान अलग-थलग पड जाएगा और आतंकवादी तंजीमों पर लगाम कसने के लिए पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान (सेना सहित) पर चौतरफा दबाव बनेगा, लेकिन अफसोस कि ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है। यह सही है कि अमेरिका और रूस सहित दुनिया के तमाम देशों ने पुलवामा हमले की निंदा की है, लेकिन इसके लिए पाकिस्तान को सीधे तौर पर किसी ने जिम्मेदार नहीं ठहराया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी एक सप्ताह के उहापोह के बाद जो निंदा प्रस्ताव पारित किया, उसमें पाकिस्तान का कहीं उल्लेख नहीं हुआ। ज्यादातर मुस्लिम राष्ट्र ही नहीं, बल्कि चीन भी पूरी तरह इस समय पाकिस्तान के साथ है। सउदी अरब ने तो पुलवामा हमले के ठीक तीन दिन बाद ही पाकिस्तान को 20 अरब डॉलर की मदद देने का एलान किया है। जिस इस्लामी सहयोग संगठन (ओआइसी) से भारत सरकार ने बहुत उम्मीद लगा रखी थी, उसने भी भारत को पूरी तरह निराश किया है। यह और बात है कि भारत सरकार अब भी उस सम्मेलन में अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की शिरकत को अपनी कूटनीतिक उपलब्धि मान कर चल रही है और उस सम्मेलन में भारत को झटका देने वाले पारित हुए प्रस्ताव को नजरअंदाज कर रही है।
पुलवामा हमले और उसके बाद पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों के ठिकानों पर भारतीय वायु सेना द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई की पृष्ठभूमि में हुए ओआईसी के सम्मेलन में भारतीय विदेश मंत्री को भी विशेष अतिथि के तौर पर बुलाया गया था। यह पहला मौका था जब इस्लामिक देशों के विदेश मंत्रियों के सालाना सम्मेलन में शामिल होने के लिए भारत को भी न्योता दिया गया था। पाकिस्तान ने भारत को बुलाने का पुरजोर विरोध किया था और अपनी मांग न माने जाने पर उस सम्मेलन का बहिष्कार भी किया। इस घटनाक्रम को भी भारत सरकार ने पाकिस्तान के मुकाबले अपनी कूटनीतिक बढ़त माना। कुछ पूर्व राजनयिकों और विश्लेषकों ने भी सरकार के सुर में सुर मिलाए, लेकिन अबू धाबी में इस महीने की शुरुआत में जब दुनिया के 56 इस्लामी देशों के इस सबसे बडे संगठन की महफिल जमी तो उसमें कूटनीतिक मोर्चे पर भारतीय कामयाबी के ढोल की पोल खुल गई। ओआइसी ने न सिर्फ भारत की उम्मीदों को गहरा झटका दिया बल्कि एक तरह से भारत को बुरी तरह बेइज्जत भी किया।
सम्मेलन में भाग लेने पहुंची भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां न तो भारत के मन की बात कह पाईं और न ही आतंकवाद के खिलाफ लडाई में इस्लामिक देशों से किसी तरह की मदद का भरोसा हासिल कर पाईं। सम्मेलन में जो प्रस्ताव पारित किया गया, वह भारत के लिए बेहद निराशाजनक रहा। प्रस्ताव में ‘भारतीय आतंकवाद’ और कश्मीरियों को पेलेट फायरिंग से अंधा किए जाने की कडी निंदा की गई। वैसे यह कोई पहला मौका नहीं था जब ओआइसी में कश्मीर का जिक्र हुआ। कश्मीर का मसला ओआइसी के हर सम्मेलन में उठता है, जिस पर कुछ देश भारत या पाकिस्तान का पक्ष लिए बगैर वहां की स्थिति पर चिंता जताते हैं। ज्यादातर देश पाकिस्तान का साथ देते हुए भारतीय सुरक्षा बलों पर कश्मीरियों के साथ ज्यादती करने और उनके मानवाधिकारों का हनन करने का आरोप लगाते हैं, लेकिन इस बार नजारा बिल्कुल अलग रहा। ओआइसी के सम्मेलन ने आधिकारिक तौर पर अपने प्रस्ताव में कश्मीरियों को ‘भारतीय आतंकवाद’ का शिकार बताया। गौरतलब है कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह पहला मौका रहा जब कश्मीर के संदर्भ में आधिकारिक तौर पर ‘भारतीय आतंकवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि आइओसी ने अपने प्रस्ताव में न तो पुलवामा के भीषण हमले की निंदा की और न ही उस पर किसी तरह का अफसोस जताया। प्रस्ताव में बाबरी मस्जिद फिर से तामीर कराने की मांग भी गई। कुल मिलाकर प्रस्ताव की सारी बातें भारतीय हितों के प्रतिकूल रहीं। भारत को नीचा दिखाने वाली रहीं।
समूचे भारत ने एक स्वर में पुलवामा हमले के लिए सीधे तौर पर पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया है। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने इस आरोप को न सिर्फ सिरे से खारिज किया है बल्कि वह यह भी प्रचारित कर रहा है कि पुलवामा कांड खुद भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करवाया है क्योंकि इसी बहाने वे 2019 का चुनाव जीतना चाहते हैं। इस तरह के गंभीर आरोप-प्रत्यारोप के मद्देनजर उम्मीद की जा रही थी कि भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ओआइसी के मंच से न सिर्फ पाकिस्तानी दुष्प्रचार का करारा जवाब देंगी, बल्कि पाकिस्तान का नाम लेकर उसे पुलवामा के हमले के लिए जिम्मेदार ठहराएंगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
सुषमा स्वराज ने अपने भाषण में भारत को आतंकवाद से पीडित तो बताया लेकिन इस संदर्भ में अपने पूरे भाषण के दौरान पाकिस्तान का नाम तक नहीं लिया। यही नहीं, उन्होंने पुलवामा हमले का तो जिक्र ही नहीं किया और इस पाकिस्तानी दुष्प्रचार को भी खारिज नहीं किया कि यह हमला खुद मोदी सरकार ने प्रायोजित किया था। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह रही कि पाकिस्तान की सरजमीं से संचालित होने वाले आतंकवादी संगठनों जैश-ए-मुहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का उल्लेख करने से भी भारतीय विदेश मंत्री ने परहेज बरता। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा उन्होंने सम्मेलन के आयोजकों के दबाव के तहत ही किया होगा। हां, सुषमा स्वराज की इस बात के लिए जरूर सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने वैश्विक आतंकवाद के संदर्भ में सैम्युल हटिंगटन की ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ वाली अवधारणा को खारिज किया और कहा कि इस आतंकवाद का किसी सभ्यता, संस्कृति या धर्म से कोई वास्ता नहीं है। उन्होंने आतंकवाद को लेकर सुचिंतित भारतीय मान्यता को अभिव्यक्ति देते हुए कहा कि यह वैचारिक विकृति है, जो धर्म और संप्रदाय का सहारा लेकर अपने इंसानियत विरोधी नापाक मंसूबों को अंजाम देती है। एक तरह से उनके कहने का आशय यह रहा कि आतंकवाद को राजनयिक या सैन्य स्तर पर खत्म नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर सुषमा स्वराज का भाषण तथ्यपूर्ण कम और अकादमिक ज्यादा रहा।
बहरहाल, यह अब भी हैरानी का विषय है कि भारत सरकार ने ओआइसी को इतनी तवज्जो क्यों दी और उससे मिले न्योते को लेकर वह इतना उत्साहित क्यों थीं? भारत ने हमेशा ही मजहबी आधार पर होने वाले इस तरह के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों से दूरी बनाए रखने की नीति अपनाई है। इस सिलसिले में 1969 का वाकया जरूर अपवाद कहा जा सकता है, जब ओआइसी ने भारत को निमंत्रण देकर भी उस सम्मेलन में शिरकत करने से रोक दिया था। ऐसा पाकिस्तान के फौजी तानाशाह याह्या खां की तिकडमों के चलते हुआ था। यह भारत का अपमान था, जिस पर तत्कालीन जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। उन्होंने इस सिलसिले में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीति का हवाला देते हुए उस सम्मेलन में भारत का सरकारी प्रतिनिधिमंडल भेजने के सरकार के फैसले को धर्मनिरपेक्षता की नीति के विरुद्ध बताया था। गौरतलब है कि 1955-56 में स्वेज नहर के संकट बाद काहिरा में आयोजित इस्लामी देशों के सम्मेलन में जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का सवाल आया था तब नेहरू ने स्पष्ट तौर पर इनकार कर दिया था। नेहरू के इसी फैसले का जिक्र करते हुए वाजपेयी ने कहा था कि इस्लामी देशों के गुट में शामिल होने की कोशिश करके हमने संयुक्त और राष्ट्र गुट निरपेक्ष आंदोलन को कमजोर किया है, हमने अफ्रीकी और एशियाई देशों की एकता पर चोट की है और अरब देशों की एकता भी भंग की है। उन्होंने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में क्षेत्रीय गुट बनाने की तो इजाजत है, लेकिन मजहबी आधार पर गुटबाजी की नहीं। वाजपेयी ने ओइसी के मोरक्को सम्मेलन में भारत को बुलाकर भी उसमें शिरकत न करने देने को इस्लामी देशों की एक चाल करार देते हुए कहा था कि उन्होंने भारत को अपमानित करने के लिए एक जाल बिछाया और भारत उसमें फंस गया। जाहिर है कि भारत के साथ जैसा 1969 में हुआ, वैसा ही अब ठीक 50 साल बाद अबू धाबी में हुआ। तब और अब में फर्क इतना ही रहा कि तब भारत को निमंत्रण देकर भी उसे पाकिस्तानी दबाव के चलते उस सम्मेलन में शामिल नहीं होने दिया गया था और इस बार सम्मेलन से पाकिस्तान के अलग रहने और भारत के शिरकत करने के बावजूद सम्मेलन में भारत के खिलाफ सख्त प्रस्ताव पारित हुआ। यानी भारत के साथ पहले से ज्यादा अपमानजनक बर्ताव हुआ। ओआइसी के प्रस्ताव से साफ जाहिर हुआ कि इस्लामिक देशों का नेतृत्व कश्मीर के मसले पर भारत के खिलाफ अपने संस्थापक सदस्य और इस्लामिक जगत के एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र पाकिस्तान को अलग-थलग करने के मूड में नहीं है और न ही वह उसे आतंकवाद को बढावा देने का दोषी मानने को तैयार है। मोदी सरकार ने और किसी की न सही अगर अटल बिहारी वाजपेयी की ही 50 साल पुरानी नसीहत को याद रखा होता तो वह ओआइसी के फेंके गए जाल में फंसने और देश की किरकिरी कराने से बच सकती थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)