तालिबान के साथ भारत की पहली ”अनधिकारिक” बैठक का अफगानिस्‍तान के लिए महत्‍व



प्रकाश के रे

अफगानिस्तान में अमन बहाल करने के इरादे से रूस की अगुवाई में मास्को में हो रही बहुपक्षीय बातचीत में भारत के प्रतिनिधि भी शामिल हो रहे हैं. यह खबर इसलिए बेहद खास है क्योंकि यह पहला मौका है जब भारत तालिबान के साथ किसी बैठक में भाग ले रहा है. भले ही भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि भारतीय भागीदारी ‘अनधिकारिक’ होगी यानी कोई सरकारी अधिकारी इसमें भाग नहीं लेगा, लेकिन सरकार की तरफ से भेजे गये दो प्रतिनिधि- अमर सिन्हा एवं टीसीए राघवन- वरिष्ठ कूटनीतिक और राजदूत हैं तथा फिलहाल भारत सरकार से संबद्ध संस्थानों में सक्रिय हैं. सिन्हा अफगानिस्तान में तथा राघवन पाकिस्तान में राजदूत भी रह चुके हैं. बहरहाल, यह कोई बड़ा मसला नहीं है कि भारतीय प्रतिनिधि कौन हैं, बड़ी बात यह है कि इस बातचीत में अफगानिस्तान, अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, ईरान और अन्य कुछ देशों के साथ भारत के भी होने से आगे के लिए राह बनने की उम्मीद बढ़ी है.

उन्नीसवीं सदी में रूसी और ब्रिटिश साम्राज्यों की प्रतिद्वंद्विता, बीसवीं सदी में सोवियत और अमेरिकी हितों का टकराव तथा आंतरिक और बाहरी लड़ाकों का संघर्ष जैसे विरासत का बोझ आज भी अफगानिस्तान ढो रहा है. इस मुश्किल चुनौती का तुरंता हल भी मुमकिन नहीं है पर बीते एक दशक से हालात तेजी से बदले हैं. अमेरिका की कोशिश है कि वह जल्दी अफगानिस्तान को छोड़ दे क्योंकि वह देश में स्थिरता लाने में सफल नहीं हो सका है. इसलिए वह 2010 से ही तालिबान से सीधी बातचीत कर रहा है तथा उसकी कोशिश रही है कि वह अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरकारों को भी भरोसे में ले. लेकिन अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई समेत अनेक जानकारों का यह भी कहना है कि संबद्ध पक्षों पर दबाव बनाने के इरादे अमेरिका ने अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट को भी घुसने और पैर जमाने का मौका दिया है.

दुनियाभर में राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ साधने के लिए आतंकवाद और हिंसापरस्त ताकतों के इस्तेमाल के अमेरिका के इतिहास को देखते हुए इस आरोप को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है. साल 2015 में पाकिस्तान ने भी अपने प्रयासों से अफगान अधिकारियों और तालिबानियों के बीच बातचीत करायी थी. उस बैठक में चीनी और अमेरिकी अधिकारी बतौर पर्यवेक्षक मौजूद थे. अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी पाकिस्तान के लिए भी बड़ा सिरदर्द है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनना भी इस पूरे प्रकरण में एक कारक है. एक तो वे अफगानिस्तान में जमे रहने के पक्षधर नहीं हैं और दूसरे यह कि पाकिस्तान से उनकी तनातनी ने पाकिस्तान में रूस और चीन के लिए बेहतर मौके दे दिए हैं. रूस का मानना है कि बिना तालिबान को भरोसे में लिए और सरकारी ढांचे में शामिल किए अफगानिस्तान में स्थायी शांति की स्थापना संभव नहीं है. इससे पाकिस्तान भी सहमत है.

एक कारक यह भी अहम है कि खुरासान के इस्लामिक स्टेट में रूसी और मध्य एशियाई मूल के लड़ाके ठीक-ठाक संख्या में हैं. यह बात रूस के लिए निश्चित रूप से चिंताजनक है. एक आयाम अफगानिस्तान में रूसी नागरिकों की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है. साल 2016 में वहां के रूसी राजदूत ने बयान दिया था कि रूसी नागरिकों की सुरक्षा के लिए वे तालिबान से संपर्क बनाए हुए हैं. अफगानिस्तान में निवेश तथा पाकिस्तान में अपने हितों की गारंटी के लिए चीन भी चाहता है कि अफगानिस्तान में अमन-चैन हो. भारत की सुरक्षा और दक्षिण एशिया में शांति के लिहाज से भी अफगानिस्तान की स्थिरता जरूरी है. भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सालों से अहम भूमिका निभा रहा है. ऐसे में सभी संबद्ध पक्षों का एक साथ आना सबके लिए फायदे की बात साबित हो सकती है.

यह बड़े संतोष की बात है कि इस प्रक्रिया में अफगानिस्तान सरकार को भरोसे में लेकर ही आगे बढ़ा जा रहा है. अफगानिस्तान राजनीतिक और जातीय स्तर पर बुरी तरह से बंटा हुआ देश है. सरकार में ही कई धड़े हैं, तालिबान में गुटबाजी है तथा कबीलों के अपने-अपने दस्ते हैं. बीते 20 अक्टूबर के चुनाव में हिंसा ने राष्ट्रपति अशरफ गनी को भी कमजोर किया है. संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि चुनाव में कम-से-कम 50 मौतें हुई थीं. तालिबान अब भी हमलावर हैं. मास्को बातचीत के ठीक पहले तालिबानियों ने करीब 14 अफगान सुरक्षाकर्मियों को मार दिया है.

पिछले महीने आयी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि इस साल के पहले नौ महीनों में 8,050 नागरिक हताहत हुए हैं, जिनमें से 313 मौतें और 336 घायल अमेरिकी और अफगान हवाई हमलों का नतीजा थे. एक तो हताहत सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर सरकार के नियंत्रण के क्षेत्र सिमटते जा रहे हैं. अफगानिस्तान पुनर्निर्माण के विशेष महानिरीक्षक की इस महीने आयी रिपोर्ट के मुताबिक, सितंबर के महीने तक आबादी के करीब 65 फीसदी हिस्से में सरकार का दबदबा था, पर अब यह 55.5 फीसदी रह गया है. भौगोलिक रूप से देखें, तो देश के हर हिस्से में कमोबेश तालिबानी मौजूदगी है.

एक आकलन के मुताबिक बीते साल हर हफ्ते करीब 200 सैनिकों और पुलिसकर्मियों की मौत हुई है. जाहिर है कि इस हालत में अफगानिस्तान या अमेरिकी सरकार के पास बातचीत के अलावा कोई और विकल्प है. ऐसी भी रिपोर्ट हैं कि हजारों सैनिकों और सिपाहियों का वेतन-भत्ता भ्रष्ट नेता और अधिकारी डकार जाते हैं. उल्लेखनीय है कि अफगानी सुरक्षाबलों के वेतन का बड़ा हिस्सा नाटो की जेब से आता है और यह राशि लगभग चार बिलियन डॉलर सालाना है. इसके साथ ही, सात से सत्रह साल के 44 फीसदी बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. देश के करीब 20 सूबे सूखे की चपेट में हैं.

ऐसे मानवीय और राजनीतिक संकट में बातचीत से ही रास्ता निकल सकता है. महाशक्तियों, क्षेत्रीय ताकतों और देशी कबीलों के खूनी खेल ने अफगानिस्तान को तबाह कर दिया है, अब तबाह करने के लिए बहुत कुछ बचा भी नहीं है. ऐसे में भारत ने अपनी पुरानी नीति में सराहनीय संशोधन किया है और बातचीत में भागीदारी की है. उम्मीद है कि कोई रास्ता बातचीत के कुछ दौर के बाद निकल आयेगा.


लेखक विदेश मामलों के जानकार वरिष्‍ठ पत्रकार हैं