डॉ.लोहिया: जाति तोड़ने को बेचैन राजनेता जिसके विचारों को शिष्य भी भूले!


खुद को लोहिया का राजनैतिक वारिस बताने वाले भी उनकी वैचारिकी से काफी दूर हो गये.




मयंक यादव

डॉ.लोहिया आखिर थे कौन ? क्यों उन्हें देश का सबसे अनोखा नेता कहा जाता है ? हिंदुस्तान में समाजवाद की नींव डालने वाले प्रमुख नेताओं में से एक राम मनोहर लोहिया का जन्म अकबरपुर जिले में 1910 में हुआ था. लोहिया के पिता गांधीवादी थे जिसका असर लोहिया पर भी हुआ लेकिन उस समय तक डॉ आंबेडकर के बाद जितनी आलोचना गांधीवाद की उन्होंने की उतनी शायद ही किसी ने की हो.

डॉ. लोहिया (जन्म: 23 मार्च 1910 ) मात्र 23 साल की उम्र में जर्मनी से पीएचडी करने के बाद आज़ादी की जंग में कूद गये. देश आज़ाद कराने के लिए लोहिया सात बार जेल गए थे. आगरा जेल में उन्हें इतना प्रताड़ित किया गया था कि उनके शरीर ने काम करना बंद कर दिया था. जिस जनेऊ के वर्चस्व के खिलाफ आज बहुजन जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसे तोड़ने के लिये लोहिया ने ही जाति छोड़ो- जनेऊ तोड़ो अभियान चलाया था और लाखों लोगो के जनेऊ तुड़वाकर जलवा दिया था. 60 के दशक में लोहिया ने ही कांग्रेस और ‘हिंदुस्तानी वामपंथ’ के ब्राह्मणवादी चरित्र पर सवाल करते हुए पहली दफा पिछडो के आरक्षण की मांग करते हुए नारा दिया था ‘संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़े पावे सौ में साठ’.

दिलचस्प बात है कि पिछड़ों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले लोहिया खुद मारवाड़ी बनिया (सवर्ण) थे. वे जाति नहीं मानते थे.कहते थे कि मेरे माँ बाप ज़रूर मारवाड़ी रहे हैं पर मैं नही रहूँगा. माना जाता है कि पहली दफा पिछड़ों को नेतृत्व देने वाली बिहार सरकार के नेता कर्पूरी ठाकुर को नेता बनाने वाले लोहिया ही थ. ग्वालियर में रानी के खिलाफ एक दलित को चुनाव लड़कर ‘रानी बनाम मेहतरानी’ का चुनाव बनाने वाले भी लोहिया ही थे. आज जिन भी यूनिवर्सिटीज में भारतीय भाषाएँ पढाई जा रही हैं या UPSC या अन्य पेपरो में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जो प्रश्न छपना शुरू हुए इसकी शुरुआती लड़ाई लड़ने वालों में लोहिया प्रमुख थे. भारतीय भाषाओं के प्रति उनका झुकाव उनके जर्मनी प्रवास के दौरान हुआ. नहर और नदी सफाई योजना के बारे में उन्होंने जो सुझाव 1960 में दिया था उसपर अब काम करने की योजना बनाई जा रही है, चाहे सिल्ट मैनेजमेन्ट हो या नदियों को जोड़ना हो.

 भारत की आज़ादी के बाद भी गोवा गुलामी के चंगुल में जकड़ा हुआ था. उसे आज़ाद कराने वाले दो मुख्य लोग जुलियाओ मेंइज़ेस और डॉ लोहिया ही थे. तिब्बत और नेपाल को लेकर भारत में सहानुभूति और सहकार की जो भावना है, उसमें लोहिया का बहुत बड़ा योगदान है. नेपाल में भी उनके जमाये हुए कई साथी समाजवाद की अलख जगाये रखने की कोशिश करते रहे. आज जिस एमएसपी और मिनिमम वेजेस की बात आज होती है उसको सबसे पहले मज़दूर और किसानों के ‘दाम बांधो’ नाम से सड़क से संसद तक संघर्ष चलाने वाले डॉ लोहिया ही थे. वो ‘फेमिनिस्ट लोहिया’ थे जो कहते थे कि एक मर्द और औरत के बीच वादाखिलाफी और बलात्कार के अलावा सारे सम्बन्ध जायज़ हैं. वे लोहिया ही थे जो छुआ-छूत और रंग भेद के उस दौर में ऐतिहासिक लेख लिखकर बताते हैं कि चमड़ी के रंग का सुंदरता से कोई लेना देना नही है. रंग भेद का विरोध करते हुए ही वे अमेरिका में भी गिरफ्तार कर लिए गए थे.

आज़ादी के पहले लोहिया कांग्रेस के विदेश सचिव हुआ करते थे और आज़ादी के बाद पहली कैबिनेट में भी उन्हें मंत्री बनाया जाना था लेकिन अगर वे उसे स्वीकार कर लेते तो गरीबो के हक़ के लिए नेहरू के साथ चली उनकी ऐतिहासिक ‘तीन आना बनाम छः आना’ की बहस कैसे हो पाती. जिस पंचायती राज व्यवस्था के द्वारा रिप्रजेंटेशन देने पर हम आज फूले नहीं समाते हैं वो लोहिया के सुझाये गये ‘चौखम्भा राज’ का ही रूप है.

12 अक्टूबर 1967 को मात्र 57 वर्ष की उम्र में दुनिया छोड़ने से पहले डॉ.लोहिया बहुत कुछ ऐसा करके और लिख कर गए कि वे आज भी भारतीय परिदृश्य के हिसाब से सबसे प्रासंगिक नेताओं में से एक हैं. कहा जाता है जाति पर मुखर रूप से बोलने के कारण भरतीय अकैडमिया ने उन्हें वो जगह नहीं दी जिसके वे हकदार थे, और खुद को उनका राजनैतिक वारिस बताने वाले लोग भी उनकी वैचारिकी से काफी दूर हो गये.

मयंक यादव, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं।