पिछले दिनों मंगलूरू में विश्व हिन्दू परिषद की केंद्रीय प्रबंध कमेटी और न्यासी मंडल की बैठक को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने कहा कि “हिंदू समाज में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की बात करना सही नहीं है.” यह बात कह कर संघ के भैयाजी जोशी ने कम से कम यह तो स्वीकार ही कर लिया कि भारत में ‘जन्म के आधार पर श्रेष्ठता’ वाली व्यवस्था आज भी चल रही है. इस बात को आमतौर पर आरएसएस के लोग नजरअंदाज कर देते हैं या फिर आसानी से स्वीकार नहीं करते. उन्हें लगता है कि आज के भारत में जाति, धर्म और जन्म स्थान के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव नहीं होता है.
आरक्षण की समीक्षा किए जाने की बात करने के पीछे भी संघ प्रमुख मोहन भागवत का तर्क यही था.
दरअसल आरएसएस मनुवादी वर्ण व्यवस्था की तरफ हमेशा से आकर्षित रहा है. उसके अधिकतर क्रियाकलाप समाज पर सवर्ण जातियों के वर्चस्व को मजबूत करने की सोच से प्रेरित होते हैं. ऐसे में भैयाजी जोशी का समाज की इस विकृत भावना को बदलने की बात कहना चौकाता जरुर है. हालांकि समानता की जगह समरसता वाला समाज बनाने की बात करके वो एक बार फिर ये जाहिर कर ही देते हैं कि वे समाज से सवर्ण वर्चस्व को ख़त्म नहीं होने देना चाहते.
संघ अपनी आक्रामकता के लिए जाना जाता है पर हमने देखा है कि देश में होने वाली जातीय भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाओं पर अक्सर वो सॉफ्ट और साइलेंट ही रहता है. आज के आधुनिक व तथाकथित सभ्य समाज में जब कभी जातीय उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती हैं, तो उस पर संघ की कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती है. शायद ऐसी घटनाएं उनके लिए कोई मुद्दा ही नहीं होती हैं. जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है वहां संघ कितना ताकतवर है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है, लेकिन जातीय उत्पीड़न की घटनाओं पर देश में या बीजेपी शासित राज्यों में क्या कोई लगाम लग सकी है? ये सोचने वाली बात है.
संघ अधिकतर यह तो कहता रहता है कि समाज में भेदभाव, छुआछूत की घटनाएं बंद होनी चाहिए पर क्या आरएसएस ने उसके लिए कोई मुहिम या अभियान शुरू किया जिससे ये महसूस हो कि संघ इसके प्रति गंभीर है? सवाल ये भी हैं कि जो ग्रन्थ समाज में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की बात करतें हैं उनका क्या होगा? क्या संघ उन ग्रंथों का बहिष्कार करने या उन पर पाबन्दी लगाने के लिए कोई मुहिम शुरू करने जा रहा है?
मनुस्मृति और जन्म के आधार पर भेदभाव करने वाले अन्य ग्रंथों का परित्याग किये बिना ही वे अक्सर समरसतापूर्ण समाज बनाने की हवा-हवाई बात करते हुए देखे जाते हैं. अब ये बात समझ में नहीं आती कि जिस व्यवस्था के कारण समाज विभिन्न जातीय समूहों में बंट गया उस वर्ण व्यवस्था को नकारे बिना ही समरसतापूर्ण समाज कैसे बनाया जा सकता है? जो पुस्तकें जाति आधारित श्रेष्ठता की भावना को मजबूती देती हैं उनका परित्याग किये बिना समरसता लाना क्या संभव हो सकेगा?
हालांकि वर्ण व्यवस्था के सवालों पर वे लोगों को भ्रमित करने की कोशिशें जरुर करते हैं. “वर्ण व्यवस्था में जन्म नहीं कर्म को श्रेष्ठता का आधार माना गया है” इस लाइन को वे अपने सुरक्षा कवच के रूप में इस्तेमाल करते हैं, पर ये कड़वी सच्चाई किसे नहीं मालूम है कि यहाँ के समाज में जन्म आधारित श्रेष्ठता की भावना ने अपनी जड़ें इतनी गहरी कर ली हैं कि गुण-कर्म पर आधारित श्रेष्ठता उसके सामने कहीं दिखाई ही नहीं देती. गुण-कर्म पर आधारित श्रेष्ठता को मान्यता लेने के लिए अक्सर समाज में संघर्ष करना पड़ता है.
सबकुछ जानने-समझने का दावा करने वाला संघ परिवार इससे अनजान तो नहीं होगा फिर वो इस तरह को बातें क्यों कर रहा है? इसके पीछे छिपी हुई, समाज में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को समर्थन करने वाली जातियों का वर्चस्व को बनाये रखने वाली आरएसएस की सोच को समझना होगा! वे किसी भी हालत में सबको समानता का अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं. वे चाहतें हैं कि गुण-कर्म पर आधारित श्रेष्ठता को मान्यता पाने के लिए जाति आधारित श्रेष्ठता के सामने संघर्ष की जरुरत पड़ती रहे. जातियां बनी रहे क्योंकि अगर जातियां ख़त्म हो गयीं तो उच्च और निम्न की भावना भी ख़त्म हो जाएगी.
यही वजह है कि संघ समानता वाला समाज बनाने की बजाए समरसतापूर्ण समाज के निर्माण की बात करता है. सामाजिक सन्दर्भ में समरसता का अर्थ किसी समाज की उस स्थिति से है जिसमें असमानता और अलग प्रतिष्ठा रखने के बाद भी लोग एक दुसरे से मिल-जुल कर रहतें हों, उनमें आपसी प्रेम-सौहार्द्य और एकता की भावना बनी रहे. वहीँ समानता का अर्थ किसी समाज की उस स्थिति से है जिसमें उस समाज के सभी लोग समान अधिकार या प्रतिष्ठा रखते हों.
भैयाजी जोशी का समरसतापूर्ण समाज बनाने का हालिया बयान दरअसल आरएसएस की उस रणनीति का हिस्सा है, जिससे संघ परिवार के प्रति शोषित- वंचित जातियों के आक्रोश के वेग को कम किया जा सके. इस बयान की आड़ में वे सवर्ण तुष्टीकरण वाली अपनी सोच और मनुवादी एजेंडे को छिपाना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि समाज में इससे ये संदेश चला जाएगा कि संघ समाज से जातिपात और भेदभाव को खत्म करना चाहता है लेकिन एक तरफ आज के समाज में फैली वर्ण व्यवस्था का पक्षधर रहना और दूसरी तरफ जन्म आधारित श्रेष्ठता की भावना को त्यागने की बात करना दोनों एक साथ कैसे चल सकते हैं?
रही बात समरसता की तो जब तक समानता नहीं आएगी तब तक समरसता भी नहीं आ सकती. अगर समरसता की चाहत है तो आरएसएस को समानता वाला समाज बनाने की बात करनी होगी. क्योकि समानता के बाद जो समरसता आएगी उसकी आयु बहुत लम्बी होगी!
लेखक राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (युवा) के राष्ट्रीय सचिव हैं.