लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की शर्मनाक हार के बाद आखिर वही हुआ जिसका अंदेशा था। बसपा प्रमुख मायावती ने हार का ठीकरा सपा पर फोड़ते हुए कह दिया कि सपा ने अपना कोर यादव वोट बसपा प्रत्याशियों को ट्रांसफर नहीं करवाया जबकि बसपा के कोर वोटरों ने सपा को अपने वोट दिए हैं। मायावती ने एक तरह से अखिलेश यादव को नसीहत भी दे डाली कि वो पहले अपने संगठन को ठीक कर लें तभी भविष्य में ऐसा फिर कोई गठजोड़ बन पाएगा। इस तरह मायावती ने हार की जिम्मेदारी सपा पर थोप कर और उसे नसीहत दे कर अपने को उन तमाम आलोचनाओं और समीक्षाओं से बचा लेने की कोशिश की है जो गठजोड़ के बने रहने तक उसे भी साझेदार की हैसियत से झेलनी पड़ती।
मायावती ने हार का ठीकरा सपा पर फोड़ कर बसपा के अंदर के खोखलेपन को छिपाने की कोशिश की है। सच्चाई खुद उन्हें भी पता है कि जाटवों और चमार बिरादरी का एक निर्णायक हिस्सा, जिसकी वे कभी अकेले नेता रही हैं- पिछले लोकसभा चुनाव से ही सपा के कोर वोटर यादवों की तरह भाजपा में जा चुका है। इसका प्रमाण खुद मुलायम सिंह यादव के समर्थकों द्वारा मैनपुरी एक गांव के दलितों की पिटाई किया जाना है क्योंकि उन्होंने उत्तर प्रदेश में यादव राजनीति के इस संस्थापक नायक को वोट नहीं दिया था।
जाहिर है, वहां दलितों ने अपना वोट सीधे भाजपा को ही दिया होगा क्योंकि बसपा तो खुद मुलायम सिंह को सपोर्ट कर रही थी और कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार दिया नहीं था। इस पूरे प्रकरण में एफआइआर भी दर्ज हुई है। यानी यादवों द्वारा बसपा को वोट न देने का भले कोई ठोस प्रमाण मायावती के पास न हो, लेकिन जाटवों द्वारा यादव नेता को वोट न देने और फिर उसका हिंसक खामियाजा भुगतने का प्रमाण सरकारी लिखा-पढ़ी में मौजूद है।
कहने का मतलब यह है कि मायावती का अखिलेश यादव पर अपने जाति का वोट न ट्रांसफर कराने का आरोप सही तो है, लेकिन यही बात बसपा के लिए भी सच है। उसके कोर जाटव और चमार वोटों का एक निर्णायक हिस्सा सपा को नहीं गया।
ये अलग बात है कि अखिलेश यादव ने इसी लहजे में प्रतिक्रिया न देकर एक दूसरे की पोल खोलने के सिलसिले को यहीं रोकने की कोशिश की है, जिसे बहुत सारे अस्मितावादी टिप्पणीकारों ने उनकी शालीनता मान लिया। जबकि मामला शालीनता से ज्यादा इस चालाकी का था कि आरोप-प्रत्यारोप के चलते कहीं यह सवाल केन्द्रीय न बन जाए कि ये तो ठीक है कि यादवों और जाटवों का वोट एक-दूसरे को नहीं गया लेकिन इन दोनों का कोर वोट भाजपा को कैसे चला गया? यानी मायावती और अखिलेश की पूरी कोशिश यह दिखाने या यह स्वीकार करने तक ही सीमित रही कि उनके जातिगत वोट एक दूसरे को नहीं गए। इस तरह वे एक-दूसरे को इस सवाल से बचाने की कोशिश करते रहे कि कहीं सवाल यह न बन जाए कि इनके वोट भाजपा को कैसे और क्यों चले गए?
खासकर, इन्हें डर ये है कि कहीं मुसलमानों की तरफ से यह सवाल न पूछा जाने लगे क्योंकि 19 प्रतिशत मुस्लिम वोटर ही अपने मूल में घोर साम्प्रदायिक और अवसरवादी इन दोनों जातिगत गिरोहों का बोझ मुफ्त में ढोता रहा है।
गौरतलब है कि कुछ समय से मुस्लिम समाज के भीतर से ऐसे सवाल लगातार उठ रहे हैं जिसमें सपा और बसपा सरकारों को सिर्फ यादवों और जाटवों की सरकार की तरह व्यवहार करने और मुसलमानों को छलने की बात कही जा रही है। जाहिर है मुसलमानों की तरफ से ऐसे सवाल उठना सपा और बसपा दोनों के अस्तित्व के लिए चुनौती है क्योंकि उनके बीच अगर ऐसी धारणा बनती है और परिणामस्वरूप मुस्लिम मतदाता बंट जाता है या इनको अपेक्षित उत्साह से वोट नहीं करता है- जैसा कि पिछले विधानसभा चुनाव में हुआ- तो ये दोनों पार्टियां अपनी असली हैसियत में आ जाएंगी।
बहुत सारे कथित सामाजिक न्यायवादी टिप्पणीकार हालांकि इसके पीछे संघ परिवार की जबरदस्त कार्यक्षमता को जिम्मेदार बताते हुए इस केंद्रीय सवाल को ही गोल कर देने की कोशिश कर रहे हैं कि इसके लिए असली कारक इन दोनों पार्टियों के जातिगत आधारों में मौजूद मुसलमानों के खिलाफ साम्प्रदायिक कुंठा है जिसे खुद इन पार्टियों ने संरक्षण दिया है। उन्होंने अपनी जाति के नेताओं को मुसलमानों से वोट लेने की धूर्त कला तो सिखाई, लेकिन उनका सेक्युलराइजेशन नहीं किया।
मुसलमानों के बीच हालांकि यह सवाल अब बहस का मुद्दा बन चुका है कि गठबंधन ने सिर्फ उन्हीं सीटों पर अच्छा प्रदर्शन क्यों किया जहां या तो मुस्लिम मतदाता ज्यादा थे या फिर जहां गठबंधन प्रत्याशी स्वयं मुस्लिम था- जैसे मुरादाबाद, रामपुर, संभल, सहारनपुर या ग़ाज़ीपुर।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि मुसलमानों के बीच हो रही इस बहस को हिंदी के पिछड़ावादी टिप्पणीकारों ने जान-बूझ कर नजरअंदाज किया। अखिलेश और मायावती के बीच दरार पर लोहिया और अम्बेडकर के संयुक्त सपने के टूटने जैसे यूटोपियाई मुहावरों में तो शोक व्यक्त किया गया, लेकिन इस कथित सामाजिक न्यायवादी राजनीति के प्रति मुसलमानों में पनप रहे वाजिब सवालों पर खामोशी बरती गई। जाहिर है यह अपने आप में अस्मितावादी साम्प्रदायिकता है, जिसकी ग्रंथि पाले लोग किसी भी तरह मुसलमानों को घोर मुस्लिम-विरोधी जातिगत व अस्मितावादी गिरोहों की गुलामी में लगाये रखना चाहते हैं।
इन अस्मितावादी धूर्तों को आप रोस्टर के सवाल पर शोर मचाते तो देख सकते हैं, लेकिन विश्वविद्यालयों में मुस्लिम शिक्षकों की नगण्य संख्या इनको सामाजिक न्याय से बाहर का सवाल लगता है। इन्हें भागलपुर के मुस्लिम-विरोधी दंगों का जिक्र करना या पहलू खान की लिंचिंग पर भाषण देना तो पसंद है, लेकिन भागलपुर दंगे के मुख्य अपराधियों के नाम लेना गवारा नहीं होता। इन्हें मंडल आयोग की चिंता तो रहती है लेकिन उसी के तहत 9 प्रतिशत पसमांदा मुसलमानों की हिस्सेदारी की सिफारिश पर वे आपराधिक चुप्पी साधे रहते हैं। केवल इसलिए क्योंकि इससे उसकी ’पिछड़ी’ हिंदू अस्मितावादी भावना या आदर्श- जो समझ लीजिए, आहत होती है।
इस मुश्किल सवाल से कन्नी काटने के लिए वे बहस को यहां तक तो ले जाते हैं कि यादवों और जाटवों अथवा चमारों के बीच पिछले तीस साल से वर्चस्व की लड़ाई चल रही है, इसलिए अचानक हुए इस जातिगत गठबंधन के लिए दोनों समूह अंदर से तैयार नहीं थे। यानी वे इस पर बहस न करने के लिए हर पैंतरा लगा लेंगे कि जाति की राजनीति को अंततः हिंदुत्व में समाहित होना ही है या कैसे एक दूसरे को फूटी आंखों न देखने वाली दो जातियां आखिर किस ’पवित्र’ उद्देश्य से एक खुली मुस्लिम-विरोधी फासिस्ट पार्टी को वोट देती हैं?
यह चालाक तबका इस सवाल पर भी बात करने से कतराता है कि यादवों के खिलाफ गैर-यादव 76 ओबीसी जातियों और गैर-चमारों और जाटवों के खिलाफ बाकी की 65 दलित जातियों में क्यों जबरदस्त नाराजगी थी? जबकि चुनाव परिणाम का कुल रहस्य इसी में छुपा है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश के कई यादवों को यह कहते हुए सुना गया था कि मोदी जी दिल्ली में फिट हैं और अखिलेश यादव लखनऊ में फिट हैं। इसका निहित संदेश क्या साफ नहीं था?
ऐसे विश्लेषकों को यह समझना चाहिए कि सपा और बसपा के जातिगत आधारों का हिंदुत्व में समाहित होना बहुत तार्किक और स्वाभाविक घटना है क्योंकि सामान्यतः बसपा और खासकर सपा अब अपने जातिगत आधारों की युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं को आवाज नहीं दे सकती। मुलायम सिंह यादव 30 साल पहले के यादवों की थाने और कचहरी में उपस्थिति की आकांक्षा को पूरा कर सकते थे और बदले में उनका वोट पा सकते थे। आज बीटेक और दूसरी तकनीकी पढ़ाई करने वाले या कॉल सेंटर में काम करने की इच्छा रखने वाले, दिन-रात कंप्यूटर और मोबाइल पर लगे यादव युवा से आप ’अहीर’ रेजिमेंट बनाने का सपना दिखा कर वोट नहीं ले सकते। उसे डिजिटल इंडिया का सपना दिखाने वाला और मुसलमानों को ’ठोकने’ वाला हत्यारा कहीं ज्यादा रास आएगा।
इसलिए जो लोग सपा और बसपा के इस प्रयोग से उत्साहित थे और इसके टूटने को किसी दुर्घटना के बतौर देखने और दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, वे या तो भ्रम में हैं या फिर अफवाह फैलाने के इस अपराध में संलिप्त हैं। आप किसी प्राकृतिक मौत को दुर्घटना में हुई मौत नहीं बता सकते। यह अपराध है।
इस चुनाव परिणाम ने और हिंदुत्व के पक्ष में पिछड़ों और दलितों के एक बड़े हिस्से के मतदान ने एक बात को स्पष्ट कर दिया है कि हिंदुत्व का मुकाबला न तो अम्बेडकरवाद कर पाएगा और न ही पिछड़ा और जातिगत अस्मितावाद। ये दोनों धाराएं तभी तक हिंदुत्व को रोक सकती थीं जब तक भाजपा शहरी ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी थी। आज, जब भाजपा वास्तव में हिंदुओं के सर्वसमाज की पार्टी बन गयी है तब उसका मुकाबला वैचारिक और रणनीतिक दोनों स्तरों पर एक ऐसी अखिल भारतीय पार्टी ही कर सकती है जो सभी वर्गों में अपील रखती हो। यह मुकाबला आज की तारीख में भले बराबरी का न दिखता हो, लेकिन भाजपा के रास्ते में सबसे बड़ी वैचारिक और रणनीतिक रुकावट अगर कोई है तो वह कांग्रेस ही है।
इस बात को हमारे अस्मितावादी, पिछड़ावादी और अम्बेडकरवादी विश्लेषकों से कहीं स्पष्ट तौर पर संघ के लोग समझते हैं। आखिर क्या वजह है कि भाजपा, कांग्रेसमुक्त भारत की बात करती है? वह कभी भी सपा मुक्त, बसपा मुक्त या राजद मुक्त भारत की बात नहीं करती? आखिर क्या वजह है कि संघ का आईटी सेल अखिलेश, माया या मुलायम के बजाय सिर्फ राहुल गांधी और उनके परिवार की छवि को खराब करने के लिए हर महीने अरबों रुपये खर्च करता है? आखिर क्या वजह है कि वे महात्मा गांधी की तो हत्या करते हैं या नेहरू की हत्या नहीं कर पाने का अफसोस जताते हैं, लेकिन जयप्रकाश नारायण और लोहिया से उन्हें कभी कोई शिकायत नहीं रही?
दूसरी ओर, मुसलमानों के लिए इस चुनाव परिणाम में सबक यही है कि उन्हें अब सपा और बसपा की अस्मितावादी साम्प्रदायिक राजनीति को मजबूत करके अपने हितों पर कुल्हाड़ी चलानी बन्द करनी होगी। जो यादव अब खुद सपा को छोड़ कर भाजपा का रुख कर चुका है, उस 7 प्रतिशत वाले समाज की सियासी हैसियत को अपने 19 प्रतिशत वोट से मुसलमान क्यों बनाये रखे? उसे उसके हाल पर छोड़ देना ही उसके साथ न्याय होगा। वैसे भी अब वह खुद अप्रासंगिक होने की कगार पर है। याद रखिये, जैसे ही मुसलमान सपा को वोट देना बंद कर देंगे वैसे ही यादवों का बड़ा हिस्सा खुद सपा छोड़ देगा क्योंकि वो वहां सिर्फ टिका ही इसलिए है कि उसे मुसलमानों का एकमुश्त 19 प्रतिशत वोट मिलने की गारंटी रहती है। यानी मायावती जिस यादव समाज को सपा का कोर वोटर बता रही हैं, वह खुद भी सपा के पास सिर्फ मुसलमानों के वोट की लालच में है। वो कोई कोर वोटर नहीं है।
मुसलमानों के कांग्रेस से जुड़ने की दूसरी वजह खुद मुसलमानों की समस्याओं के केंद्रीय सरकार द्वारा हल किये जाने की व्यवस्था है। मसलन, दलित मुसलमानों के लिए अनुसूचित जाति के कोटे में हिस्सेदारी का सवाल हो चाहे सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की संस्तुतियां हों- सभी केंद्र सरकार द्वारा ही लागू की जा सकती हैं। यानी जब आपका काम राष्ट्रीय पार्टी से ही होना है तो फिर इलाकाई पार्टियों को अपना वोट और नोट देना सिवाय मूर्खता के और क्या है? ये कुछ वैसा ही है कि आपका काम होना है पुलिस कप्तान से और आप होमगार्ड के पीछे घूम रहे हों।
तीसरी वजह, अगर कांग्रेस नेतृत्व धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर कोई गलत अप्रोच रखता हो तो आप उस पर खुद उसके शानदार इतिहास और गांधी नेहरू के व्यक्तिगत और राजनीतिक आदर्शों के हवाले से सवाल उठा सकते हैं। लेकिन सपा और बसपा का इस सवाल पर अपना इतिहास और उसके नेतृत्व का व्यक्तिगत व्यवहार इतना साम्प्रदयिक रहा है कि आप उसे अपने इतिहास में झांकने की सलाह भी नहीं दे सकते।
चौथी बात, भारतीय राजनीति में मुसलमान एक राष्ट्रीय प्राणी हो गया है। यानी देश का एक बड़ा हिस्सा उसको देख कर ही वोट करता है। मसलन, अगर पटना में किसी मुसलमान युवक के आतंकी घटना में पकड़े जाने की फर्जी खबर चेन्नई के अखबार में भी छपे तो वहां भी भाजपा का वोट बढ़ जाएगा। यानी बहुसंख्यक समाज उसे राष्ट्र के लिए खतरा मान कर भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी को वोट दे देगा। लेकिन मुसलमान अपना सियासी कद गिरा कर क्षेत्रीय पार्टियों को वोट देकर खुद अपनी प्रासंगिकता को कम कर लेता है। लिहाजा, मुसलमानों को अब समझना होगा कि उसकी अपनी हैसियत और ताकत में इजाफा कांग्रेस में जाने से ही होगा। बाकी का कोई भी ठिकाना कब भितरघात कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता।
लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं